हम संविधान में सामुदायिक विकास सुविधा कहां पा सकते हैं?

  1. भारत के आधारभूत मूल्यों की व्याख्या है संविधान की प्रस्तावना
  2. Bhartiya Samvidhan Ki Visheshtayen
  3. संविधान की विकास गाथा: वर्तमान भारत में क्रान्ति की संभावना
  4. संविधान की विकास गाथा: वर्तमान भारत में क्रान्ति की संभावना
  5. Bhartiya Samvidhan Ki Visheshtayen
  6. भारत के आधारभूत मूल्यों की व्याख्या है संविधान की प्रस्तावना
  7. भारत के आधारभूत मूल्यों की व्याख्या है संविधान की प्रस्तावना


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हाल ही में, भारत के मुख्य न्यायाधीश एस.ए. बोबडे (S A Bobde) की अध्यक्षता वाली सर्वोच्च न्यायालय की खंडपीठ ने कहा कि हम संविधान के अनुच्छेद 32 के तहत दायर याचिकाओं को 'हतोत्साहित' करने का प्रयास कर रहे हैं. सुप्रीम कोर्ट ने यह बात केरल यूनियन ऑफ वर्किंग जर्नलिस्ट्स द्वारा पत्रकार सिद्दीक कप्पन की रिहाई के लिए अनुच्छेद 32 के तहत दायर बंदी प्रत्यक्षीकरण (Habeas Corpus) याचिका पर सुनवाई करते हुए कहा. केरल स्थित कप्पन को 5 अक्टूबर को गिरफ्तार किया गया था, जब वह 20 वर्षीय दलित महिला से कथित सामूहिक बलात्कार और हत्या की रिपोर्ट करने के लिए हाथरस जा रहा था. मुख्य न्यायाधीश एस.ए. बोबडे के अनुसार अनुच्छेद 32 के तहत दायर याचिकाओं की सर्वोच्च न्यायालय में भरमार है. जब लोगों के मौलिक अधिकारों का हनन होता है तो लोग उच्च न्यायालय के पास जाने की बजाय सीधे सर्वोच्च न्यायालय या सुप्रीम कोर्ट में याचिका दायर कर रहे हैं. और तो और ऐसे मामलों में रिट जारी करने का अधिकार संविधान के अनुच्छेद 226 के तहत उच्च न्यायालयों को भी प्रदान किया गया है. अनुच्छेद 32 के बारे में - अनुच्छेद 32 संवैधानिक उपचारों का अधिकार से संबंधित है. यह एक मौलिक अधिकार है. इस अनुच्छेद के तहत प्रत्येक भारतीय नागरिक को संविधान द्वारा मान्यता प्राप्त है कि वह अन्य मौलिक अधिकारों को लागू कराने के लिये सुप्रीम कोर्ट के समक्ष याचिका दायर कर सकता है . ऐसा कहना गलत नहीं होगा कि संवैधानिक उपचारों का अधिकार अपने या स्वयं में कोई अधिकार नहीं है बल्कि अन्य मौलिक अधिकारों का रक्षोपाय है. अगर किसी भी व्यक्ति के मौलिक अधिकारों का हनन होता है तो इसके अंतर्गत इस स्थिति में न्यायालय की शरण ले सकता है. इसलिये डॉ. अंबेडकर ने संविधान का सबसे मह...

