कबीर दास के 5 दोहे

  1. कबीर के दोहे
  2. संत कबीर दास के दोहे
  3. 400+ कबीर दास के दोहे अर्थ सहित हिंदी में | Kabir Das Ke Dohe in Hindi
  4. ᐅ संत कबीर दास जी के प्रसिद्ध दोहे अर्थ सहित


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कबीर के दोहे

कबीर के दोहे न केवल ज्ञान, बल्कि साहित्य की दृष्टि से भी अद्भुत हैं। उनका एक-एक दोहा गागर में सागर की तरह है। रामानन्द जी से उन्हें जो राम-नाम का मंत्र मिला था, उसने उनके भीतर आत्म-ज्ञान को जन्म दिया। कबीर दास के दोहे उसकी आत्मज्ञान की गूंज हैं। इनमें व्यक्ति को रूपान्तरित करने की शक्ति और समाज को परिवर्तित करने का बल है। यूँ तो कबीर-वाणी बहुत विस्तृत है, यहाँ उनमें से कुछ चुनिंदा रत्न आपके सामने प्रस्तुत हैं। ये रत्न अर्थात कबीर दास जी के दोहे न केवल नई राह दिखाते हैं बल्कि अन्तस् के नए द्वार खोल देते हैं, नई समझ पैदा करते हैं, जीवन में नव-चेतना का संचार करते हैं और धीरे-धीरे ज्ञान-भक्ति का दीपक प्रज्वलित होने लगता है। यह भी पढ़ें– गुरुदेव का अंग क्या ले गुर संतोषिए, हौस रही मन माहि ॥1॥ भावार्थ – सद्गुरु ने मुझे सतगुरु लई कमांण करि, बाहण लागा तीर। एक जु बाह्या प्रीति सूं, भीतर रह्या शरीर॥2॥ भावार्थ – सदगुरु ने कमान हाथ में ले ली, और शब्द के तीर वे लगे चलाने। एक तीर तो बड़ी प्रीति से ऐसा चला दिया लक्ष्य बनाकर कि, मेरे भीतर ही वह बिध गया, बाहर निकलने का नहीं अब। सतगुरु की महिमा अनंत, अनंत किया उपगार। लोचन अनंत उघाडिया, अनंत-दिखावणहार ॥3॥ भावार्थ – अन्त नहीं सद्गुरु की महिमा का, और अन्त नहीं उनके किये उपकारों का , मेरे अनन्त लोचन खोल दिये, जिनसे निरन्तर में अनन्त को देख रहा हूँ। बलिहारी गुर आपणे, द्यौहाडी कै बार। जिनि मानिष तें देवता, करत न लागी बार ॥4॥ भावार्थ –हर दिन कितनी बार न्यौछावर करूँ अपने आपको सद्गुरू पर, जिन्होंने एक पल में ही मुझे मनुष्य से परमदेवता बना दिया, और तदाकार हो गया मैं। गुरु गोविन्द दोऊ खडे, काके लागूं पायं। बलिहारी गुरु आपणे, जिन गोविन्द दिया दिखाय ॥5॥ ...

संत कबीर दास के दोहे

गुरु गोविन्द दोऊ एक हैं, दुजा सब आकार । आपा मैटैं हरि भजैं , तब पावैं दीदार ।। संत शिरोमणि कबीरदास जी कहते हैं कि गुरु और गोविंद दोनो एक ही हैं केवल नाम का अंतर है। गुरु का बाह्य (शारीरिक) रूप चाहे जैसा हो किन्तु अंदर से गुरु और गोविंद मे कोई अंतर नही है। मन से अहंकार कि भावना का त्याग करके सरल और सहज होकर आत्म ध्यान करने से सद्गुरू का दर्शन प्राप्त होगा। जिससे प्राणी का कल्याण होगा। जब तक मन मे मैलरूपी “मैं और तू” कि भावना रहेगी तब तक दर्शन नहीं प्राप्त हो सकता। गुरु बिन ज्ञान न उपजै, गुरु बिन मिलै न मोष । गुरु बिन लखै न सत्य को गुरु बिन मैटैं न दोष ।। कबीर दास जी कहते है – हे सांसारिक प्राणीयों ! बिना गुरु के ज्ञान का मिलना असंभव है। तब तक मनुष्य अज्ञान रुपी अंधकार मे भटकता हुआ मायारूपी सांसारिक बन्धनो मे जकडा रहता है जब तक कि गुरु कि कृपा नहीं प्राप्त होती। मोक्ष रुपी मार्ग दिखलाने वाले गुरु हैं। बिना गुरु के सत्य एवम् असत्य का ज्ञान नही होता। उचित और अनुचित के भेद का ज्ञान नहीं होता फिर मोक्ष कैसे प्राप्त होगा ? अतः गुरु की शरण मे जाओ। गुरु ही सच्ची राह दिखाएंगे। गुरु समान दाता नहीं, याचक सीष समान । तीन लोक की सम्पदा, सो गुरु दिन्ही दान ।। इस दोहे में कबीरदास कहते हैं कि संपूर्ण संसार में गुरु के समान कोई दानी नहीं है और शिष्य के समान कोई याचक नहीं है। ज्ञान रुपी अमृतमयी अनमोल संपती गुरु अपने शिष्य को प्रदान करके कृतार्थ करता है और गुरु द्वारा प्रदान कि जाने वाली अनमोल ज्ञान सुधा केवल याचना करके ही शिष्य पा लेता है। गुरु कुम्हार शिष कुंभ है, गढि गढि काढैं खोट । अंतर हाथ सहार दै, बाहर बाहै चोट ।। संसारी जीवों को सन्मार्ग की ओर प्रेरित करते हुए भक्त शिरोमणि कबीरदास जी कह...

