लोहा जितना तपता है कविता

  1. लोहा


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लोहा

तुम्हारी प्रतीति चुम्बक की तरह है जिसको मेरे वृत्ताकार जीवन के केन्द्र में रख दिया गया है मैं स्वयं को लोहे की निर्मिति मानता हूँ परन्तु इस लोक में तुम जिससे भी पूछोगे वह इस काया को मिट्टी ही बतायेगा। मैं तुम्हारे मुख से सुनना चाहूँगा कि मिट्टी में इतना लौहा कहाँ से आया? तुम्हें यकीन नहीं आयेगा जब मैं तुम्हें बताऊंगा कि यह प्रेम में मिली यातनाओं का प्रतीक है जितना लौहा मिट्टी में धँसाया गया उतना ही रक्त में मिलाया गया। इस वृत्ताकार धुरी पर मैं परिधि पथ चुनता हूँ तो लौटकर अपने पास ही आ जाता हूँ जीवन को इस तरह क्यों रचा गया है कि जब तक मैं तुम्हारी त्रिज्या नाप पाता हूँ तब तक बहुत सा लौहा मेरी आँखों में धँस जाता है। तुम्हें अपनी ओर खींचने के लिए मुझे अभी और लोहा खाना होगा। जन्म दिनांक- 23.06.1985; जन्म स्थान- जयपहाड़ी, जिला-झुन्झुनूं( राजस्थान) सम्प्रति- राजस्व विभाग में कार्यरत पुस्तक- समय की नदी पर पुल नहीं होता (कविता - संग्रह) नष्ट नहीं होगा प्रेम ( कविता - संग्रह) मैं चाबियों से नहीं खुलता (काव्य संग्रह) ज़र्रे-ज़र्रे की ख़्वाहिश (ग़ज़ल संग्रह) मोबाइल नम्बर- 7726060287, 7062601038 ई मेल पता-