एको अहम् द्वितीयो नास्ति

  1. Atal Bihari Vajpayee and Political Alliances by Jairam Shukla
  2. एको अहम्, द्वितीयो नास्ति
  3. एको अहं, द्वितीयो नास्ति, न भूतो न भविष्यति,श्री ओम प्रकाश द्विवेदी – अटल चुनौती
  4. Nashtar Hindustan Column on 19 april
  5. ✩✩𝙹𝚊𝚝𝚒𝚗 𝚂𝚑𝚞𝚔𝚕𝚊✩✩ (𝙹𝚊𝚝𝚒𝚗) Quotes
  6. एको अहं, द्वितीयो नास्ति, न भूतो न भविष्यति,श्री ओम प्रकाश द्विवेदी – अटल चुनौती
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Atal Bihari Vajpayee and Political Alliances by Jairam Shukla

अटलजी के संसद में दिए गए वक्तव्यों पर केंद्रित पुस्तक 'गठबंधन धर्म' की भूमिका में अटलजी लिखते हैं, "मैं इस विचार से सहमत नहीं हूं कि छोटे दल लोकतंत्र की प्रगति में बाधा हैं. छोटे दलों की अपेक्षाओं को राष्ट्रीय स्तर पर पर्याप्त महत्व दिया जाना चाहिए. भारत एक बहुभाषी, बहुधर्मी और बहुजातीय समाज है. छोटे-छोटे जातीय या क्षेत्रीय समूह अपनी पहचान बनाए रखने के इच्छुक रहते हैं. यह देश समृद्ध विविधताओं से भरपूर है. ये विविधताएं अक्सर राजनीतिक क्षेत्र में अभिव्यक्त होती हैं, हमारे समाज की इस जटिल रचना को मानने और स्वीकार करने की जरूरत है, ताकि गठबंधन सरकारें सफलतापूर्वक चलाई जा सकें... सभी विभिन्न पहचान वालों को यह अहसास रहना चाहिए कि एकात्म समाज की जरूरत को आगे बढ़ाने के लिए सहयोग करना उनके ही हित में है.' इतिहास पर दृष्टि डालें तो यह तथ्य उभरकर स्वमेव प्रकट हो जाएगा कि गठबंधन की राजनीति के उद्भव और विकास के पीछे कांग्रेस की बड़ी भूमिका है. आजादी के बाद जिस कांग्रेस को भारतीय जनता ने अपना भाग्यविधाता मानते हुए चुनावों में जनादेश सौंपा था, वही कांग्रेस साठ के दशक आते-आते स्वेच्छाचरिता के राह पर चल पड़ी. पंडित नेहरू का एक ही अघोषित ध्येय था, "एको अहम् द्वितीयो नास्ति". शुरुआती दौर में ही कांग्रेस का नेतृत्व इतना असहिष्णु था कि केरल की नम्बूदरीपाद के नेतृत्व वाली कम्युनिस्ट सरकार को बर्खास्त कर दिया. इधर मध्यभारत में विंध्यप्रदेश अपने धारदार समाजवादी आंदोलनों के लिए सुर्खियों में आने लगा. सोशलिस्ट यहां मुख्य विपक्ष था. सीधी जैसे अति पिछड़े क्षेत्र से लोकसभा में कांग्रेस अपना पहला चुनाव हार गई. विधानसभा सीटों में तीन चौथाई में समाजवादियों को जनादेश मिला. विंध्यप्रदेश का यह घटनाक्रम नेहरूजी ...

