आर्य

  1. Arya Kon the सनातन वैदिक धर्म में आर्य का अर्थ, कौन थे
  2. नागार्जुन (प्राचीन दार्शनिक)
  3. आर्य, आर्यावर्त, हिन्दू और सनातन का रहस्य जानिए...
  4. आर्यों की उत्पत्ति एवं मूल निवास स्थान
  5. Arya Samaj Ke Sansthapak Kaun The
  6. Arya Kon the सनातन वैदिक धर्म में आर्य का अर्थ, कौन थे
  7. आर्य वंश
  8. आर्यों की उत्पत्ति एवं मूल निवास स्थान
  9. नागार्जुन (प्राचीन दार्शनिक)
  10. आर्य, आर्यावर्त, हिन्दू और सनातन का रहस्य जानिए...


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Arya Kon the सनातन वैदिक धर्म में आर्य का अर्थ, कौन थे

आज हमने इस पोस्ट के माध्यम से आर्य का अर्थ, आर्य कौन होते है, और इनकी उत्पत्ति कैसे हुई है. सनातन धर्म में वेद आर्यों के विषय में क्या कहते है. इनका इतिहास क्या है, इन सब विषयों पर संक्षेप में चर्चा की है। आर्य का अर्थ आर्य विश्व की प्रथम व सबसे प्राचीन समुदाय है. इनका जन्म सत्य सनातन वैदिक धर्म से हुआ है.आर्य का अर्थ होता है: विद्वान, श्रेष्ठ, ज्ञानी, उत्तम व्यक्ति। आर्य शब्द वेद से लिया गया है, भगवान ऋग्वेद मंत्र 9.63.5 के माध्यम से आदेश करते है कि- कृण्वन्तो विश्वमार्यम्।। इस मंत्र का अर्थ है कि – विश्व को आर्य बनाओ अर्थात समस्त विश्व को श्रेष्ठ व विद्वान बनाओ, ताकि सम्पूर्ण जगत में बंधुत्व व शांति स्थापित हो सके। सनातन धर्म की उत्पत्ति वेद से हुई है, चतुर्मुखी ब्रह्मा के द्वारा वेदों की रचना की गई, उसी परमपिता ब्रह्मा के हाथों में चार वेद – ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद व अथर्ववेद विराजमान है। प्राचीन भारत में विद्वान लोगों को आर्य कहा जाता था, इसलिए भारत का प्राचीन नाम आर्यावर्त भी है। जब परमेश्वर ने सृष्टि उत्पत्ति की तब पृथ्वी पर मानव सभ्यता भारतीय तिब्बत क्षेत्र से आरम्भ हुई, इसलिए तिब्बत आर्यों का प्रथम निवास था। भारतवर्ष में महिलाएं पुरुषों को आर्य पुत्र के नाम से बुलाती थी, उदाहरण के लिए भगवान राम, भगवान कृष्ण, अर्जुन, आदि सभी महापुरुषों की पत्नी उन्हें उनके नाम से नहीं अपितु आर्य-पुत्र अथवा आर्य-श्रेष्ठ कहकर बुलाती थी। ऋग्वेद के अनुसार यह भूमि आर्यों को प्रदान की गई है ऋग्वेद 4.26.2 में इस बात के प्रमाण देखने को मिलते है जिसमें ईश्वर ने कहा है कि अहं भूमिमददामार्याय अर्थात मै यह समस्त भूमि आर्यों(विद्वानों) को दान करता हूँ, दस्यु को नहीं। इसका कारण यह है कि धरती का ...

