अहिंसा परमो धर्म किसने कहा था

  1. अहिंसा परमो धर्म:
  2. अहिंसा परमो धर्मा
  3. Ahimsa
  4. अहिंसा परमो धर्मः


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अहिंसा परमो धर्म:

बचपन से हम हर जगह, हर किताब पर एक बात जरूर पढ़ते आ रहे हैं-- "अहिंसा परमो धर्म:" न जाने कितने महान व्यक्तित्व ने हमें इस विषय में बहुत कुछ बताया और सिखाया भी। पर जमाना अब थोड़ा सा बदल गया है या यूँ कहें कि बहुत ही बदल गया है। जिस तरह से हमारे समाज में लोग बढ़ते जा रहे हैं, उसी प्रकार निर्दयता और पाप भी बढ़ता चला जा रहा है। लोग जानबूझकर या बेरोजगारी की खुन्नस में एक दूजे को ही मार-काट और लूट रहे हैं। शायद ये आधुनिकता मानवता को अपना आहार बना रही है। रोजाना सुबह से शाम तक हम कई हिंसात्मक कार्य होते देखते हैं। पर मजाल है कि कोई गलत होते देखकर भी गलत को गलत कहे। हिंसा का जन्म तब होता है जब हम किसी पर इतने निर्भर हो जाते हैं कि हमें लगने लगता है की इसके बिना तो हमारा कोई काम हो ही नहीं सकता। थिएटर में टिकट लेते हुए, सड़क पर चलते हुए एक गरीब का किसी रईसजादे को धक्का लग जाना, भिखारी का मंदिर की दान पेटी से चंद पैसे निकाल लेना, चाहे वो किसी को दिया हुआ उधार हो या जमीन-जायदाद का मुद्दा। हिंसा के ऐसे हजारों कारण हैं। वास्तविकता ये है की हम स्वार्थपरता में इतने अंधे हो जाते हैं की हमारी आँखों में सिर्फ स्वार्थता वाली फिल्म चलती है, जिसके आगे न रिश्ते दिखाई देते है, न कुछ और। हिंसा हमेशा शुरू किसी एक से होकर, किसी ऐसे व्यक्ति पर होती है जिसका कोई दोष नहीं होता। अब के जमाने में बात तब और बढ़ जाती है जब 18 साल का बेटा अपने 50 साल के पिता से प्रश्न करता है कि आपने जीवन में किया क्या है?? उस वक्त शायद पिता हिंसात्मक न हो लेकिन जब वही बेटा 18 से 28 की उम्र में पहुँचता है तब बात बिगड़ जाती है। दरअसल अब के लोग बहुत व्यस्त हो चुके हैं, उन्हें अब किसी और काम की फुर्सत ही नहीं। दिन भर की रोजमर्रा से थक...

अहिंसा परमो धर्मा

अहिंसा से हूँ मैं अहिंसा तेरी-मेरी जान , अहिंसा से ही तू अहिंसा परमो धर्मा है । अहिंसा पर हूँ मै अहिंसा ही सबकुछ , अहिंसा पर ही तू अहिंसा परमो धर्मा है । अहिंसा तन का बल अहिंसा सभी के मन में हो , अहिंसा में न हानि कोई अहिंसा परमो धर्मा है । अहिंसा को ह्रदय से जानो अहिंसा से बढ़ा न धर्म कोई , अहिंसा की पहचान करो अहिंसा परमो धर्मा है । अहिंसा की बोली बोल लो अहिंसा सुख की कुंजी है , अहिंसा का मार्ग है लम्बा अहिंसा परमो धर्मा है । अहिंसा में हिंसा नही अहिंसा बिन हानि की पूंजी है , अहिंसा ने हिंसा को रोका अहिंसा परमो धर्मा है । - गुड्डू सिकंद्राबादी - हमें विश्वास है कि हमारे पाठक स्वरचित रचनाएं ही इस कॉलम के तहत प्रकाशित होने के लिए भेजते हैं। हमारे इस सम्मानित पाठक का भी दावा है कि यह रचना स्वरचित है। आपकी रचनात्मकता को अमर उजाला काव्य देगा नया मुक़ाम, रचना भेजने के लिए

