जलाओ दिए पर रहे ध्यान

  1. गोपालदास 'नीरज' की कविता
  2. जलाओ दिए पर रहे ध्यान इतना
  3. एक शाम मेरे नाम: जलाओ दीये पर रहे ध्यान इतना..अँधेरा धरा पर कहीं रह न जाए Jalao Diye Par Rahe Dhyan Itna
  4. गोपाल दास नीरज के काव्य से चुनिंदा पंक्तियां
  5. जलाओ दिए पर रहे ध्यान इतना / गोपालदास “नीरज” – Poets Home
  6. दीपावली पर गोपालदास 'नीरज' की मशहूर कविताएं
  7. जलाओ दिए पर रहे ध्यान इतना / गोपालदास “नीरज” – Poets Home
  8. गोपालदास 'नीरज' की कविता
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गोपालदास 'नीरज' की कविता

पेंटिंग : डॉ विजय सिंह गोपालदास ‘नीरज’ (4 जनवरी 1925 – 19 जुलाई 2018) जलाओ दिए पर रहे ध्यान इतना जलाओ दिए पर रहे ध्यान इतना अँधेरा धरा पर कहीं रह न जाए। नई ज्योति के धर नए पंख झिलमिल, उड़े मर्त्य मिट्टी गगन स्वर्ग छू ले, लगे रोशनी की झड़ी झूम ऐसी, निशा की गली में तिमिर राह भूले, खुले मुक्ति का वह किरण द्वार जगमग, ऊषा जा न पाए, निशा आ ना पाए जलाओ दिए पर रहे ध्यान इतना अँधेरा धरा पर कहीं रह न जाए। सृजन है अधूरा अगर विश्व भर में, कहीं भी किसी द्वार पर है उदासी, मनुजता नहीं पूर्ण तब तक बनेगी, कि जब तक लहू के लिए भूमि प्यासी, चलेगा सदा नाश का खेल यूँ ही, भले ही दिवाली यहाँ रोज आए जलाओ दिए पर रहे ध्यान इतना अँधेरा धरा पर कहीं रह न जाए। मगर दीप की दीप्ति से सिर्फ जग में, नहीं मिट सका है धरा का अँधेरा, उतर क्यों न आएं नखत सब नयन के, नहीं कर सकेंगे हृदय में उजेरा, कटेंगे तभी यह अँधरे घिरे अब, स्वयं धर मनुज दीप का रूप आए जलाओ दिए पर रहे ध्यान इतना अँधेरा धरा पर कहीं रह न जाए।

प्राण

क्या करेगा प्यार वह भगवान को? क्या करेगा प्यार वह ईमान को ? जन्म लेकर गोद में इन्सान की प्यार कर पाया न जो इन्सान को । तुम झूम-झूम गाओ, रोते नयन हंसाओ, मैं हर नगर डगर के कांटे बुहार दूंगा। भटकी हुई पवन है, सहमी हुई किरन है, न पता नहीं सुबह का, हर ओर तम गहन है, तुम द्वार द्वार जाओ, परदे उघार आओ, मैं सूर्य-चांद सारे भू पर उतार दूंगा। तुम झूम झूम गाओ। गीला हरेक आंचल, टूटी हरेक पायल, व्याकुल हरेक चितवन, घायल हरेक काजल, तुम सेज-सेज जाओ, सपने नए सजाओ, मैं हर कली अली के पी को पुकार दूंगा। तुम झूम-झूम गाओ। विधवा हरेक डाली, हर एक नीड़ खाली, गाती न कहीं कोयल, दिखता न कहीं माली, तुम बाग जाओ, हर फूल को जगाओ, मैं धूल को उड़ाकर सबको बहार दूंगा। तुम झूम-झूम गाओ। मिट्टी उजल रही है, धरती संभल रही है, इन्सान जग रहा है, दुनिया बदल रही है, तुम खेत खेत जाओ, दो बीज डाल आओ, इतिहास से हुई मैं गलती सुधार दूंगा। तुम झूम-झूम गाओ। कोई नहीं पराया, मेरा घर संसार है। मैं ना बँधा हूँ देश काल की जंग लगी जंजीर में मैं ना खड़ा हूँ जाति−पाति की ऊँची−नीची भीड़ में मेरा धर्म ना कुछ स्याही−शब्दों का सिर्फ गुलाम है मैं बस कहता हूँ कि प्यार है तो घट−घट में राम है मुझ से तुम ना कहो कि मंदिर−मस्जिद पर मैं सर टेक दूँ मेरा तो आराध्य आदमी− देवालय हर द्वार है कोई नहीं पराया मेरा घर सारा संसार है ।। कहीं रहे कैसे भी मुझको प्यारा यह इन्सान है, मुझको अपनी मानवता पर बहुत-बहुत अभिमान है, अरे नहीं देवत्व मुझे तो भाता है मनुजत्व ही, और छोड़कर प्यार नहीं स्वीकार सकल अमरत्व भी, मुझे सुनाओ तुम न स्वर्ग-सुख की सुकुमार कहानियाँ, मेरी धरती सौ-सौ स्वर्गों से ज्यादा सुकुमार है। कोई नहीं पराया मेरा घर सारा संसार है ।। मुझे मिली है प्या...