नागार्जुन (प्राचीन दार्शनिक)

अनुक्रम • 1 रचनाएँ • 2 नागार्जुन का शून्यवाद • 3 अन्य नागार्जुन • 4 सन्दर्भ • 5 इन्हें भी देखिये • 6 बाहरी कड़ियाँ रचनाएँ [ ] माध्यमिक कारिका के अतिरिक्त उनकी निःसंदिग्ध रचनाएँ निम्नलिखित हैं - युक्तिषाष्ठिका, शून्यतासप्तति, प्रतीत्यसमुत्पादहृदय, महायानविंशिका, विग्रहव्यावर्तनी, प्रज्ञापारमिताशास्त्र की तथा दशभूमि विभाषाशास्त्र की टीकाएँ। नागार्जुन की रचनाएँ अपनी शैली तथा युक्ति के लिए अत्यंत प्रख्यात हैं। इन रचनाओं में प्रसिद्धि पानेवाले ग्रंथ ये हैं - (1) प्रमाणविघटन अथवा प्रमाणविध्वंसन, जिसमें (2) उपायकौशल्यहृदय शास्त्र, जिसमें प्रतिवादी के ऊपर विजय पाने के लिए जाति, निग्रह-स्थान आदि शास्त्रार्थ के (3) विग्रह व्यावर्तनी, 72 कारिकाओं में निबद्ध यह ग्रंथ मूल संस्कृत तथा तिब्बती अनुवाद दोनों में उपलब्ध है। वण्र्य-विषय है गौतम सम्मत प्रमाण का खंडन तथा तदुपरांत स्वाभिमत (4) युक्तिषष्टिका, जिसके कतिपय श्लोक बौद्ध ग्रंथों में प्रमाण की दृष्टि से उद्घृत किए गए हैं। (5) सुहृल्लेख, इसका ऊपर उल्लेख किया गया है। मूल संस्कृत के अभाव में इसके वण्र्य विषय की जानकारी हमें इसके तिब्बती अनुवाद से ही होती है। नागार्जुन ने इस पत्र के द्वारा अपने सुहृद् यज्ञश्री शातवाहन को परमार्थ तथा व्यवहार की शिक्षा दी है। बौद्ध साहित्य में इस प्रकार की रचनाएँ उपलब्ध हैं जिनके द्वारा बौद्ध आचार्यों ने अपने किसी मान्य शिष्य को अथवा तत्वजिज्ञासु को बौद्ध धर्म के सिद्धांतों का उपदेश दिया। (6) चतुःस्तव, तथागत की प्रशस्त स्तुति में लिखे गए चार स्तोत्रों का संग्रह जिसमें निरुपम स्तव तथा परमार्थ स्तव मूल संस्कृत में उपलब्ध हैं, परंतु अन्य दो (7) नागार्जुन के कीर्तिमंदिर का स्तंभ स्थानीय महनीय दार्शनिक ग्रंथ है ...

आर्य, आर्यावर्त, हिन्दू और सनातन का रहस्य जानिए...

आर्य का अर्थ : आर्य का अर्थ श्रेष्ठ होता है। कौन श्रेष्ठ? वे लोग खुद को श्रेष्ठ मानते थे जो वैदिक धर्म और नीति-नियम अनुसार जीवन यापन करते थे। इसके विपरित जो भी व्यक्ति वेद विरूद्ध जीवन यापन करता था और ब्रह्म को छोड़कर अन्य शक्तियों को मानता था उसे अनार्य मान लिया जाता था। आर्य किसी जाति का नहीं बल्कि एक विशेष विचारधारा को मानने वाले का समूह था जिसमें श्‍वेत, पित, रक्त, श्याम और अश्‍वेत रंग के सभी लोग शामिल थे। आर्य कोई जाति नहीं बल्कि यह उन लोगों का समूह था जो खुद को आर्य कहते थे और जिनसे जुड़े थे भिन्न-भिन्न जाति समूह के लोग। इस प्रकार आर्य धर्म का अर्थ श्रेष्ठ समाज का धर्म ही होता है।... सायणाचार्य ने अपने ऋग्भाष्य में 'आर्य' का अर्थ विज्ञ, यज्ञ का अनुष्ठाता, विज्ञ स्तोता, विद्वान् आदरणीय अथवा सर्वत्र गंतव्य, उत्तमवर्ण, मनु, कर्मयुक्त और कर्मानुष्ठान से श्रेष्ठ आदि किया है। वाल्मीकी रामायण में समदृष्टि रखने वाले और सज्जनता से पूर्ण श्रीरामचन्द्रजी को स्थान-स्थान पर ‘आर्य’ व 'आर्यपुत्र' कहा गया है। विदुरनीति में धार्मिक को, चाणक्यनीति में गुणीजन को, महाभारत में श्रेष्ठबुद्धि वाले को तथा गीता में वीर को ‘आर्य’ कहा गया है। महर्षि दयानन्द सरस्वतीजी ने आर्य शब्द की व्याख्या में कहा है कि 'जो श्रेष्ठ स्वभाव, धर्मात्मा, परोपकारी, सत्य-विद्या आदि गुणयुक्त और आर्यावर्त देश में सब दिन से रहने वाले हैं उनको आर्य कहते हैं।' आर्य कौन : पशु, पक्षी, वृक्ष आदि भिन्न-भिन्न जातियां है उसी तरह मनुष्य भी एक जाति है जिसकी उत्पत्ति का मूल एक ही है। जाति रूप से तो मनुष्यों में कोई भेद नहीं है परंतु गुण, कर्म, स्वभाव व व्यवहार आदि में भिन्नता होती है। कर्म के भेद से मनुष्य जाति में दो भेद किए ज...

