Brahm samaj ki sthapna

  1. आर्य समाज की स्थापना, सिद्धांत, कार्य, योगदान
  2. ब्रह्म समाज की स्थापना
  3. Sadharan Brahmo Samaj
  4. भारतीय ब्रह्म समाज की स्थापना किसने की थी और कब की थी? » Bhartiya Brahm Samaj Ki Sthapna Kisne Ki Thi Aur Kab Ki Thi
  5. Brahm Samaj in Hindi


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आर्य समाज की स्थापना, सिद्धांत, कार्य, योगदान

आर्य समाज की स्थापना (arya samaj ki sthapna) arya samaj ki sthapna, siddhant, karya;कर्नल अल्काट स्वामी दयानंद सरस्वती से अत्यधिक प्रभावित थे। उन्होंने स्वामी दयानंद को अत्यत प्रभावी और दुर्धर्ष योद्धा बताया था। स्वामी जी ने वेदों मे निहित ज्ञान, दर्शन और विवेक के प्रचार और प्रसार के लिये और सामाजिक सुधारों के लिये बम्बई मे 1875 मे आर्य समाज की स्थापना की थी तथा अनेक शिक्षण संस्थाओं को आरंभ किया। आर्य समाज के सिद्धांत या नियम स्वामी दयानंद सरस्वती जी ने सन् 1875 मे बम्बई मे आर्य समाज की स्थापना की थी। आर्य समाज के मुख्य सिद्धांत या नियम इस प्रकार से है-- 1. ईश्वर निराकार, अजन्मा और अमर है, वह सत्त, चित्त और आनंद है। वह सृष्टा, पालक और रक्षक है। सबको उसकी उपासना करनी चाहिए। 2. वेद सत्य ज्ञान के स्त्रोत है, प्रत्येक कार्य के लिए इनका अध्ययन, मनन-चिन्तन और प्रचार आवश्यक है। 3. बहु-देववाद और मूर्तिपूजा का खंडन तथा अवतारवाद और तीर्थ-यात्रा का विरोध। 4. वेदों के आधार पर यज्ञ, हवन, मंत्र-पाठ आदि करना। 6. अविद्या का नाश, विद्या व ज्ञान का प्रचार तथा शिक्षा का, विशेषकर स्त्री शिक्षा का प्रसार करना चाहिए। 7. बाल-विवाह तथा बहु-विवाह का विरोध तथा विशिष्ट परिस्थितियों मे विधवा विवाह का समर्थन करना। 8. हिन्दी तथा संस्कृत का प्रचार करना। 9. सत्य को ग्रहण करने और असत्य का त्याग करने के लिए सदा तैयार रहना चाहिए। 10. समस्त कार्य पर सत्य व असत्य का विचार करना चाहिए। 11. समाज का मुख्य उद्देश्य शारीरिक, सामाजिक, आत्मिक उन्नति और संसार का उपकार करना है। 12. पारस्परिक संबंध का आधार प्रेम, न्याय और धर्म होना चाहिए, और सबकी भलाई मे अपनी भलाई समझना चाहिए। 14. सबको व्यक्तिगत मामलों मे सामाजिक हित मे...

ब्रह्म समाज की स्थापना

ब्रह्म समाज की स्थापना 20 अगस्त 1828 ई. में कलकत्ता में हुई थी। राजा राम मोहन राय इसके “संस्थापक या प्रवर्तक” थे। प्रारम्भ में इसे “ब्रह्म सभा” कहा गया, बाद में यह ब्रह्म समाज के नाम से प्रसिद्ध हुआ। इसे “अद्वैतवादी हिन्दुओं की संस्था” भी कहा जाता है। इस संस्था का उद्देश्य हिन्दू धर्म को “रूढ़ियों और अंधविश्वासों” से मुक्त करके नवीन रूप प्रदान करना था। इसमें मूर्तिपूजा, अवतारवाद, बहुदेववाद, पुरोहितवाद आदि का खण्डन किया गया तथा एकेश्वरवाद पर बल दिया। आत्मा की अमरता में विश्वास व्यक्त किया। ब्रह्म समाज का विस्तार राजा राममोहन राय के बाद महर्षि द्वारिका नाथ एवं रामचन्द्र विद्यावगीश ने ब्रह्म समाज का नेतृत्व किया। इसके बाद 21 दिसम्बर 1843 ई. में इसकी बागडोर देवेन्द्र नाथ टैगोर के हाथों में आ गयी। उन्होंने इस संस्था में नया जीवन फूंकने और इसे एक ईश्वरवादी आंदोलन के रूप में आगे बढ़ाने का कार्य किया। देवेन्द्र नाथ टैगोर ने ब्रह्म धर्म अवलम्बियों को मूर्ति पूजा, कर्मकाण्ड, तीर्थयात्रा एवं प्रायश्चित आदि करने से रोका। उनके विचार में लकड़ी और पत्थर की मूर्तियों को ईश्वर कैसे माना जा सकता है। उन्होंने कहा कि ईश्वर को जैसे चाहो वैसे पूजो।उन्होंने पूजा के लिए ब्रह्म स्वरूप की उपासना अर्थात “ब्रह्मोपासना” पर जोर दिया। देवेन्द्र नाथ टैगोर ने ईसाई धर्म प्रचारक अलेक्जेण्डर डफ के भारतीय संस्कृति विरोधी विचारों का मुंहतोड़ जवाब दिया। ब्रह्म समाज से जुड़ने से पूर्व देवेन्द्र नाथ टैगोर ने कलकत्ता के “जोरासाकी” में “तत्वरंजिनी सभा” की स्थापना की थी। जो 1839 में रूपान्तरित होकर “तत्वबोधिनी सभा” के रूप सामने आयी। उन्होंने तत्वबोधिनी नामक पत्रिका तथा “ब्रह्म धर्म” नामक धार्मिक पुस्तिका का प्रकाशन भी कि...