भारत के आधारभूत मूल्यों की व्याख्या है संविधान की प्रस्तावना

भारतीय संविधान की प्रस्तावना को गहराई से देखने और उसकी संरचना प्रक्रिया को जानने पर पता चलता है कि वह कैसे वह संविधान के आध्यात्मिक मूल्यों को ही व्याख्यायित करती है. भारत के संविधान की प्रस्तावना में लिखा गया है: ‘हम, भारत के लोग, भारत को एक संपूर्ण प्रभुत्त्व-संपन्न, समाजवादी, पंथनिरपेक्ष, लोकतंत्रात्मक गणराज्य बनाने के लिये तथा इसके समस्त नागरिकों को: सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक न्याय, विचार, अभिव्यक्ति, विश्वास, धर्म और उपासना की स्वतंत्रता, प्रतिष्ठा और अवसर की समता प्राप्त कराने के लिये तथा उन सब में व्यक्ति की गरिमा और राष्ट्र की एकता तथा अखंडता सुनिश्चित करने वाली बंधुता बढ़ाने के लिये दृढ़ संकल्पित होकर अपनी इस संविधान सभा में आज दिनांक 26 नवंबर, 1949 ई. (मिति मार्गशीर्ष शुक्ल सप्तमी, संवत दो हज़ार छः विक्रमी) को एतद्द्वारा इस संविधान को अंगीकृत, अधिनियमित और आत्मार्पित करते हैं.’ भारत के संविधान की प्रस्तावना (उद्देश्यिका) संविधान सभा की 17 अक्टूबर 1949 की बैठक में पारित की गई. यह वह तारीख थी, जब संविधान का काम लगभग समाप्ति पर पहुंच चुका था. भारत का संविधान उस संकल्प प्रस्ताव के आधार पर रचा गया था, जिसे 13 दिसंबर 1946 को जवाहरलाल नेहरु ने प्रस्तुत किया था और विस्तृत चर्चा के बाद जिसे 22 जनवरी 1947 को संविधान सभा ने ज्यों का त्यों पारित किया था. भारतीय स्वतंत्रता के इस घोषणा पत्र में कहा गया था कि यह संविधान सभा भारतवर्ष को एक पूर्ण स्वतंत्र जनतंत्र घोषित करने का दृढ़ और गंभीर संकल्प प्रकट करती है और निश्चय करती है कि उसके भावी शासन के लिए एक विधान बनाया जाए. यह उन सभी प्रदेशों का संघ होगा, जो आज ब्रिटिश भारत तथा देसी रियासतों के अंतर्गत हैं और इनके बाहर भी हैं तथा ...

Bhartiya Samvidhan Ki Visheshtayen

भारतीय संविधान की विशेषताएं ( Bhartiya Samvidhan Ki Visheshtayen) अनेक हैं। यह तत्वों और मूल भावना की दृष्टि से अद्वितीय है। इसके कई भाग विश्व के विभिन्न संविधान से लिए गए हैं, हमारे देश के संविधान में कुछ ऐसे तत्व सम्मिलित है जो उसे अन्य देशों से अलग पहचान देता है। यह देश के लिए एक पवित्र दस्तावेज है। इस आर्टिकल में हम संविधान में उल्लेखित विभिन्न पहलुओं पर विचार करेंगे जो विश्व में एक अलग पहचान बनाता है। संविधान के वर्तमान रूप में निम्नलिखित विशेषताएं हैं। Table of Contents • • • • • • • • • • • • • • • • • • 1. सबसे लंबा लिखित संविधान संविधान को दो वर्गों में विभाजित किया जाता है, एक लिखित और दूसरा अलिखित। अमेरिका में लिखित संविधान है जबकि ब्रिटेन में अलिखित। 26 नवंबर 1949 में निर्मित संविधान में एक प्रस्तावना, 395 अनुच्छेद, 22 भाग तथा 8 अनुसूचियां थी। वर्तमान में 470 अनुच्छेद, 25 भाग तथा 12 अनुसूचियां हैं। 1951 में हुए संशोधन के तहत 20 अनुच्छेद व एक भाग (vii) को हटा दिया गया तथा इसमें करीब 95 अनुच्छेद, 4 भाग (4क, 9क, 9ख, 14क) और 4 अनुसूचियों (9, 10, 11, 12) को जोड़ा गया। हमारे संविधान को विस्तृत बनाने में संशोधन का महत्वपूर्ण योगदान है। जबसे संविधान बनकर तैयार हुआ, तब से लगातार संशोधन होते आ रहे हैं, इसलिए इसका आकार विस्तृत होता जा रहा है। अभी तक लगभग 100 से अधिक बार किसी न किसी प्रावधानों को जोड़ने या हटाने के लिए संशोधन किए गए है। भारत के संविधान को विस्तृत बनाने के पीछे कुछ और भी महत्वपूर्ण कारण है जो इस प्रकार है। • भौगोलिक कारण, भारत का विस्तार और विविधता। • ऐतिहासिक, इसके उदाहरण के रूप में भारत शासन अधिनियम 1935 के प्रभाव को देखा जा सकता है। यह अधिनियम बहुत विस्त...