आर्यों की उत्पत्ति एवं मूल निवास स्थान

वैदिक सभ्यता समान्य परिचय सिंधु सभ्यता के पतन के बाद भारत में जिस सभ्यता का उदय हुआ उसे आर्य सभ्यता या वैदिक कहते हैं। चूकिं इस काल के निर्माता थे इसलिए इसे आर्य सभ्यता भी कहते हैं। इस सभ्यता की जानकारी हमें वेदों से प्राप्त होती है अतः इसे वैदिक सभ्यता के नाम से पुकारते हैं। आर्यों की उत्पत्ति एवं मूल निवास स्थान आर्य शब्द का अर्थ होता है- ‘‘ पवित्र वंश या जन्म वाला। ‘ ‘ दूसरे शब्दों में आर्य शब्द श्रेष्ठता का घोत्तक है। आर्य शब्द दस जन-समूह या प्रजाति को संबोधित करता है , जिसका शारीरिक गठन एक विशेष प्रकार का होता है। आर्य लोग लंबे कद और अच्छे डील-डाल के होते हैं। सर्वप्रथम ‘ आर्य ‘ शब्द का प्रयोग वेदों के लिखने वालों ने किया। उन्होंने अपने को आर्य (श्रेष्ठ) तथा विरोधियों को दस्यु या दास कहा है। वे अपने को अनार्यों से अधिक श्रेष्ठ या कुलीन समझते थे। आर्यों की उत्पत्ति एवं मूल निवास स्थान के विषय में आज भी विद्धानों में मतभेद बना हुआ है। कुछ विद्धान उन्हें विदेशी मानते हुए भारत के मूल निवासी सिद्ध करने का प्रयास करते हैं। इस संबंध में अनेक तर्क दिये जाते हे। इतिहास , भाषा-विज्ञान , पुरातत्व , शरीर रचना-शास्त्र और शब्दार्थ विकास शास्त्र के आधार पर विद्वान आर्यों के मूल निवास के संबंध में मतों का प्रतिपादन करते हैं। आर्यों का मूल निवास स्थान क्या था इस संबंध में मत • यूरोप- आर्यों का मूल निवास • मध्य एशिया- आर्यों का मूल निवास • आर्कटिक प्रदेश- आर्यों का मूल निवास • भारत- आर्यों का मूल निवास आर्यों का आदि देश यूरोप के समर्थन में मत बहुत से विद्वानों का मत है कि आर्यों का मूल निवास स्थान यूरोप था। सर्वप्रथम इस विचार को व्यक्त करने वाला फ्लोरेंस फिलिप्पी निवासी सेसेटी था। उसने...