एको अहम्, द्वितीयो नास्ति

दशक भर पहले मैं और प्रतिष्ठित वैज्ञानिक सी.वी. शेषाद्रि संगठन निर्माण के तौर-तरीकों पर चर्चा कर रहे थे. उन्होंने कुछ हल्के-फुल्के अंदाज में कहा कि उनका मन करता है कि अपने हाथों खड़े किए संगठन चेन्नै स्थित मुरुगप्पा चेट्टियार रिसर्च सेंटर को खत्म करके उसे दोबारा बनाया जाए. अपनी बात को विस्तार देने के लिए उन्होंने कहा, ‘‘सभी संस्थापकों और पुराने लोगों का हर निशान मिटा दिया जाए, बीच के औसत उत्तराधिकारियों के साथ उनके तमाम रिश्तों को खत्म कर दिया जाए.’’ शेषाद्रि की यह बात एक विडंबना का ही इजहार थी लेकिन वे इसके जरिए भारत के बारे में एक अहम समाजशास्त्रीय असलियत की ओर भी इशारा रहे थे कि यहां के लोग व्यक्ति-केंद्रित संगठन बनाने के आदी हैं. यह विरोधाभास ही है कि कोई भी संगठन अपने संकुचित रूप में एक व्यक्ति का रूप ले लेता है. जब संस्थापक मर जाते हैं, तो हम उन्हें शाश्वत बनाए रखने की कोशिश में उत्तराधिकार, संस्थानीकरण और सांगठनिक तानेबाने के विचारों का गला घोंट देते हैं. शेषाद्रि उस वक्त विज्ञान से जुड़े संगठनों की बात कर रहे थे, लेकिन उनका कहा राजनैतिक दलों पर कहीं ज्यादा सटीक बैठता है. व्यक्ति-केंद्रित या जिसे एकल नेतृत्व वाला दल कहा जाता है, एक अजीब परिघटना है. इसमें सामूहिकता एक व्यक्ति में अभिव्यक्त होती है और व्यक्ति का आचरण और कामकाज सामूहिकता का प्रतिबिंब होता है. इस तरह वह व्यक्ति बतौर नेता खुद-ब-खुद एक जीता-जागता संगठन बन जाता है. एक मायने में वह अवतार हो जाता है. संगठन के पास सिर्फ एक ही आख्यान अपने नेता की जीवनी होती है. समाजशास्त्रीय संदर्भ में कहें तो करिश्मा और पदानुक्रम वाला संगठन (जैसे, नौकरशाही) विरोधाभासी हैं. समाजविज्ञानी मैक्स वेबर के मुताबिक करिश्मा अतार्किक, अस्...

एको अहं, द्वितीयो नास्ति, न भूतो न भविष्यति,श्री ओम प्रकाश द्विवेदी – अटल चुनौती

अनूपपुर: यह बात कहने में बहुत बड़ी लगती है, पर यह पूरी तरह सत्य साबित है,अनूपपुर जिले के जनता के सेवक,नेता अनूपपुर नगरपालिका के पूर्व अध्यक्ष स्व श्री ओम प्रकाश द्विवेदी के ऊपर,उन्होंने अपने जीवन मे ऐसे कई कार्यों को अंजाम दिया है जिसकी कल्पना मात्र कठिन लगती थी।द्विवेदी जी मतलब किसी कार्य मे लगन से व्यस्त हो जाना।जब कोई भी अन्य नेता जिस कार्य को मना कर देता था या टरका देता था या उसे कठिन लगता था तब उस कार्य मे जूझ जाते थे और उसमें सफल होकर ही दम लेते थे,ऐसा व्यक्तित्व न अनूपपुर की धरती में पहले हुआ और न ही भविष्य में ऐसा होता हुआ दिख रहा है।इसलिए द्विवेदी”एको अहं, द्वितीयो नास्ति, न भूतो न भविष्यति”!