Ahimsa

ND भगवान महावीर की मूल शिक्षा है- 'अहिंसा'। सबसे पहले 'अहिंसा परमो धर्मः' का प्रयोग हिंदुओं का ही नहीं बल्कि समस्त मानव जाति के पावन ग्रंथ 'महाभारत' के अनुशासन पर्व में किया गया था। लेकिन इसको अंतर्राष्ट्रीय प्रसिद्धि दिलवाई भगवान महावीर ने। भगवान महावीर ने अपनी वाणी से और अपने स्वयं के जीवन से इसे वह प्रतिष्ठा दिलाई कि अहिंसा के साथ भगवान महावीर का नाम ऐसे जुड़ गया कि दोनों को अलग कर ही नहीं सकते। अहिंसा का सीधा-साधा अर्थ करें तो वह होगा कि व्यावहारिक जीवन में हम किसी को कष्ट नहीं पहुंचाएं, किसी प्राणी को अपने स्वार्थ के लिए दुख न दें। ' आत्मानः प्रतिकूलानि परेषाम्‌ न समाचरेत्‌' - इस भावना के अनुसार दूसरे व्यक्तियों से ऐसा व्यवहार करें जैसा कि हम उनसे अपने लिए अपेक्षा करते हैं। इतना ही नहीं सभी जीव-जंतुओं के प्रति अर्थात्‌ पूरे प्राणी मात्र के प्रति अहिंसा की भावना रखकर किसी प्राणी की अपने स्वार्थ व जीभ के स्वाद आदि के लिए हत्या न तो करें और न ही करवाएं और हत्या से उत्पन्न वस्तुओं का भी उपभोग नहीं करें। भगवान महावीर का दूसरा व्यावहारिक संदेश है 'क्षमा'। भगवान महावीर ने कहा कि 'खामेमि सव्वे जीवे, सव्वे जीवा खमंतु मे, मित्ती में सव्व भूएसू, वेर मज्झं न केणई।' - अर्थात्‌ 'मैं सभी से क्षमा याचना करता हूं। मुझे सभी क्षमा करें। मेरे लिए सभी प्राणी मित्रवत हैं। मेरा किसी से भी वैर नहीं है। यदि भगवान महावीर की इस शिक्षा को हम व्यावहारिक जीवन में उतारें तो फिर क्रोध एवं अहंकार मिश्रित जो दुर्भावना उत्पन्न होती है और जिसके कारण हम घुट-घुट कर जीते हैं, वह समाप्त हो जाएगी। व्यावहारिक जीवन में यह आवश्यक है कि हम अहंकार को मिटाकर शुद्ध हृदय से आवश्यकतानुसार बार-बार ऐसी क्षमा प्रदान करें...

अहिंसा परमो धर्मः

“अहिंसा परमो धर्मः” प्राचीन संस्कृत साहित्य में उपलब्ध नीति-वचनों में से एक है जिसका उल्लेख अहिंसा के पक्षधर लोग अक्सर करते हैं। इस विषय में महाकाव्य महाभारत के तीन श्लोकों का उल्लेख मैंने अपने अहिंसा परमो धर्मस्तथाहिंसा परो दमः । अहिंसा परमं दानमहिंसा परमं तपः ॥ 28 ॥ ( महाभारत , अनुशासन पर्व , अध्याय 116 , दानधर्मपर्व) ( अहिंसा परमः धर्मः तथा अहिंसा परः दमः अहिंसा परमम दानम् अहिंसा परमम् तपः ।) शब्दार्थ – अहिंसा परम धर्म है, वही परम आत्मसंयम है, वही परम दान है, और वही परम तप है। अहिंसा परमो यज्ञस्तथाहिंसा परं फलम् । अहिंसा परमं मित्रमहिंसा परमं सुखम् ॥ 29 ॥ ( यथा पूर्वोक्त) ( अहिंसा परमः यज्ञः तथा अहिंसा परम् फलम् अहिंसा परमम् मित्रम् अहिंसा परमम् सुखम् ।) शब्दार्थ – अहिंसा परम यज्ञ है, अहिंसा ही परम फल है, वह परम मित्र है, और वही परम सुख है। सर्वयज्ञेषु वा दानं सर्वतीर्थेषु वाऽऽप्लुतम् । सर्वदानफलं वापि नैतत्तुल्यमहिंसया ॥ 30 ॥ ( यथा पूर्वोक्त) ( सर्व-यज्ञेषु वा दानम् सर्व-तीर्थेषु वा आप्लुतम् सर्व-दान-फलम् वा अपि न एतत् अहिंसया तुल्यम् ।) शब्दार्थ – सभी यज्ञों में भरपूर दान-दक्षिणा देना, या सभी तीर्थों में पुण्यार्थ स्नान करना, या सर्वस्व दान का फल बटोरना, यह सब अहिंसा के तुल्य (समान फलदाई) नहीं हैं। ऊपरी तौर पर देखें तो इन श्लोकों में कोई प्रभावी बात नहीं दृष्टिगत होती है। अहिंसा परम धर्म, परम आत्मसंयम, परम दान एवं परम तप है (उपर्युक्त प्रथम श्लोक) कहने का तात्पर्य यही लिया जा सकता है कि धर्म के अंतर्गत आने वाले सभी सत्कर्मों में अहिंसा प्रथम यानी सर्वोपरि है। अहिंसा का व्रत सरल नहीं हो सकता। अहिंसा में संलग्न व्यक्ति धर्म-कर्म की अन्य बातों पर भी टिका ही रहेगा। शायद य...