Arya Samaj Ke Sansthapak Kaun The

आर्य का अर्थ हैश्रेष्ठ और प्रगतिशील, अत: ऐसा समाज जो श्रेष्ठ और प्रगतिशील हो। आर्य समाज को हिन्दू धर्म में प्रचलित कुरीतियों को समाप्त करने एवं धर्म सुधार के लिए एक आन्दोलन के रूप में शुरू किया गया था। यह आन्दोलन हिन्दू धर्म को पाश्चात्य संस्कृति से हुए दुष्प्रभावों से बाहर निकालने के लिए हुआ था। इस आन्दोलन में जातिगत भेदभाव एवं छुआछुत का विरोध करना तथा स्त्रियों और शुद्र जाति के लोगों को वेद पढने का अधिकार दिलवाया गया। इस लेख में हम जानेंगे कि Arya Samaj Ke Sansthapak Kaun The – आर्य समाज के संस्थापक कौन थे एवं आर्य समाज का हिदू धर्म के उत्थान में क्या सहयोग रहा। Arya Samaj Ke Sansthapak Kaun The आर्य समाज के संस्थापक कौन थे: आर्य समाज को एक आन्दोलन के रूप में शुरू किया गया था। सन 1875 में स्वामी विरजानंद की प्रेरणा से स्वामी दयानंद सरस्वती ने मुंबई में इसकी स्थापना की थी। इससे पहले स्वामी जी ने 7 सितम्बर 1872 कोबिहारके ‘आरा’नामक स्थान पर भी आर्यसमाज की स्थापना की थी। ऐतिहासिक जानकारी के अनुसार आर्य समाज की प्रथम स्थापना इसी दिन हुई थी। आर्य समाज का उद्देश्य समाज को वेदों के अनुरूप चलाना है। मर्यादा पुरुषोत्तम श्री राम एवं योगिराज श्री कृष्ण आर्य समाज के आदर्श है। आर्य समाज के प्रसिद्ध सदस्य स्वामी दयानन्द सरस्वती, स्वामी श्रद्धानन्द, महात्मा हंसराज, लाला लाजपत राय, भाई परमानन्द, राम प्रसाद ‘बिस्मिल’, पंडित गुरुदत्त, स्वामी आनन्दबोध सरस्वती, चौधरी छोटूराम, चौधरी चरण सिंह, पंडित वन्देमातरम रामचन्द्र राव, बाबा रामदेव आदि हैं। आर्य समाज से जुड़े प्रमुख तथ्य – • आर्य समाज का आदर्श वाक्य कृण्वन्तो विश्वमार्यम् है, जिसका अर्थ है – विश्व को आर्य बनाते चलो। • आर्य समाज के अनुसार ई...

Arya Kon the सनातन वैदिक धर्म में आर्य का अर्थ, कौन थे

आज हमने इस पोस्ट के माध्यम से आर्य का अर्थ, आर्य कौन होते है, और इनकी उत्पत्ति कैसे हुई है. सनातन धर्म में वेद आर्यों के विषय में क्या कहते है. इनका इतिहास क्या है, इन सब विषयों पर संक्षेप में चर्चा की है। आर्य का अर्थ आर्य विश्व की प्रथम व सबसे प्राचीन समुदाय है. इनका जन्म सत्य सनातन वैदिक धर्म से हुआ है.आर्य का अर्थ होता है: विद्वान, श्रेष्ठ, ज्ञानी, उत्तम व्यक्ति। आर्य शब्द वेद से लिया गया है, भगवान ऋग्वेद मंत्र 9.63.5 के माध्यम से आदेश करते है कि- कृण्वन्तो विश्वमार्यम्।। इस मंत्र का अर्थ है कि – विश्व को आर्य बनाओ अर्थात समस्त विश्व को श्रेष्ठ व विद्वान बनाओ, ताकि सम्पूर्ण जगत में बंधुत्व व शांति स्थापित हो सके। सनातन धर्म की उत्पत्ति वेद से हुई है, चतुर्मुखी ब्रह्मा के द्वारा वेदों की रचना की गई, उसी परमपिता ब्रह्मा के हाथों में चार वेद – ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद व अथर्ववेद विराजमान है। प्राचीन भारत में विद्वान लोगों को आर्य कहा जाता था, इसलिए भारत का प्राचीन नाम आर्यावर्त भी है। जब परमेश्वर ने सृष्टि उत्पत्ति की तब पृथ्वी पर मानव सभ्यता भारतीय तिब्बत क्षेत्र से आरम्भ हुई, इसलिए तिब्बत आर्यों का प्रथम निवास था। भारतवर्ष में महिलाएं पुरुषों को आर्य पुत्र के नाम से बुलाती थी, उदाहरण के लिए भगवान राम, भगवान कृष्ण, अर्जुन, आदि सभी महापुरुषों की पत्नी उन्हें उनके नाम से नहीं अपितु आर्य-पुत्र अथवा आर्य-श्रेष्ठ कहकर बुलाती थी। ऋग्वेद के अनुसार यह भूमि आर्यों को प्रदान की गई है ऋग्वेद 4.26.2 में इस बात के प्रमाण देखने को मिलते है जिसमें ईश्वर ने कहा है कि अहं भूमिमददामार्याय अर्थात मै यह समस्त भूमि आर्यों(विद्वानों) को दान करता हूँ, दस्यु को नहीं। इसका कारण यह है कि धरती का ...