जलाओ दिए पर रहे ध्यान इतना

जलाओ दिए पर रहे ध्यान इतना अँधेरा धरा पर कहीं रह न जाए। नई ज्योति के धर नए पंख झिलमिल, उड़े मर्त्य मिट्टी गगन स्वर्ग छू ले, लगे रोशनी की झड़ी झूम ऐसी, निशा की गली में तिमिर राह भूले, खुले मुक्ति का वह किरण द्वार जगमग, ऊषा जा न पाए, निशा आ ना पाए जलाओ दिए पर रहे ध्यान इतना अँधेरा धरा पर कहीं रह न जाए। सृजन है अधूरा अगर विश्‍व भर में, कहीं भी किसी द्वार पर है उदासी, मनुजता नहीं पूर्ण तब तक बनेगी, कि जब तक लहू के लिए भूमि प्यासी, चलेगा सदा नाश का खेल यूँ ही, भले ही दिवाली यहाँ रोज आए जलाओ दिए पर रहे ध्यान इतना अँधेरा धरा पर कहीं रह न जाए। मगर दीप की दीप्ति से सिर्फ जग में, नहीं मिट सका है धरा का अँधेरा, उतर क्यों न आयें नखत सब नयन के, नहीं कर सकेंगे हृदय में उजेरा, कटेंगे तभी यह अँधरे घिरे अब, स्वयं धर मनुज दीप का रूप आए जलाओ दिए पर रहे ध्यान इतना अँधेरा धरा पर कहीं रह न जाए। टीका टिप्पणी और संदर्भ संबंधित लेख

एक शाम मेरे नाम: जलाओ दीये पर रहे ध्यान इतना..अँधेरा धरा पर कहीं रह न जाए Jalao Diye Par Rahe Dhyan Itna

दीपावली एक ऐसा पर्व है जिसे अकेले मनाने का मन नहीं होता। दीपावली के पहले की सफाई से लेकर उसदिनएक साथ पूजा करना, बड़ों से आशीर्वाद लेना ,बच्चों की खुशियों में साझेदार बनना मुझे हमेशा से बेहद पसंद रहा है। खुशकिस्मत हूँ की मेरा कार्य मुझे ऐसे दीपावली मना पाने की सहूलियत देता है। पर सेना, पुलिस , अस्पताल और अन्य जरुरी सेवाओं में लगेलोगों को देखता हूँ तो मन में यही ख्याल आता है किकाश जंग ही नहीं होती, अपराध नहीं होते , लोग आपस में खून खराबा नहीं करते तो इन आकस्मिक और जरुरी सेवाओं की फेरहिस्त भी छोटी हो जाती। दरअसल एक साथ जुटने , खुशियों को बांटने के अलावा ये प्रकाशोत्सवहमें मौका देता है की हम अपनी उन आंतरिक त्रुटियों को दूर करें ताकि घृणा , वैमनस्य, हिंसा जैसी भावनाएँहमारे पास भी न भटकें। आख़िर दीपावली में हम अपने घर भर में उजाला क्यों करते हैं? इसीलिए ना किबाहर फैली रौशनी की तरह हमाराअंतर्मन भी प्रकाशित हो। हम सब के अंदर का कलुष रूपीतमस दीयेकी लौ के साथ जलकरसदविचार में तब्दील हो सके। हिंदी के प्रखर कविगोपाल दासनीरज की एक कविता याद आ रही है जिसमें उन्होंने इसी विचार को अपने ओजपूर्ण शब्दों से संवारा था। जलाओ दीये पर रहे ध्यान इतना अँधेरा धरा पर कहीं रह न जाए नई ज्योति के धर नये पंख झिलमिल, उड़े मर्त्य मिट्टी गगन-स्वर्ग छू ले, लगे रोशनी की झड़ी झूम ऐसी, निशा की गली में तिमिर राह भूले, खुले मुक्ति का वह किरण-द्वार जगमग, उषा जा न पाए, निशा आ ना पाए। जलाओ दीये पर रहे ध्यान इतना अँधेरा धरा पर कहीं रह न जाए सृजन है अधूरा अगर विश्व भर में, कहीं भी किसी द्वार पर है उदासी, मनुजता नहीं पूर्ण तब तक बनेगी, कि जब तक लहू के लिए भूमि प्यासी, चलेगा सदा नाश का खेल यों ही, भले ही दिवाली यहाँ रोज आए...