संविधान की विकास गाथा: वर्तमान भारत में क्रान्ति की संभावना

अब यह माना जा सकता है कि भारत में सामाजिक और राजनीतिक अधिकारों (Social and Political Rights) को सम्पूर्ण बनाने के लिए आर्थिक अधिकारों और संवैधानिक मूल्य (Constitutional Values) आधारित अर्थव्यवस्था (Economy) का निर्माण करने के लिए किये गए प्रावधानों को लागू करने के लिए लिए “राज्य” को बाध्य बनाया जाना चाहिए था. संविधान (Constitution) में लिखे गए नीति निदेशक तत्वों की राज्य द्वारा की गयी उपेक्षा का परिणाम यह हुआ है कि भारत पूरी तरह से उपनिवेशवाद (colonialism) से मुक्त नहीं हो पाया और भीतरी परतंत्रता बनी रही. समाज में तार्किक-वैज्ञानिक सोच भी विकसित नहीं हो पायी. इसका लाभ उठाकर राजनैतिक दलों ने जातिवाद (Casteism) और साम्प्रदायिकता (Communalism) को सामजिक व्यवस्था के उच्चतम शिखर पर बिठा दिया. हमारे संविधान के मुताबिक़ सामाजिक और राजनीतिक न्याय मूल अधिकार (Fundamental Rights) हैं और न्यायलय में प्रवर्तनीय हैं, किन्तु आर्थिक न्याय (Economic Justice) और आर्थिक लोकतंत्र के लिए महत्वपूर्ण प्रावधान (नीति निदेशक तत्व) न्यायालय में प्रवर्तनीय नहीं हैं. यानी यदि किसी गर्भवती महिला को प्रसूति लाभ (Maternity Benefit) न मिले, तो वह अदालत में मातृत्व हक़ की मांग नहीं कर सकती है. किसान को यदि उसकी फसल की सही कीमत न मिले तो, वह अदालत (Court) से न्याय (Justice) की उम्मीद नहीं कर सकता है. ऐसे विषय जब भी अदालत में लाये जाते हैं, तब अदालत उनमें यह कह कर दखल देने से इनकार कर देती है कि यह नीतिगत मामला है और हम इसमें दखल नहीं दे सकते! संविधान लागू होने के 7 दशक बाद यह साफ़ नज़र आने लगा है कि भारतीय नागरिक समाज ने अपने राजनीतिक निर्णय तय करते समय आर्थिक न्याय, आर्थिक समानता और संसाधनों के जवाबदेय उपयोग ...

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हाल ही में, भारत के मुख्य न्यायाधीश एस.ए. बोबडे (S A Bobde) की अध्यक्षता वाली सर्वोच्च न्यायालय की खंडपीठ ने कहा कि हम संविधान के अनुच्छेद 32 के तहत दायर याचिकाओं को 'हतोत्साहित' करने का प्रयास कर रहे हैं. सुप्रीम कोर्ट ने यह बात केरल यूनियन ऑफ वर्किंग जर्नलिस्ट्स द्वारा पत्रकार सिद्दीक कप्पन की रिहाई के लिए अनुच्छेद 32 के तहत दायर बंदी प्रत्यक्षीकरण (Habeas Corpus) याचिका पर सुनवाई करते हुए कहा. केरल स्थित कप्पन को 5 अक्टूबर को गिरफ्तार किया गया था, जब वह 20 वर्षीय दलित महिला से कथित सामूहिक बलात्कार और हत्या की रिपोर्ट करने के लिए हाथरस जा रहा था. मुख्य न्यायाधीश एस.ए. बोबडे के अनुसार अनुच्छेद 32 के तहत दायर याचिकाओं की सर्वोच्च न्यायालय में भरमार है. जब लोगों के मौलिक अधिकारों का हनन होता है तो लोग उच्च न्यायालय के पास जाने की बजाय सीधे सर्वोच्च न्यायालय या सुप्रीम कोर्ट में याचिका दायर कर रहे हैं. और तो और ऐसे मामलों में रिट जारी करने का अधिकार संविधान के अनुच्छेद 226 के तहत उच्च न्यायालयों को भी प्रदान किया गया है. अनुच्छेद 32 के बारे में - अनुच्छेद 32 संवैधानिक उपचारों का अधिकार से संबंधित है. यह एक मौलिक अधिकार है. इस अनुच्छेद के तहत प्रत्येक भारतीय नागरिक को संविधान द्वारा मान्यता प्राप्त है कि वह अन्य मौलिक अधिकारों को लागू कराने के लिये सुप्रीम कोर्ट के समक्ष याचिका दायर कर सकता है . ऐसा कहना गलत नहीं होगा कि संवैधानिक उपचारों का अधिकार अपने या स्वयं में कोई अधिकार नहीं है बल्कि अन्य मौलिक अधिकारों का रक्षोपाय है. अगर किसी भी व्यक्ति के मौलिक अधिकारों का हनन होता है तो इसके अंतर्गत इस स्थिति में न्यायालय की शरण ले सकता है. इसलिये डॉ. अंबेडकर ने संविधान का सबसे मह...