आर्य वंश

आर्य आर्य जाति एक अप्रचलित ऐतिहासिक नस्लीय अवधारणा है, जो १९वीं शताब्दी के अंत में भारत-यूरोपीय विरासत के लोगों को एक नस्लीय समूह के रूप में वर्णित करने के लिए उभरी। इस सिद्धांत को व्यापक रूप से खारिज कर दिया गया है और इसे अस्वीकृत कर दिया गया है, क्योंकि कोई मानवशास्त्रीय, ऐतिहासिक या पुरातात्विक साक्ष्य मौजूद नहीं है। अनुक्रम • 1 शब्द की व्युत्पत्ति • 2 १९वीं शताब्दी का मानवशास्त्र • 3 इंडो आर्यन प्रवास • 3.1 आनुवंशिक अध्ययन • 4 गुह्यविद्या • 4.1 ब्रह्मविद्या • 4.2 अरिसोफी • 5 नाज़ीवाद और नव नाज़ीवाद • 5.1 नाज़ीवाद • 5.2 नव-नाज़ीवाद • 5.2.1 Tempelhofgesellschaft (टेम्पलहोल्फ़गेसेलशाफ्ट) • 6 इन्हें भी देंखे • 7 सन्दर्भ • 8 अतिरिक्त पठन • 9 बाहरी कड़ियाँ शब्द की व्युत्पत्ति [ ] आर्यन शब्द की उत्पत्ति आर्य शब्द से हुई है, विशुद्ध संस्कृत में इसका अर्थ "सम्माननीय, आदरणीय और उत्तम होता है।" १८वीं शताब्दी में जो लोग पुरानी आर्यन शब्द का प्रयोग न केवल भारतीय और ईरानी लोगों के लिए किया जाता था, बल्कि इसका इस्तेमाल हिन्द-यूरोपीय मूल के लोगों के लिए भी किया जाता था, इनमें अल्बानियाई, कुर्द, आर्मेनियाई, आर्य शब्द संस्कृत से लिया गया है, जिसका मतलब "श्रेष्ट" होता है, और संस्कृत को सभी भाषाओं की जननी मानी जाती है। अतएव यह कहा जा सकता है कि आर्य कोई जाति या नस्ल नहीं, बल्कि एक शब्द है जो "श्रेष्ट" के स्थान पर प्रयोग किया जाता था। १९वीं और २॰वीं शताब्दी में इसका प्रचलन आम था। इसकी मिसाल सन् १९२॰ में प्रकाशित एच.जी. वेल्स की किताब द आउटलाइन ऑफ हिस्टरी ( इतिहास के रूपलेख) में देखा जा सकता है। हिंद- युरोपीय लोगों के लिए आर्यायी शब्द का पर्यायवाची शब्द के रूप में इस्तेमाल किया है। उन्होंने...

