आपदाओं और जलवायु परिवर्तन के प्रभाव को कम करना

  1. जलवायु परिवर्तन अनुकूलन और आपदा प्रबंधन
  2. फ़ोटो निबंध: जलवायु परिवर्तन पर सबक
  3. जलवायु परिवर्तन
  4. जलवायु परिवर्तन के प्रभाव पर जंगल की क्षमता को बढ़ा
  5. जानिए डेटॉल के क्लाइमेट रेजिलिएंट स्कूल प्रोजेक्ट के पीछे का एजेंडा, जिसका उद्देश्य भारत में जलवायु परिवर्तन संकट से निपटना है
  6. हिमाचल प्रदेश: जलवायु परिवर्तन के असर को कम नहीं किया तो और बढ़ेंगी प्राकृतिक आपदाएं


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जलवायु परिवर्तन अनुकूलन और आपदा प्रबंधन

भारत जैसे विकासशील देशों जहाँ कृषि एवं अन्य संसाधनों का उपयोग आजीविका और आर्थिक प्रगति के लिये आधारभूत प्राथमिक स्रोत के रूप में किया जाता है, में चुनौतियाँ विशेषकर ज्यादा गंभीर है। भूकम्प, ज्वालामुखी विस्फोट, भूस्खलन आदि भौगोलिक आपदाओं की तुलना में जलवायु परिवर्तन से संबंधित आपदाओं का प्रभाव कहीं अधिक दर्ज किया गया (आरेख 1)। ग्लोबल वार्मिंग पर वैज्ञानिक जागरूकता का इतिहास 1980 या उससे भी पहले का है, जो बाद में तीव्र सामाजिक-राजनीतिक जागरूकता के रूप में बदला। अगस्त 1989 में मध्य भारत में पर्यावरणीय विज्ञान परिषद द्वारा आयोजित विचार मंथन कार्यशाला में एक स्वर में हिम झीलों पर बढ़ते जोखिम और अन्य विध्वंसक बाढ़ों, सूखा और अकाल, आंधियों और महामारी के प्रकोप पर चिंता जाहिर की गई थी। हालाँकि, इन बदलावों के लिये जिम्मेदार कारणों की वैज्ञानिक पहचान बहुत कमजोर थी। जलवायु परिवर्तन पर अंतर सरकारी पैनल (आईपीसीसी) ने आपदाओं पर जलवायु परिवर्तन के प्रभाव को विज्ञान के आधार पर प्रस्तुत करने में अग्रणी भूमिका निभाई। आपदा प्रबंधन : उल्लेखनीय बदलाव आईपीसीसी की चौथी आकलन रिपोर्ट (2007) ने वैश्विक स्तर पर आपदा जोखिम प्रबंधन के साथ जलवायु परिवर्तन अनुकूलन को केंद्रित करने के लिये राजनीतिक मान्यताएँ दिलाने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई। इसे हम आपदा प्रबंधन में दूसरे बड़े बदलाव के रूप में देखते हैं। इसमें तीन पहलुओं पर ध्यान दिया गया था : (1) खतरनाक जोखिम का हल, (2) अतिसंवेदनशीलता को कम करना, और (3) पर्यावरण ज्ञान पर आधारित दृष्टिकोण। इसके पहले के बदलाव में आपदा प्रबंधन में ‘बचाव एवं राहत’ से आगे आकर ‘रोकथाम एवं तैयारी’ केंद्रित दृष्टिकोण अपनाया गया था। वैश्विक स्तर पर ‘आपदा प्रबंधन’ पर्यावरण परिवर्...