गोपाल दास नीरज के काव्य से चुनिंदा पंक्तियां

हाथ थे मिले कि जुल्फ चाँद की सँवार दूँ, होंठ थे खुले कि हर बहार को पुकार दूँ, दर्द था दिया गया कि हर दुखी को प्यार दूँ, और साँस यूँ कि स्वर्ग भूमी पर उतार दूँ, हो सका न कुछ मगर, शाम बन गई सहर, वह उठी लहर कि दह गये किले बिखर-बिखर, और हम डरे-डरे, नीर नयन में भरे, ओढ़कर कफ़न, पड़े मज़ार देखते रहे कारवां गुज़र गया, गुबार देखते रहे! जलाओ दिए पर रहे ध्यान इतना अँधेरा धरा पर कहीं रह न जाए। नई ज्योति के धर नए पंख झिलमिल, उड़े मर्त्य मिट्टी गगन स्वर्ग छू ले, लगे रोशनी की झड़ी झूम ऐसी, निशा की गली में तिमिर राह भूले, खुले मुक्ति का वह किरण द्वार जगमग, ऊषा जा न पाए, निशा आ ना पाए जलाओ दिए पर रहे ध्यान इतना अँधेरा धरा पर कहीं रह न जाए। साभार- कविताकोश आगे पढ़ें धनिकों के तो धन हैं लाखों

जलाओ दिए पर रहे ध्यान इतना / गोपालदास “नीरज” – Poets Home

जलाओ दिए पर रहे ध्यान इतना अँधेरा धरा पर कहीं रह न जाए। नई ज्योति के धर नए पंख झिलमिल, उड़े मर्त्य मिट्टी गगन स्वर्ग छू ले, लगे रोशनी की झड़ी झूम ऐसी, निशा की गली में तिमिर राह भूले, खुले मुक्ति का वह किरण द्वार जगमग, ऊषा जा न पाए, निशा आ ना पाए जलाओ दिए पर रहे ध्यान इतना अँधेरा धरा पर कहीं रह न जाए। सृजन है अधूरा अगर विश्व भर में, कहीं भी किसी द्वार पर है उदासी, मनुजता नहीं पूर्ण तब तक बनेगी, कि जब तक लहू के लिए भूमि प्यासी, चलेगा सदा नाश का खेल यूँ ही, भले ही दिवाली यहाँ रोज आए जलाओ दिए पर रहे ध्यान इतना अँधेरा धरा पर कहीं रह न जाए। मगर दीप की दीप्ति से सिर्फ जग में, नहीं मिट सका है धरा का अँधेरा, उतर क्यों न आयें नखत सब नयन के, नहीं कर सकेंगे ह्रदय में उजेरा, कटेंगे तभी यह अँधरे घिरे अब, स्वयं धर मनुज दीप का रूप आए जलाओ दिए पर रहे ध्यान इतना अँधेरा धरा पर कहीं रह न जाए।