400+ कबीर दास के दोहे अर्थ सहित हिंदी में | Kabir Das Ke Dohe in Hindi

कवि कबीर दास का जन्म वर्ष 1440 में और मृत्यु वर्ष 1518 में हुई थी। कबीर एक बहुत बड़े अध्यात्मिक व्यक्ति थे जो कि साधू का जीवन व्यतीत करने लगे और उनके प्रभावशाली व्यक्तित्व के कारण उन्हें पूरी दुनिया की प्रसिद्धि प्राप्त हुई। कबीर शब्द का अर्थ इस्लाम के अनुसार महान होता है। कबीर हमेशा जीवन के कर्म में विश्वास करते थे। वह कभी भी अल्लाह और राम के बीच भेद नहीं करते थे। उनके द्वारा हमेशा अपने उपदेश में इस बात का जिक्र किया गया कि ये दोनों एक ही भगवान के दो अलग अलग नाम है। उन्होंने लोगों को उच्च जाति और नीच जाति या किसी भी धर्म को नकारते हुए भाईचारे के एक धर्म को मानने के लिए प्रेरित किया। कबीर दास ने अपने लेखन से भक्ति आन्दोलन को चलाया है। कबीर पंथ नामक एक धार्मिक समुदाय है, जो कबीर के अनुयायी है उनका ये मानना है कि उन्होंने संत कबीर सम्प्रदाय का निर्माण किया है। इस सम्प्रदाय के लोगों को कबीर पंथी कहा जाता है जो कि पूरे देश में फैले हुए हैं। संत कबीर के लिखे कुछ महान रचनाओं में बीजक, कबीर ग्रंथावली, अनुराग सागर, सखी ग्रंथ आदि है। Kabir Das Ke Dohe– गुरु-महिमा / कबीर दासके दोहे / Kabir Ke Dohe गुरु सो ज्ञान जु लीजिये, सीस दीजये दान। बहुतक भोंदू बहि गये, सखि जीव अभिमान॥१॥ भावार्थ: अपने सिर की भेंट देकर गुरु से ज्ञान प्राप्त करो | परन्तु यह सीख न मानकर और तन, धनादि का अभिमान धारण कर कितने ही गुरु की आज्ञा आवै, गुरु की आज्ञा जाय। कहैं कबीर सो संत हैं, आवागमन नशाय॥२॥ भावार्थ: व्यवहार में भी साधु को गुरु की आज्ञानुसार ही आना – जाना चाहिए | सद् गुरु कहते हैं कि संत वही है जो जन्म – मरण से पार होने के लिए साधना करता है | गुरु पारस को अन्तरो, जानत हैं सब सन्त। वह लोहा कंचन करे, ये करि लय...

ᐅ संत कबीर दास जी के प्रसिद्ध दोहे अर्थ सहित

4.7/5 - (8 votes) संत कबीर दास जी के प्रसिद्ध दोहे एक अनमोल धरोहर हैं जो हमें सत्य, नैतिकता, और आध्यात्मिकता की गहराई में ले जाते हैं। उनकी बातों में छिपे हुए अर्थ और संदेश हमारे जीवन में उजागर करते हैं और हमें सही मार्ग दिखाते हैं। इस ब्लॉग पोस्ट “ संत कबीर दास जी के प्रसिद्ध दोहे” में हम आपको संत कबीर दास जी के चुनिंदा दोहों की एक संग्रह प्रस्तुत करेंगे, जिनमें आपको उनके सबसे प्रसिद्ध और गहन वचनों का आनंद लेने का मौका मिलेगा। आप इस पोस्ट को पढ़कर न केवल एक महान आध्यात्मिक व्यक्तित्व के दर्शन करेंगे, बल्कि एक दृष्टिकोण भी प्राप्त करेंगे जो आपके जीवन को सकारात्मक रूप से प्रभावित करेगा। संत कबीर दास जी के बारे में: विषय जानकारी पूरा नाम संत कबीरदास उपनाम कबीरा, कबीरदास, कबीर परमेश्वर, कबीर साहेब जन्म सन 1440 जन्म स्थान लहरतारा, कशी, उत्तरप्रदेश, भारत मृत्यु सन 1518 मृत्यु स्थान मघर, उत्तरप्रदेश, भारत प्रसिद्धी कवी, संत धर्म इस्लाम रचना कबीर ग्रन्थावली, अनुराग सागर, सखी ग्रन्थ,बीजक संत कबीर दास जी के प्रसिद्ध दोहे [तूँ तूँ करता तूँ भया, मुझ मैं रही न हूँ। वारी फेरी बलि गई, जित देखौं तित तूँ ॥ /qu] अर्थ: इस दोहे में संत कबीर दास कहते हैं कि मैं और तू, दोनों एक ही हैं। तू तूं करता रहा, तो तूने अपने असली आत्मा को भुला दिया है और अब मुझमें रहता नहीं है। वार-परिवार के चक्कर में तू जीवन भर घूमता रहा, जितने जगह भी देखता था, वहां तू ही नजर आता था। इसलिए, संत कबीर दास कहते हैं कि हम सब अपने असली आत्मा में एक हैं और हमें इसको समझना चाहिए। [qu]मेरा मुझ में कुछ नहीं, जो कुछ है सो तेरा। तेरा तुझकौं सौंपता, क्या लागै है मेरा॥ अर्थ: इस दोहे में संत कबीर दास जी कहते हैं कि मैं अपना नहीं हूं...