फ़ोटो निबंध: जलवायु परिवर्तन पर सबक

जलवायु परिवर्तन के प्रति संवेदनशील देशों की सूची में भारत सूखे, बाढ़ और चक्रवात के बढ़ते प्रभावों के कारण और अधिक लोगों के जीवन और आजीविका खोने की आशंका प्रबल हो जाती है। हालांकि, भारत भर में समुदाय और लोग अपने आसपास के पर्यावरण में आए बदलावों के प्रति प्रकृति-आधारित समाधानों और पारंपरिक ज्ञान को अपनाकर पर्यावरण की सहनशक्ति का निर्माण कर रहे हैं। यह फोटो निबंध भारत के कुछ सबसे अधिक जलवायु संवेदनशील राज्यों जैसे केरल, महाराष्ट्र, ओडिशा, राजस्थान और उत्तराखंड में रहने वाले लोगों पर जलवायु परिवर्तन के प्रभाव को दर्शाता है। साथ ही यह इस बारे में बताता है कि ये लोग विषम परिस्थितियों के बीच रहकर कैसे अपने जीवन का पुनर्निर्माण कर रहे हैं। चित्र साभार: शॉन सेबस्टियन जयचंद्रन और उनकी बेटियां केरल के इडुक्की जिले में अपने नए घर के सामने बैठी हैं। 2018 में चित्र साभार: शॉन सेबस्टियन शिव प्रकाश और उनका परिवार, राजस्थान के जोधपुर के नज़दीक गोविंदपुरा नाम के एक गांव में रहता है। 2000 के दशक की शुरुआत तक250 परिवारों वाला गोविंदपुरा गांव मौसमी बाढ़ और सालाना सूखे की चुनौतियों से जूझ रहा था। समय के साथ गांव के लोगों ने स्थानीय समाजसेवी संस्थाओं के साथ मिलकर (चेक-डैम) जैसे ढाँचों का निर्माण किया ताकि बहते पानी को रोका जा सके और भूजल का स्तर बढ़ाया जा सके। चित्र साभार: शॉन सेबस्टियन उत्तराखंड के अलमोड़ा जिले में शीतलाखेत नाम की जगह जंगल की आग के कारण तबाह हो गई। यहीं पर आग से झुलसे जंगल के एक हिस्से में एक महिला समूह के सदस्य मिलते हैं। जैसे पिछले कुछ सालों में जंगल में आग लगने की घटनाओं में वृद्धि हुई है, उसे देखते हुए महिला मंगल दल ने राज्य के वन विभाग के अधिकारियों के साथ मिलकर काम करना श...

जलवायु परिवर्तन

इस Editorial में The Hindu, The Indian Express, Business Line आदि में प्रकाशित लेखों का विश्लेषण किया गया है। इस लेख में जलवायु परिवर्तन की चुनौती पर चर्चा की गई है। साथ ही इससे निपटने के प्रयासों का भी उल्लेख किया गया है। आवश्यकतानुसार, यथास्थान टीम दृष्टि के इनपुट भी शामिल किये गए हैं। संदर्भ विश्व भर में जलवायु परिवर्तन का विषय सर्वविदित है। इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि वर्तमान में जलवायु परिवर्तन वैश्विक समाज के समक्ष मौजूद सबसे बड़ी चुनौती है एवं इससे निपटना वर्तमान समय की बड़ी आवश्यकता बन गई है। आँकड़े दर्शाते हैं कि 19वीं सदी के अंत से अब तक पृथ्वी की सतह का औसत तापमान लगभग 1.62 डिग्री फॉरनहाइट (अर्थात् लगभग 0.9 डिग्री सेल्सियस) बढ़ गया है। इसके अतिरिक्त पिछली सदी से अब तक समुद्र के जल स्तर में भी लगभग 8 इंच की बढ़ोतरी दर्ज की गई है। आँकड़े स्पष्ट करते हैं कि यह समय जलवायु परिवर्तन की दिशा में गंभीरता से विचार करने का है। क्या है जलवायु परिवर्तन? • जलवायु परिवर्तन को समझने से पूर्व यह समझ लेना आवश्यक है कि जलवायु क्या होता है? सामान्यतः जलवायु का आशय किसी दिये गए क्षेत्र में लंबे समय तक औसत मौसम से होता है। • अतः जब किसी क्षेत्र विशेष के औसत मौसम में परिवर्तन आता है तो उसे जलवायु परिवर्तन (Climate Change) कहते हैं। • जलवायु परिवर्तन को किसी एक स्थान विशेष में भी महसूस किया जा सकता है एवं संपूर्ण विश्व में भी। यदि वर्तमान संदर्भ में बात करें तो यह इसका प्रभाव लगभग संपूर्ण विश्व में देखने को मिल रहा है। • पृथ्वी के समग्र इतिहास में यहाँ की जलवायु कई बार परिवर्तित हुई है एवं जलवायु परिवर्तन की अनेक घटनाएँ सामने आई हैं। • पृथ्वी का अध्ययन करने वाले वैज्ञानिक बताते है...