दीपावली पर गोपालदास 'नीरज' की मशहूर कविताएं

नई ज्योति के धर नए पंख झिलमिल, उड़े मर्त्य मिट्टी गगन स्वर्ग छू ले, लगे रोशनी की झड़ी झूम ऐसी, निशा की गली में तिमिर राह भूले, खुले मुक्ति का वह किरण द्वार जगमग, ऊषा जा न पाए, निशा आ ना पाए जलाओ दिए पर रहे ध्यान इतना अंधेरा धरा पर कहीं रह न जाए। सृजन है अधूरा अगर विश्व भर में, कहीं भी किसी द्वार पर है उदासी, मनुजता नहीं पूर्ण तब तक बनेगी, कि जब तक लहू के लिए भूमि प्यासी, चलेगा सदा नाश का खेल यूं ही, भले ही दिवाली यहां रोज आए जलाओ दिए पर रहे ध्यान इतना अंधेरा धरा पर कहीं रह न जाए। मगर दीप की दीप्ति से सिर्फ जग में, नहीं मिट सका है धरा का अंधेरा, उतर क्यों न आयें नखत सब नयन के, नहीं कर सकेंगे ह्रदय में उजेरा, कटेंगे तभी यह अंधरे घिरे अब, स्वयं धर मनुज दीप का रूप आए जलाओ दिए पर रहे ध्यान इतना अंधेरा धरा पर कहीं रह न जाए।। अंधियार ढल कर ही रहेगा आंधियां चाहें उठाओ, बिजलियां चाहें गिराओ, जल गया है दीप तो अंधियार ढल कर ही रहेगा। रोशनी पूंजी नहीं है, जो तिजोरी में समाये, वह खिलौना भी न, जिसका दाम हर गाहक लगाये, वह पसीने की हंसी है, वह शहीदों की उमर है, जो नया सूरज उगाये जब तड़पकर तिलमिलाये, उग रही लौ को न टोको, ज्योति के रथ को न रोको, यह सुबह का दूत हर तम को निगलकर ही रहेगा। जल गया है दीप तो अंधियार ढल कर ही रहेगा। दीप कैसा हो, कहीं हो, सूर्य का अवतार है वह, धूप में कुछ भी न, तम में किन्तु पहरेदार है वह, दूर से तो एक ही बस फूंक का वह है तमाशा, देह से छू जाय तो फिर विप्लवी अंगार है वह, व्यर्थ है दीवार गढना, लाख लाख किवाड़ जड़ना, मृतिका के हांथ में अमरित मचलकर ही रहेगा। जल गया है दीप तो अंधियार ढल कर ही रहेगा। है जवानी तो हवा हर एक घूंघट खोलती है, टोक दो तो आंधियों की बोलियों में ब...

जलाओ दिए पर रहे ध्यान इतना / गोपालदास “नीरज” – Poets Home

जलाओ दिए पर रहे ध्यान इतना अँधेरा धरा पर कहीं रह न जाए। नई ज्योति के धर नए पंख झिलमिल, उड़े मर्त्य मिट्टी गगन स्वर्ग छू ले, लगे रोशनी की झड़ी झूम ऐसी, निशा की गली में तिमिर राह भूले, खुले मुक्ति का वह किरण द्वार जगमग, ऊषा जा न पाए, निशा आ ना पाए जलाओ दिए पर रहे ध्यान इतना अँधेरा धरा पर कहीं रह न जाए। सृजन है अधूरा अगर विश्व भर में, कहीं भी किसी द्वार पर है उदासी, मनुजता नहीं पूर्ण तब तक बनेगी, कि जब तक लहू के लिए भूमि प्यासी, चलेगा सदा नाश का खेल यूँ ही, भले ही दिवाली यहाँ रोज आए जलाओ दिए पर रहे ध्यान इतना अँधेरा धरा पर कहीं रह न जाए। मगर दीप की दीप्ति से सिर्फ जग में, नहीं मिट सका है धरा का अँधेरा, उतर क्यों न आयें नखत सब नयन के, नहीं कर सकेंगे ह्रदय में उजेरा, कटेंगे तभी यह अँधरे घिरे अब, स्वयं धर मनुज दीप का रूप आए जलाओ दिए पर रहे ध्यान इतना अँधेरा धरा पर कहीं रह न जाए।