संविधान की विकास गाथा: वर्तमान भारत में क्रान्ति की संभावना

अब यह माना जा सकता है कि भारत में सामाजिक और राजनीतिक अधिकारों (Social and Political Rights) को सम्पूर्ण बनाने के लिए आर्थिक अधिकारों और संवैधानिक मूल्य (Constitutional Values) आधारित अर्थव्यवस्था (Economy) का निर्माण करने के लिए किये गए प्रावधानों को लागू करने के लिए लिए “राज्य” को बाध्य बनाया जाना चाहिए था. संविधान (Constitution) में लिखे गए नीति निदेशक तत्वों की राज्य द्वारा की गयी उपेक्षा का परिणाम यह हुआ है कि भारत पूरी तरह से उपनिवेशवाद (colonialism) से मुक्त नहीं हो पाया और भीतरी परतंत्रता बनी रही. समाज में तार्किक-वैज्ञानिक सोच भी विकसित नहीं हो पायी. इसका लाभ उठाकर राजनैतिक दलों ने जातिवाद (Casteism) और साम्प्रदायिकता (Communalism) को सामजिक व्यवस्था के उच्चतम शिखर पर बिठा दिया. हमारे संविधान के मुताबिक़ सामाजिक और राजनीतिक न्याय मूल अधिकार (Fundamental Rights) हैं और न्यायलय में प्रवर्तनीय हैं, किन्तु आर्थिक न्याय (Economic Justice) और आर्थिक लोकतंत्र के लिए महत्वपूर्ण प्रावधान (नीति निदेशक तत्व) न्यायालय में प्रवर्तनीय नहीं हैं. यानी यदि किसी गर्भवती महिला को प्रसूति लाभ (Maternity Benefit) न मिले, तो वह अदालत में मातृत्व हक़ की मांग नहीं कर सकती है. किसान को यदि उसकी फसल की सही कीमत न मिले तो, वह अदालत (Court) से न्याय (Justice) की उम्मीद नहीं कर सकता है. ऐसे विषय जब भी अदालत में लाये जाते हैं, तब अदालत उनमें यह कह कर दखल देने से इनकार कर देती है कि यह नीतिगत मामला है और हम इसमें दखल नहीं दे सकते! संविधान लागू होने के 7 दशक बाद यह साफ़ नज़र आने लगा है कि भारतीय नागरिक समाज ने अपने राजनीतिक निर्णय तय करते समय आर्थिक न्याय, आर्थिक समानता और संसाधनों के जवाबदेय उपयोग ...

Bhartiya Samvidhan Ki Visheshtayen

भारतीय संविधान की विशेषताएं ( Bhartiya Samvidhan Ki Visheshtayen) अनेक हैं। यह तत्वों और मूल भावना की दृष्टि से अद्वितीय है। इसके कई भाग विश्व के विभिन्न संविधान से लिए गए हैं, हमारे देश के संविधान में कुछ ऐसे तत्व सम्मिलित है जो उसे अन्य देशों से अलग पहचान देता है। यह देश के लिए एक पवित्र दस्तावेज है। इस आर्टिकल में हम संविधान में उल्लेखित विभिन्न पहलुओं पर विचार करेंगे जो विश्व में एक अलग पहचान बनाता है। संविधान के वर्तमान रूप में निम्नलिखित विशेषताएं हैं। Table of Contents • • • • • • • • • • • • • • • • • • 1. सबसे लंबा लिखित संविधान संविधान को दो वर्गों में विभाजित किया जाता है, एक लिखित और दूसरा अलिखित। अमेरिका में लिखित संविधान है जबकि ब्रिटेन में अलिखित। 26 नवंबर 1949 में निर्मित संविधान में एक प्रस्तावना, 395 अनुच्छेद, 22 भाग तथा 8 अनुसूचियां थी। वर्तमान में 470 अनुच्छेद, 25 भाग तथा 12 अनुसूचियां हैं। 1951 में हुए संशोधन के तहत 20 अनुच्छेद व एक भाग (vii) को हटा दिया गया तथा इसमें करीब 95 अनुच्छेद, 4 भाग (4क, 9क, 9ख, 14क) और 4 अनुसूचियों (9, 10, 11, 12) को जोड़ा गया। हमारे संविधान को विस्तृत बनाने में संशोधन का महत्वपूर्ण योगदान है। जबसे संविधान बनकर तैयार हुआ, तब से लगातार संशोधन होते आ रहे हैं, इसलिए इसका आकार विस्तृत होता जा रहा है। अभी तक लगभग 100 से अधिक बार किसी न किसी प्रावधानों को जोड़ने या हटाने के लिए संशोधन किए गए है। भारत के संविधान को विस्तृत बनाने के पीछे कुछ और भी महत्वपूर्ण कारण है जो इस प्रकार है। • भौगोलिक कारण, भारत का विस्तार और विविधता। • ऐतिहासिक, इसके उदाहरण के रूप में भारत शासन अधिनियम 1935 के प्रभाव को देखा जा सकता है। यह अधिनियम बहुत विस्त...