Nashtar Hindustan Column on 19 april

पता नहीं यह चुनावी वातावरण का असर है या घटनाओं का परिणाम कि इकबाल साहब के आकलन पर प्रश्नचिह्नों के जाले लटक रहे हैं। जिज्ञासा फड़फड़ा रही है कि हमारा हिन्दुस्तान कभी ‘सारे जहां से अच्छा’ था भी, या यूं ही लंतरानी बोल गए शायर साब। किसी कंठ से बुलबुल जैसी कोमल ध्वनि नहीं सुनाई पड़ती। चतुर्दिक कांव-कांव। हर शख्स किसी न किसी को गरिया रहा है। 48 से 72 घंटे ‘बावरी जुबान’ को ‘खामोश’ करने से हल नहीं होना। गमन फिल्म में बम्बई महानगर की टीस को जनाब मुजफ्फर अली ने दर्शाया था। अब तो छोटे से कस्बे में हर शख्स परेशान है। जलन सीने में नहीं, दिमाग में धंसी कि अगले को कैसे पटखनी दी जाए? किसी को पहचानना किसी के वश में नहीं। दस-बीस आदमी तो निदा फाजली साहब का विनम्र आकलन था, एक चेहरे में कई चेहरे छिपा लेते हैं लोग। अपने बड़प्पन और एको अहम् द्वितीयो नास्ति का भूत हर आदमी के सिर पर सवार। वह आधा मित्र है, आधा शत्रु। एक ही चीज एक सिरे से सही, तो दूसरे छोर पर गलत। मन मयूर भी अब सामयिक नहीं रहे। ऐन पूर्णिमा के दिन ‘अमावसी’ हो जाते हैं। पंचांग देखकर भी व्यवस्थित रूप से खुशी नहीं मनाई जाती। तीज-त्योहार मनाना सामाजिक विवशता। कभी ललित पर्वों पर झूमने वाला मन अब दलित समस्या के मायावी जाल में उलझा हुआ है। रक्षित-आरक्षित, ललित-दलित सभी अपने आप में राष्ट्रीयकृत (वोट) बैंक। जिसे देखिए छल कबड्डी आल-ताल, मेरी मूंछे लाल-लाल कर रहा है। आग और असलाह से भले अजर-अमर आत्मा महफूज रहे, अमानवीय ‘बक-तव्यों’ के नश्तर से दिन में न जाने कितनी बार आहत होती रहती है। बी आर चोपड़ा साहब ने पिछली सदी में एक फिल्म बनाई थी कानून। उसका एक डॉयलाग था, खून करो और बचके दिखाओ। यह एक जज साहब का कथन था। सिर्फ साहित्यकार ही भविष्य नहीं देखते, जि...

✩✩𝙹𝚊𝚝𝚒𝚗 𝚂𝚑𝚞𝚔𝚕𝚊✩✩ (𝙹𝚊𝚝𝚒𝚗) Quotes

जिसने अपना सारा जीवन मेरे ऊपर वार दिया जीवन के बुरे दिनों में हरपल जिसने साथ दिया जिसके होने से ही मेरे सारे दिन अच्छे है कैसे मां की ममता को हमने एक ही दिन में बांध दिया दो पल मां से बात न करते वो स्टेटस लगा रहे है मां मेरी है सबसे अच्छी ये दुनिया को बता रहे है हे मानव। अहसान किया ,जो एकदिन मां के नाम किया इसी बहाने लोग यहां पर अपना प्यार दिखा रहे है जतिन सुनो तुम खूब समझ लो ये सब ईश्वर की माया है। मेरी हर रग रग से है वाकिफ मां जिसने मुझको जाया है। तुमने दी हर रोज है खुशियां मैं भी तुमको खुशियां दूंगा झूठा वादा नहीं कर रहा मां में तुमको खुश रखूंगा। -

एको अहं, द्वितीयो नास्ति, न भूतो न भविष्यति,श्री ओम प्रकाश द्विवेदी – अटल चुनौती

अनूपपुर: यह बात कहने में बहुत बड़ी लगती है, पर यह पूरी तरह सत्य साबित है,अनूपपुर जिले के जनता के सेवक,नेता अनूपपुर नगरपालिका के पूर्व अध्यक्ष स्व श्री ओम प्रकाश द्विवेदी के ऊपर,उन्होंने अपने जीवन मे ऐसे कई कार्यों को अंजाम दिया है जिसकी कल्पना मात्र कठिन लगती थी।द्विवेदी जी मतलब किसी कार्य मे लगन से व्यस्त हो जाना।जब कोई भी अन्य नेता जिस कार्य को मना कर देता था या टरका देता था या उसे कठिन लगता था तब उस कार्य मे जूझ जाते थे और उसमें सफल होकर ही दम लेते थे,ऐसा व्यक्तित्व न अनूपपुर की धरती में पहले हुआ और न ही भविष्य में ऐसा होता हुआ दिख रहा है।इसलिए द्विवेदी”एको अहं, द्वितीयो नास्ति, न भूतो न भविष्यति”!