आर्यों की उत्पत्ति एवं मूल निवास स्थान

वैदिक सभ्यता समान्य परिचय सिंधु सभ्यता के पतन के बाद भारत में जिस सभ्यता का उदय हुआ उसे आर्य सभ्यता या वैदिक कहते हैं। चूकिं इस काल के निर्माता थे इसलिए इसे आर्य सभ्यता भी कहते हैं। इस सभ्यता की जानकारी हमें वेदों से प्राप्त होती है अतः इसे वैदिक सभ्यता के नाम से पुकारते हैं। आर्यों की उत्पत्ति एवं मूल निवास स्थान आर्य शब्द का अर्थ होता है- ‘‘ पवित्र वंश या जन्म वाला। ‘ ‘ दूसरे शब्दों में आर्य शब्द श्रेष्ठता का घोत्तक है। आर्य शब्द दस जन-समूह या प्रजाति को संबोधित करता है , जिसका शारीरिक गठन एक विशेष प्रकार का होता है। आर्य लोग लंबे कद और अच्छे डील-डाल के होते हैं। सर्वप्रथम ‘ आर्य ‘ शब्द का प्रयोग वेदों के लिखने वालों ने किया। उन्होंने अपने को आर्य (श्रेष्ठ) तथा विरोधियों को दस्यु या दास कहा है। वे अपने को अनार्यों से अधिक श्रेष्ठ या कुलीन समझते थे। आर्यों की उत्पत्ति एवं मूल निवास स्थान के विषय में आज भी विद्धानों में मतभेद बना हुआ है। कुछ विद्धान उन्हें विदेशी मानते हुए भारत के मूल निवासी सिद्ध करने का प्रयास करते हैं। इस संबंध में अनेक तर्क दिये जाते हे। इतिहास , भाषा-विज्ञान , पुरातत्व , शरीर रचना-शास्त्र और शब्दार्थ विकास शास्त्र के आधार पर विद्वान आर्यों के मूल निवास के संबंध में मतों का प्रतिपादन करते हैं। आर्यों का मूल निवास स्थान क्या था इस संबंध में मत • यूरोप- आर्यों का मूल निवास • मध्य एशिया- आर्यों का मूल निवास • आर्कटिक प्रदेश- आर्यों का मूल निवास • भारत- आर्यों का मूल निवास आर्यों का आदि देश यूरोप के समर्थन में मत बहुत से विद्वानों का मत है कि आर्यों का मूल निवास स्थान यूरोप था। सर्वप्रथम इस विचार को व्यक्त करने वाला फ्लोरेंस फिलिप्पी निवासी सेसेटी था। उसने...

नागार्जुन (प्राचीन दार्शनिक)

अनुक्रम • 1 रचनाएँ • 2 नागार्जुन का शून्यवाद • 3 अन्य नागार्जुन • 4 सन्दर्भ • 5 इन्हें भी देखिये • 6 बाहरी कड़ियाँ रचनाएँ [ ] माध्यमिक कारिका के अतिरिक्त उनकी निःसंदिग्ध रचनाएँ निम्नलिखित हैं - युक्तिषाष्ठिका, शून्यतासप्तति, प्रतीत्यसमुत्पादहृदय, महायानविंशिका, विग्रहव्यावर्तनी, प्रज्ञापारमिताशास्त्र की तथा दशभूमि विभाषाशास्त्र की टीकाएँ। नागार्जुन की रचनाएँ अपनी शैली तथा युक्ति के लिए अत्यंत प्रख्यात हैं। इन रचनाओं में प्रसिद्धि पानेवाले ग्रंथ ये हैं - (1) प्रमाणविघटन अथवा प्रमाणविध्वंसन, जिसमें (2) उपायकौशल्यहृदय शास्त्र, जिसमें प्रतिवादी के ऊपर विजय पाने के लिए जाति, निग्रह-स्थान आदि शास्त्रार्थ के (3) विग्रह व्यावर्तनी, 72 कारिकाओं में निबद्ध यह ग्रंथ मूल संस्कृत तथा तिब्बती अनुवाद दोनों में उपलब्ध है। वण्र्य-विषय है गौतम सम्मत प्रमाण का खंडन तथा तदुपरांत स्वाभिमत (4) युक्तिषष्टिका, जिसके कतिपय श्लोक बौद्ध ग्रंथों में प्रमाण की दृष्टि से उद्घृत किए गए हैं। (5) सुहृल्लेख, इसका ऊपर उल्लेख किया गया है। मूल संस्कृत के अभाव में इसके वण्र्य विषय की जानकारी हमें इसके तिब्बती अनुवाद से ही होती है। नागार्जुन ने इस पत्र के द्वारा अपने सुहृद् यज्ञश्री शातवाहन को परमार्थ तथा व्यवहार की शिक्षा दी है। बौद्ध साहित्य में इस प्रकार की रचनाएँ उपलब्ध हैं जिनके द्वारा बौद्ध आचार्यों ने अपने किसी मान्य शिष्य को अथवा तत्वजिज्ञासु को बौद्ध धर्म के सिद्धांतों का उपदेश दिया। (6) चतुःस्तव, तथागत की प्रशस्त स्तुति में लिखे गए चार स्तोत्रों का संग्रह जिसमें निरुपम स्तव तथा परमार्थ स्तव मूल संस्कृत में उपलब्ध हैं, परंतु अन्य दो (7) नागार्जुन के कीर्तिमंदिर का स्तंभ स्थानीय महनीय दार्शनिक ग्रंथ है ...