भारत के आधारभूत मूल्यों की व्याख्या है संविधान की प्रस्तावना

भारतीय संविधान की प्रस्तावना को गहराई से देखने और उसकी संरचना प्रक्रिया को जानने पर पता चलता है कि वह कैसे वह संविधान के आध्यात्मिक मूल्यों को ही व्याख्यायित करती है. भारत के संविधान की प्रस्तावना में लिखा गया है: ‘हम, भारत के लोग, भारत को एक संपूर्ण प्रभुत्त्व-संपन्न, समाजवादी, पंथनिरपेक्ष, लोकतंत्रात्मक गणराज्य बनाने के लिये तथा इसके समस्त नागरिकों को: सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक न्याय, विचार, अभिव्यक्ति, विश्वास, धर्म और उपासना की स्वतंत्रता, प्रतिष्ठा और अवसर की समता प्राप्त कराने के लिये तथा उन सब में व्यक्ति की गरिमा और राष्ट्र की एकता तथा अखंडता सुनिश्चित करने वाली बंधुता बढ़ाने के लिये दृढ़ संकल्पित होकर अपनी इस संविधान सभा में आज दिनांक 26 नवंबर, 1949 ई. (मिति मार्गशीर्ष शुक्ल सप्तमी, संवत दो हज़ार छः विक्रमी) को एतद्द्वारा इस संविधान को अंगीकृत, अधिनियमित और आत्मार्पित करते हैं.’ भारत के संविधान की प्रस्तावना (उद्देश्यिका) संविधान सभा की 17 अक्टूबर 1949 की बैठक में पारित की गई. यह वह तारीख थी, जब संविधान का काम लगभग समाप्ति पर पहुंच चुका था. भारत का संविधान उस संकल्प प्रस्ताव के आधार पर रचा गया था, जिसे 13 दिसंबर 1946 को जवाहरलाल नेहरु ने प्रस्तुत किया था और विस्तृत चर्चा के बाद जिसे 22 जनवरी 1947 को संविधान सभा ने ज्यों का त्यों पारित किया था. भारतीय स्वतंत्रता के इस घोषणा पत्र में कहा गया था कि यह संविधान सभा भारतवर्ष को एक पूर्ण स्वतंत्र जनतंत्र घोषित करने का दृढ़ और गंभीर संकल्प प्रकट करती है और निश्चय करती है कि उसके भावी शासन के लिए एक विधान बनाया जाए. यह उन सभी प्रदेशों का संघ होगा, जो आज ब्रिटिश भारत तथा देसी रियासतों के अंतर्गत हैं और इनके बाहर भी हैं तथा ...