एको अहम्, द्वितीयो नास्ति

दशक भर पहले मैं और प्रतिष्ठित वैज्ञानिक सी.वी. शेषाद्रि संगठन निर्माण के तौर-तरीकों पर चर्चा कर रहे थे. उन्होंने कुछ हल्के-फुल्के अंदाज में कहा कि उनका मन करता है कि अपने हाथों खड़े किए संगठन चेन्नै स्थित मुरुगप्पा चेट्टियार रिसर्च सेंटर को खत्म करके उसे दोबारा बनाया जाए. अपनी बात को विस्तार देने के लिए उन्होंने कहा, ‘‘सभी संस्थापकों और पुराने लोगों का हर निशान मिटा दिया जाए, बीच के औसत उत्तराधिकारियों के साथ उनके तमाम रिश्तों को खत्म कर दिया जाए.’’ शेषाद्रि की यह बात एक विडंबना का ही इजहार थी लेकिन वे इसके जरिए भारत के बारे में एक अहम समाजशास्त्रीय असलियत की ओर भी इशारा रहे थे कि यहां के लोग व्यक्ति-केंद्रित संगठन बनाने के आदी हैं. यह विरोधाभास ही है कि कोई भी संगठन अपने संकुचित रूप में एक व्यक्ति का रूप ले लेता है. जब संस्थापक मर जाते हैं, तो हम उन्हें शाश्वत बनाए रखने की कोशिश में उत्तराधिकार, संस्थानीकरण और सांगठनिक तानेबाने के विचारों का गला घोंट देते हैं. शेषाद्रि उस वक्त विज्ञान से जुड़े संगठनों की बात कर रहे थे, लेकिन उनका कहा राजनैतिक दलों पर कहीं ज्यादा सटीक बैठता है. व्यक्ति-केंद्रित या जिसे एकल नेतृत्व वाला दल कहा जाता है, एक अजीब परिघटना है. इसमें सामूहिकता एक व्यक्ति में अभिव्यक्त होती है और व्यक्ति का आचरण और कामकाज सामूहिकता का प्रतिबिंब होता है. इस तरह वह व्यक्ति बतौर नेता खुद-ब-खुद एक जीता-जागता संगठन बन जाता है. एक मायने में वह अवतार हो जाता है. संगठन के पास सिर्फ एक ही आख्यान अपने नेता की जीवनी होती है. समाजशास्त्रीय संदर्भ में कहें तो करिश्मा और पदानुक्रम वाला संगठन (जैसे, नौकरशाही) विरोधाभासी हैं. समाजविज्ञानी मैक्स वेबर के मुताबिक करिश्मा अतार्किक, अस्...

Atal Bihari Vajpayee and Political Alliances by Jairam Shukla

अटलजी के संसद में दिए गए वक्तव्यों पर केंद्रित पुस्तक 'गठबंधन धर्म' की भूमिका में अटलजी लिखते हैं, "मैं इस विचार से सहमत नहीं हूं कि छोटे दल लोकतंत्र की प्रगति में बाधा हैं. छोटे दलों की अपेक्षाओं को राष्ट्रीय स्तर पर पर्याप्त महत्व दिया जाना चाहिए. भारत एक बहुभाषी, बहुधर्मी और बहुजातीय समाज है. छोटे-छोटे जातीय या क्षेत्रीय समूह अपनी पहचान बनाए रखने के इच्छुक रहते हैं. यह देश समृद्ध विविधताओं से भरपूर है. ये विविधताएं अक्सर राजनीतिक क्षेत्र में अभिव्यक्त होती हैं, हमारे समाज की इस जटिल रचना को मानने और स्वीकार करने की जरूरत है, ताकि गठबंधन सरकारें सफलतापूर्वक चलाई जा सकें... सभी विभिन्न पहचान वालों को यह अहसास रहना चाहिए कि एकात्म समाज की जरूरत को आगे बढ़ाने के लिए सहयोग करना उनके ही हित में है.' इतिहास पर दृष्टि डालें तो यह तथ्य उभरकर स्वमेव प्रकट हो जाएगा कि गठबंधन की राजनीति के उद्भव और विकास के पीछे कांग्रेस की बड़ी भूमिका है. आजादी के बाद जिस कांग्रेस को भारतीय जनता ने अपना भाग्यविधाता मानते हुए चुनावों में जनादेश सौंपा था, वही कांग्रेस साठ के दशक आते-आते स्वेच्छाचरिता के राह पर चल पड़ी. पंडित नेहरू का एक ही अघोषित ध्येय था, "एको अहम् द्वितीयो नास्ति". शुरुआती दौर में ही कांग्रेस का नेतृत्व इतना असहिष्णु था कि केरल की नम्बूदरीपाद के नेतृत्व वाली कम्युनिस्ट सरकार को बर्खास्त कर दिया. इधर मध्यभारत में विंध्यप्रदेश अपने धारदार समाजवादी आंदोलनों के लिए सुर्खियों में आने लगा. सोशलिस्ट यहां मुख्य विपक्ष था. सीधी जैसे अति पिछड़े क्षेत्र से लोकसभा में कांग्रेस अपना पहला चुनाव हार गई. विधानसभा सीटों में तीन चौथाई में समाजवादियों को जनादेश मिला. विंध्यप्रदेश का यह घटनाक्रम नेहरूजी ...