Sadharan Brahmo Samaj

Main organ Governing Body & Council Body Affiliations Website .org Theology Pradhanacharya-1 Pradhanacharya-2 Pradhanacharya-3 Associations Founder Origin 28August 1828 (194 years ago) ( 1828-08-28) Official website .brahmosamaj .in The Sadharan Brahmo Samaj ( সাধারণ ব্রাহ্ম সমাজ, Shadharôn Brahmô Shômaj) is a division of It was formed in a public meeting of Brahmos held in the Town Hall of Calcutta on 15 May 1878 (2nd Jaishta 1284 of the Bengali calendar), which included References [ ] • • The movement was originally known as the Brahma Sabha (or Assembly of Brahman). • A new premises at Chitpore (Jorasankoe) arranged by Dwarkanath Tagore. • The appellation Brahmo Samaj (or Community of Brahman) was introduced in 1843 by Maharshi Devendra.Nath.Thakur for the Calcutta Brahmo Samaj. The First Brahmo Schism of 1866 engendered the 2 modern branches of Brahmoism viz. "Adi Brahmo Samaj" and "Sadharan Brahmo Samaj" (previously the general body of erstwhile Brahmo Samaj of India). External links [ ] • • •

भारतीय ब्रह्म समाज की स्थापना किसने की थी और कब की थी? » Bhartiya Brahm Samaj Ki Sthapna Kisne Ki Thi Aur Kab Ki Thi

चेतावनी: इस टेक्स्ट में गलतियाँ हो सकती हैं। सॉफ्टवेर के द्वारा ऑडियो को टेक्स्ट में बदला गया है। ऑडियो सुन्ना चाहिये। नमस्कार अगर उसने भारतीय ब्रह्म समाज की स्थापना किसने की थी और कब की थी इसका जवाब है भारतीय ब्रह्म समाज की स्थापना हो राजा राममोहन राय के द्वारा की गई थी और इसकी साथ में है वह 28 अगस्त 1828 को की गई थी कोलकाता नी namaskar agar usne bharatiya Brahma samaj ki sthapna kisne ki thi aur kab ki thi iska jawab hai bharatiya Brahma samaj ki sthapna ho raja rammohan rai ke dwara ki gayi thi aur iski saath me hai vaah 28 august 1828 ko ki gayi thi kolkata ni नमस्कार अगर उसने भारतीय ब्रह्म समाज की स्थापना किसने की थी और कब की थी इसका जवाब है भारतीय

Brahm Samaj in Hindi

Brahmo Samaj in Hindi ( Brahm Samaj in hindi )– ब्रह्म समाज हिन्दू धर्म में पहला सुधार आन्दोलन था जिस पर आधुनिक पाश्चात्य विचारधारा का बहुत प्रभाव पड़ा था. राजा राम मोहन राय ( Raja Ram Mohan Roy ) इसके प्रवर्तक थे. ब्रह्म समाज की स्थापना सन् 1828 में हुई. राजा राम मोहन राय बहुमुखी प्रतिभा के धनी व्यक्ति थे. जिस समय पाश्चात्य शिक्षा से प्रभावित हो तरूण बंगाली ईसाई धर्म की ओर आकर्षित हो रहे थे उस समय राजा राम मोहन राय हिन्दू धर्म के रक्षक के रूप में सामने आये. एक ओर उन्होंने पादरी प्रचारकों के विरूद्ध हिन्दू धर्म की रक्षा की और दूसरी तरफ हिन्दू धर्म में आए झूठ और अंधविश्वासों को दूर करने का प्रयत्न किया. Brahmo Samaj Detail Information in Hindi | ब्रह्म समाज की पूरी जानकारी | Brahm Samaj इस समाज का उद्देश्य शाश्वत, सर्वाधार, अपरिवतर्य ईश्वर की पूजा हैं जो सारे विश्व के कर्ता और रक्षक हैं. एक नया भवन न्यास-मंडल ( Board of Trustees ) को दे दिया जिसमें मूर्ति पूजा और बलि देने की अनुमति नहीं थी. उनके उपदेशों का तात्पर्य भी सभी धर्मों में आपसी एकता के बंधन को दृढ़ करना था. राजा साहिब स्वयं हिन्दू ही रहे और यज्ञोपवीत पहनते रहे परन्तु 1833 में उनकी इंग्लैंड में अकाल मृत्यु के कारण समाज का मार्ग दर्शन नहीं रहा और धीरे-धीरे उनमें शिथिलता आ गई. इस संस्था में नया जीवन फूंकने और इसे एक ईश्वरवादी आन्दोलन के रूप में आगे बढ़ाने का श्रेय महर्षि देवेन्द्र नाथ टैगोर (1808-1905) को था. वह इस आन्दोलन में 1842 में सम्मिलित हुए और उन्होंने ब्रह्म धर्म अवलम्बियों को मूर्ति पूजा, तीर्थ यात्रा, कर्मकाण्ड और प्रयाश्चित इत्यादि से रोका. उनके विचार में लकड़ी और पाषाण की मूर्तियों को ईश्वर कैसे माना जाए. ईश...

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