आर्य, आर्यावर्त, हिन्दू और सनातन का रहस्य जानिए...

आर्य का अर्थ : आर्य का अर्थ श्रेष्ठ होता है। कौन श्रेष्ठ? वे लोग खुद को श्रेष्ठ मानते थे जो वैदिक धर्म और नीति-नियम अनुसार जीवन यापन करते थे। इसके विपरित जो भी व्यक्ति वेद विरूद्ध जीवन यापन करता था और ब्रह्म को छोड़कर अन्य शक्तियों को मानता था उसे अनार्य मान लिया जाता था। आर्य किसी जाति का नहीं बल्कि एक विशेष विचारधारा को मानने वाले का समूह था जिसमें श्‍वेत, पित, रक्त, श्याम और अश्‍वेत रंग के सभी लोग शामिल थे। आर्य कोई जाति नहीं बल्कि यह उन लोगों का समूह था जो खुद को आर्य कहते थे और जिनसे जुड़े थे भिन्न-भिन्न जाति समूह के लोग। इस प्रकार आर्य धर्म का अर्थ श्रेष्ठ समाज का धर्म ही होता है।... सायणाचार्य ने अपने ऋग्भाष्य में 'आर्य' का अर्थ विज्ञ, यज्ञ का अनुष्ठाता, विज्ञ स्तोता, विद्वान् आदरणीय अथवा सर्वत्र गंतव्य, उत्तमवर्ण, मनु, कर्मयुक्त और कर्मानुष्ठान से श्रेष्ठ आदि किया है। वाल्मीकी रामायण में समदृष्टि रखने वाले और सज्जनता से पूर्ण श्रीरामचन्द्रजी को स्थान-स्थान पर ‘आर्य’ व 'आर्यपुत्र' कहा गया है। विदुरनीति में धार्मिक को, चाणक्यनीति में गुणीजन को, महाभारत में श्रेष्ठबुद्धि वाले को तथा गीता में वीर को ‘आर्य’ कहा गया है। महर्षि दयानन्द सरस्वतीजी ने आर्य शब्द की व्याख्या में कहा है कि 'जो श्रेष्ठ स्वभाव, धर्मात्मा, परोपकारी, सत्य-विद्या आदि गुणयुक्त और आर्यावर्त देश में सब दिन से रहने वाले हैं उनको आर्य कहते हैं।' आर्य कौन : पशु, पक्षी, वृक्ष आदि भिन्न-भिन्न जातियां है उसी तरह मनुष्य भी एक जाति है जिसकी उत्पत्ति का मूल एक ही है। जाति रूप से तो मनुष्यों में कोई भेद नहीं है परंतु गुण, कर्म, स्वभाव व व्यवहार आदि में भिन्नता होती है। कर्म के भेद से मनुष्य जाति में दो भेद किए ज...