✩✩𝙹𝚊𝚝𝚒𝚗 𝚂𝚑𝚞𝚔𝚕𝚊✩✩ (𝙹𝚊𝚝𝚒𝚗) Quotes

जिसने अपना सारा जीवन मेरे ऊपर वार दिया जीवन के बुरे दिनों में हरपल जिसने साथ दिया जिसके होने से ही मेरे सारे दिन अच्छे है कैसे मां की ममता को हमने एक ही दिन में बांध दिया दो पल मां से बात न करते वो स्टेटस लगा रहे है मां मेरी है सबसे अच्छी ये दुनिया को बता रहे है हे मानव। अहसान किया ,जो एकदिन मां के नाम किया इसी बहाने लोग यहां पर अपना प्यार दिखा रहे है जतिन सुनो तुम खूब समझ लो ये सब ईश्वर की माया है। मेरी हर रग रग से है वाकिफ मां जिसने मुझको जाया है। तुमने दी हर रोज है खुशियां मैं भी तुमको खुशियां दूंगा झूठा वादा नहीं कर रहा मां में तुमको खुश रखूंगा। -

Nashtar Hindustan Column on 19 april

पता नहीं यह चुनावी वातावरण का असर है या घटनाओं का परिणाम कि इकबाल साहब के आकलन पर प्रश्नचिह्नों के जाले लटक रहे हैं। जिज्ञासा फड़फड़ा रही है कि हमारा हिन्दुस्तान कभी ‘सारे जहां से अच्छा’ था भी, या यूं ही लंतरानी बोल गए शायर साब। किसी कंठ से बुलबुल जैसी कोमल ध्वनि नहीं सुनाई पड़ती। चतुर्दिक कांव-कांव। हर शख्स किसी न किसी को गरिया रहा है। 48 से 72 घंटे ‘बावरी जुबान’ को ‘खामोश’ करने से हल नहीं होना। गमन फिल्म में बम्बई महानगर की टीस को जनाब मुजफ्फर अली ने दर्शाया था। अब तो छोटे से कस्बे में हर शख्स परेशान है। जलन सीने में नहीं, दिमाग में धंसी कि अगले को कैसे पटखनी दी जाए? किसी को पहचानना किसी के वश में नहीं। दस-बीस आदमी तो निदा फाजली साहब का विनम्र आकलन था, एक चेहरे में कई चेहरे छिपा लेते हैं लोग। अपने बड़प्पन और एको अहम् द्वितीयो नास्ति का भूत हर आदमी के सिर पर सवार। वह आधा मित्र है, आधा शत्रु। एक ही चीज एक सिरे से सही, तो दूसरे छोर पर गलत। मन मयूर भी अब सामयिक नहीं रहे। ऐन पूर्णिमा के दिन ‘अमावसी’ हो जाते हैं। पंचांग देखकर भी व्यवस्थित रूप से खुशी नहीं मनाई जाती। तीज-त्योहार मनाना सामाजिक विवशता। कभी ललित पर्वों पर झूमने वाला मन अब दलित समस्या के मायावी जाल में उलझा हुआ है। रक्षित-आरक्षित, ललित-दलित सभी अपने आप में राष्ट्रीयकृत (वोट) बैंक। जिसे देखिए छल कबड्डी आल-ताल, मेरी मूंछे लाल-लाल कर रहा है। आग और असलाह से भले अजर-अमर आत्मा महफूज रहे, अमानवीय ‘बक-तव्यों’ के नश्तर से दिन में न जाने कितनी बार आहत होती रहती है। बी आर चोपड़ा साहब ने पिछली सदी में एक फिल्म बनाई थी कानून। उसका एक डॉयलाग था, खून करो और बचके दिखाओ। यह एक जज साहब का कथन था। सिर्फ साहित्यकार ही भविष्य नहीं देखते, जि...