जलवायु परिवर्तन के प्रभाव पर जंगल की क्षमता को बढ़ा

• एक नए अध्ययन में पाया गया है कि ज़्यादा-से-ज़्यादा कार्बन सोख लेने के जरिए जलवायु परिवर्तन के प्रतिकूल प्रभाव को कम करने की भारतीय जंगलों की क्षमता को बढा-चढ़ा कर पेश किया गया है। • मशीन लर्निंग फ्रेमवर्क का इस्तेमाल करके शोधकर्ताओं ने घास के मैदानों, झाड़-झंखाड़ वाले क्षेत्रों और जंगली इलाकों को दरकिनार करते हुए, जो प्राकृतिक जंगलों के विकास के लायक नहीं है, उन अतिरिक्त क्षेत्रों का पता लगाया है जो नए वनों के पुनर्रोपण और कृषिवानिकी के लिए मुफ़ीद हैं। • अध्ययन में यह भी पाया गया है कि भारत में वनों के पुनर्रोपण के जरिए जलवायु परिवर्तन के प्रतिकूल प्रभाव को कम करने की अतिरिक्त क्षमता, भारत द्वारा 2015 के पेरिस समझौते में किए गए वादे के मुकाबले एक चौथाई से भी कम है। वनों के पुनर्रोपण और कृषिवानिकी के जरिए अतिरिक्त कार्बन को सोखकर जलवायु परिवर्तन के प्रतिकूल प्रभाव को कम करने की कोशिश हो रही है। पर इसके जरिए जो लक्ष्य हासिल किया जा सकेगा वह भूमि के उपयोग, भूमि के उपयोग में परिवर्तन और वानिकी की कैटगरी (LULUCF) के क्षेत्र में भारत द्वारा 2015 में किए गए पेरिस समझौते में भारत के लिए राष्ट्रीय स्तर पर यह लक्ष्य निर्धारित किया गया है कि उसे इतना अतिरक्त वनारोपण और वृक्षारोपण करना है जिससे कि उनके जरिए 2.5 से लेकर 300 करोड़ टन कार्बन डाइऑक्साइड सोख लिया जा सके। ऐसे में भारत को यदि इन अंतर्राष्ट्रीय प्रतिबद्धताओं को पूरा करना है तो उसे 2030 तक अपने भौगोलिक क्षेत्र के 33 फीसद हिस्से को वनों के दायरे में लाना होगा। ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी, यूनिवर्सिटी ऑफ एक्सेटर, हैदराबाद विश्वविद्यालय और जेएनयू के वैज्ञानिकों ने पूरे भारत में फैले जंगलों में निर्धारित 11,000 जीपीएस बिंदुओं पर आधारित एक ऐस...

जानिए डेटॉल के क्लाइमेट रेजिलिएंट स्कूल प्रोजेक्ट के पीछे का एजेंडा, जिसका उद्देश्य भारत में जलवायु परिवर्तन संकट से निपटना है