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हाल ही में, भारत के मुख्य न्यायाधीश एस.ए. बोबडे (S A Bobde) की अध्यक्षता वाली सर्वोच्च न्यायालय की खंडपीठ ने कहा कि हम संविधान के अनुच्छेद 32 के तहत दायर याचिकाओं को 'हतोत्साहित' करने का प्रयास कर रहे हैं. सुप्रीम कोर्ट ने यह बात केरल यूनियन ऑफ वर्किंग जर्नलिस्ट्स द्वारा पत्रकार सिद्दीक कप्पन की रिहाई के लिए अनुच्छेद 32 के तहत दायर बंदी प्रत्यक्षीकरण (Habeas Corpus) याचिका पर सुनवाई करते हुए कहा. केरल स्थित कप्पन को 5 अक्टूबर को गिरफ्तार किया गया था, जब वह 20 वर्षीय दलित महिला से कथित सामूहिक बलात्कार और हत्या की रिपोर्ट करने के लिए हाथरस जा रहा था. मुख्य न्यायाधीश एस.ए. बोबडे के अनुसार अनुच्छेद 32 के तहत दायर याचिकाओं की सर्वोच्च न्यायालय में भरमार है. जब लोगों के मौलिक अधिकारों का हनन होता है तो लोग उच्च न्यायालय के पास जाने की बजाय सीधे सर्वोच्च न्यायालय या सुप्रीम कोर्ट में याचिका दायर कर रहे हैं. और तो और ऐसे मामलों में रिट जारी करने का अधिकार संविधान के अनुच्छेद 226 के तहत उच्च न्यायालयों को भी प्रदान किया गया है. अनुच्छेद 32 के बारे में - अनुच्छेद 32 संवैधानिक उपचारों का अधिकार से संबंधित है. यह एक मौलिक अधिकार है. इस अनुच्छेद के तहत प्रत्येक भारतीय नागरिक को संविधान द्वारा मान्यता प्राप्त है कि वह अन्य मौलिक अधिकारों को लागू कराने के लिये सुप्रीम कोर्ट के समक्ष याचिका दायर कर सकता है . ऐसा कहना गलत नहीं होगा कि संवैधानिक उपचारों का अधिकार अपने या स्वयं में कोई अधिकार नहीं है बल्कि अन्य मौलिक अधिकारों का रक्षोपाय है. अगर किसी भी व्यक्ति के मौलिक अधिकारों का हनन होता है तो इसके अंतर्गत इस स्थिति में न्यायालय की शरण ले सकता है. इसलिये डॉ. अंबेडकर ने संविधान का सबसे मह...

भारत के आधारभूत मूल्यों की व्याख्या है संविधान की प्रस्तावना

भारतीय संविधान की प्रस्तावना को गहराई से देखने और उसकी संरचना प्रक्रिया को जानने पर पता चलता है कि वह कैसे वह संविधान के आध्यात्मिक मूल्यों को ही व्याख्यायित करती है. भारत के संविधान की प्रस्तावना में लिखा गया है: ‘हम, भारत के लोग, भारत को एक संपूर्ण प्रभुत्त्व-संपन्न, समाजवादी, पंथनिरपेक्ष, लोकतंत्रात्मक गणराज्य बनाने के लिये तथा इसके समस्त नागरिकों को: सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक न्याय, विचार, अभिव्यक्ति, विश्वास, धर्म और उपासना की स्वतंत्रता, प्रतिष्ठा और अवसर की समता प्राप्त कराने के लिये तथा उन सब में व्यक्ति की गरिमा और राष्ट्र की एकता तथा अखंडता सुनिश्चित करने वाली बंधुता बढ़ाने के लिये दृढ़ संकल्पित होकर अपनी इस संविधान सभा में आज दिनांक 26 नवंबर, 1949 ई. (मिति मार्गशीर्ष शुक्ल सप्तमी, संवत दो हज़ार छः विक्रमी) को एतद्द्वारा इस संविधान को अंगीकृत, अधिनियमित और आत्मार्पित करते हैं.’ भारत के संविधान की प्रस्तावना (उद्देश्यिका) संविधान सभा की 17 अक्टूबर 1949 की बैठक में पारित की गई. यह वह तारीख थी, जब संविधान का काम लगभग समाप्ति पर पहुंच चुका था. भारत का संविधान उस संकल्प प्रस्ताव के आधार पर रचा गया था, जिसे 13 दिसंबर 1946 को जवाहरलाल नेहरु ने प्रस्तुत किया था और विस्तृत चर्चा के बाद जिसे 22 जनवरी 1947 को संविधान सभा ने ज्यों का त्यों पारित किया था. भारतीय स्वतंत्रता के इस घोषणा पत्र में कहा गया था कि यह संविधान सभा भारतवर्ष को एक पूर्ण स्वतंत्र जनतंत्र घोषित करने का दृढ़ और गंभीर संकल्प प्रकट करती है और निश्चय करती है कि उसके भावी शासन के लिए एक विधान बनाया जाए. यह उन सभी प्रदेशों का संघ होगा, जो आज ब्रिटिश भारत तथा देसी रियासतों के अंतर्गत हैं और इनके बाहर भी हैं तथा ...