गोपालदास 'नीरज' की कविता

पेंटिंग : डॉ विजय सिंह गोपालदास ‘नीरज’ (4 जनवरी 1925 – 19 जुलाई 2018) जलाओ दिए पर रहे ध्यान इतना जलाओ दिए पर रहे ध्यान इतना अँधेरा धरा पर कहीं रह न जाए। नई ज्योति के धर नए पंख झिलमिल, उड़े मर्त्य मिट्टी गगन स्वर्ग छू ले, लगे रोशनी की झड़ी झूम ऐसी, निशा की गली में तिमिर राह भूले, खुले मुक्ति का वह किरण द्वार जगमग, ऊषा जा न पाए, निशा आ ना पाए जलाओ दिए पर रहे ध्यान इतना अँधेरा धरा पर कहीं रह न जाए। सृजन है अधूरा अगर विश्व भर में, कहीं भी किसी द्वार पर है उदासी, मनुजता नहीं पूर्ण तब तक बनेगी, कि जब तक लहू के लिए भूमि प्यासी, चलेगा सदा नाश का खेल यूँ ही, भले ही दिवाली यहाँ रोज आए जलाओ दिए पर रहे ध्यान इतना अँधेरा धरा पर कहीं रह न जाए। मगर दीप की दीप्ति से सिर्फ जग में, नहीं मिट सका है धरा का अँधेरा, उतर क्यों न आएं नखत सब नयन के, नहीं कर सकेंगे हृदय में उजेरा, कटेंगे तभी यह अँधरे घिरे अब, स्वयं धर मनुज दीप का रूप आए जलाओ दिए पर रहे ध्यान इतना अँधेरा धरा पर कहीं रह न जाए।

एक शाम मेरे नाम: जलाओ दीये पर रहे ध्यान इतना..अँधेरा धरा पर कहीं रह न जाए Jalao Diye Par Rahe Dhyan Itna

दीपावली एक ऐसा पर्व है जिसे अकेले मनाने का मन नहीं होता। दीपावली के पहले की सफाई से लेकर उसदिनएक साथ पूजा करना, बड़ों से आशीर्वाद लेना ,बच्चों की खुशियों में साझेदार बनना मुझे हमेशा से बेहद पसंद रहा है। खुशकिस्मत हूँ की मेरा कार्य मुझे ऐसे दीपावली मना पाने की सहूलियत देता है। पर सेना, पुलिस , अस्पताल और अन्य जरुरी सेवाओं में लगेलोगों को देखता हूँ तो मन में यही ख्याल आता है किकाश जंग ही नहीं होती, अपराध नहीं होते , लोग आपस में खून खराबा नहीं करते तो इन आकस्मिक और जरुरी सेवाओं की फेरहिस्त भी छोटी हो जाती। दरअसल एक साथ जुटने , खुशियों को बांटने के अलावा ये प्रकाशोत्सवहमें मौका देता है की हम अपनी उन आंतरिक त्रुटियों को दूर करें ताकि घृणा , वैमनस्य, हिंसा जैसी भावनाएँहमारे पास भी न भटकें। आख़िर दीपावली में हम अपने घर भर में उजाला क्यों करते हैं? इसीलिए ना किबाहर फैली रौशनी की तरह हमाराअंतर्मन भी प्रकाशित हो। हम सब के अंदर का कलुष रूपीतमस दीयेकी लौ के साथ जलकरसदविचार में तब्दील हो सके। हिंदी के प्रखर कविगोपाल दासनीरज की एक कविता याद आ रही है जिसमें उन्होंने इसी विचार को अपने ओजपूर्ण शब्दों से संवारा था। जलाओ दीये पर रहे ध्यान इतना अँधेरा धरा पर कहीं रह न जाए नई ज्योति के धर नये पंख झिलमिल, उड़े मर्त्य मिट्टी गगन-स्वर्ग छू ले, लगे रोशनी की झड़ी झूम ऐसी, निशा की गली में तिमिर राह भूले, खुले मुक्ति का वह किरण-द्वार जगमग, उषा जा न पाए, निशा आ ना पाए। जलाओ दीये पर रहे ध्यान इतना अँधेरा धरा पर कहीं रह न जाए सृजन है अधूरा अगर विश्व भर में, कहीं भी किसी द्वार पर है उदासी, मनुजता नहीं पूर्ण तब तक बनेगी, कि जब तक लहू के लिए भूमि प्यासी, चलेगा सदा नाश का खेल यों ही, भले ही दिवाली यहाँ रोज आए...