बेहतर भविष्य के लिए रेकिट की प्रतिबद्धता जानिए डेटॉल के क्लाइमेट रेजिलिएंट स्कूल प्रोजेक्ट के पीछे का एजेंडा, जिसका उद्देश्य भारत में जलवायु परिवर्तन संकट से निपटना है पर्यावरण के प्रति जागरूक बच्चों का एक कैडर तैयार करने के लिए डेटॉल इंडिया ने भारत में जलवायु अनुकूल स्कूलों (Climate resilient schools) के निर्माण की एक पहल शुरू की है. आइये जानते हैं इन स्कूलों के बारे में ग्लोबल क्लाइमेट रिस्क इंडेक्स 2021 के अनुसार, भारत जलवायु परिवर्तन प्रभाव के मामले में सातवां सबसे कमजोर देश है. विश्व मौसम विज्ञान संगठन ने एशिया रिपोर्ट 2020 में अपने स्टेट ऑफ द क्लाइमेट में जलवायु परिवर्तन से उत्पन्न 9 खराब मौसम की घटनाओं के कारण भारत में औसतन 87 बिलियन डॉलर के सालाना नुकसान का अनुमान लगाया है. आजीविका को प्रभावित करने के अलावा, ये खराब मौसम की घटनाएं जीवन को उजाड़ रही हैं और विस्थापन की ओर ले जा रही हैं. जिनेवा स्थित इंटरनल डिस्प्लेसमेंट मॉनिटरिंग सेन्टर (IDMC) द्वारा आंतरिक विस्थापन पर हाल की वैश्विक रिपोर्ट में पाया गया है कि प्राकृतिक आपदाओं, भारी बाढ़ और चक्रवातों ने 2022 में भारत में 2.5 मिलियन लोगों को आंतरिक रूप से विस्थापित किया है. यूनिसेफ के प्रकाशन ‘द चैलेंजेस ऑफ क्लाइमेट चेंज’ में कहा गया है कि गर्म होती दुनिया बच्चों को ज्यादा प्रभावित कर रही है. बनारस हिंदू विश्वविद्यालय एवं दिल्ली के साइंस एंड टेक्नोलॉजिकल डिपार्टमेंट द्वारा 2017-2020 में वाराणसी के 16 वर्ष से कम उम्र के 461 बच्चों को लेकर एक जांच की गई. इससे पता चला कि तापमान, आर्द्रता, वर्षा, सोलर रेडिएशन, जलवायु पैरामीटर और हवा की गति सभी संक्रामक रोगों के मामलों में 9-18% के लिए जिम्मेदार है. जबकि, श्वास संबंधित ऊपर...

हिमाचल प्रदेश: जलवायु परिवर्तन के असर को कम नहीं किया तो और बढ़ेंगी प्राकृतिक आपदाएं

हिमाचल में बादल फटने, हिमाचल प्रदेश के किन्नौर ज़िले में बुधवार को भी एक बड़ा हादसा हो गया. वहां हुए भूस्खलन की वजह से एक दर्जन से ज्यादा लोगों की मौत हो गई है जबकि अभी भी मलवे में कई वाहन दबे हैं और लाशों का निकलना भी जारी है. आशंका जताई जा रही है कि अभी कई और लोग इस मलबे में दबे हो सकते हैं. बता दें कि यह हादसा बुधवार को भावानगर उपमंडल में एक पहाड़ के दरकने की वजह से हुआ. गौरतलब है कि हिमाचल सरकार के पर्यावरण, विज्ञान एवं तकनीकी विभाग ने 2012 में जलवायु परिवर्तन पर राज्य की रणनीति और एक्शन प्लान तैयार किया था. इस दस्तावेज में पहले ही आगाह किया गया था कि जलवायु परिवर्तन के असर को कम नहीं किया गया तो राज्य में बाढ़, भूस्खलन, ग्लेशियर झीलों का फटना, अधिक वर्षा, अधिक बर्फबारी, बेमौसमी बारिश और अन्य प्राकृतिक आपदाओं में वृद्धि होगी. एक्शन प्लान में स्पष्ट तौर पर हिमाचल में स्वास्थ्य और मूलभूत सुविधाओं को मजबूत करने पर भी बल देने की बात कही गई है. स्टेट स्ट्रैटेजी एडं एक्शन प्लान फार क्लाइमेट चेंज में भविष्य के तापमान को लेकर की गई भविष्यवाणी में कहा गया है कि 2030 तक प्रदेश के न्यूनतम तापमान में 1 से 5 डीग्री सेल्सियस और अधिक तापमान में 0.5 से 2.5 डिग्री सेल्सियस तक का अंतर देखा जाएगा. एक्शन प्लान में बारिश के दिनों में बढ़ोतरी होने का दावा किया गया है 2030 तक हिमाचल में बारिश के दिनों में 5 से 10 अधिक दिन जुडेंगे. वहीं हिमाचल के उतर पश्चिम क्षेत्र में इनकी संख्या 15 तक हो सकती है. अभी हाल में चंबा, कांगड़ा, किन्नौर और लाहौल स्पीति में बादल फटने, भूस्खलन, चट्टानों के टूटने और बाढ़ की ज्यादा घटनाएं देखने को मिली हैं और इन घटनाओं में 30 से अधिक लोगों की जानें जा चुकी हैं. जबकि स्टे...