मानवाधिकार कमीशन एवं उनके महत्व का विस्तार से वर्णन कीजिए

  1. राजनीतिक समाजशास्त्र की प्रकृति एवं उनके क्षेत्र का वर्णन करें।
  2. मानव अधिकारों का सार्वभौम घोषणापत्र क्या है??
  3. प्राचीन भारतीय इतिहास के साहित्यिक स्रोत
  4. मानवाधिकार
  5. मानवाधिकार की परिभाषा
  6. प्रयोजनमूलक हिंदी
  7. महिलाओं का ‘प्रजनन अधिकार’ भी उनका ‘मानवाधिकार’ है


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राजनीतिक समाजशास्त्र की प्रकृति एवं उनके क्षेत्र का वर्णन करें।

राजनीतिक समाजशास्त्र की प्रकृति एवं उनके क्षेत्र का वर्णन करें। • राजनीतिक समाजशास्त्र के क्षेत्र के विभिन्न अंगों को समझाइए • राजनीतिक समाजशास्त्र पर एक निबंध लिखिए। • राजनीतिक समाजशास्त्र का अर्थ एवं परिभाषा बताइए राजनीतिक समाजशास्त्र राजनीति एक प्रक्रिया व अध्ययन शाखा के रूप में अत्यधिक प्राचीन धारणा या अनुशासन है। राजनीतिशास्त्र की बात करें तो अरस्तू कृत' पॉलिटिक्स', कौटिल्य द्वारा लिखित 'अर्थशास्त्र' राजनीतिशास्त्र से सम्बन्धित महानतम ग्रन्थ हैं जोकि प्रमाणित करते हैं कि राजनीतिशास्त्र के अध्ययन की परम्परा अति प्राचीन है, परन्तु कालान्तर में राज्य के क्षेत्र, जनसंख्या, कार्यों व उत्तरदायित्वों में अत्यधिक वृद्धि होती गयी जिस कारण राजनीतिशास्त्र के अध्ययन का केन्द्र बिन्दु महज राज्य व सरकार तक सीमित न रहा। इसके अन्तर्गत शक्ति, प्रभाव, सत्ता, विशिष्टजन, लोकमत एवं लोकव्यवहार, समुदाय, समितियाँ इत्यादि धारणाओं का समावेश हुआ। इस प्रकार सामाजिक प्रक्रियाओं के मध्य विभाजन समाप्त होने लगा। अतः समाजशास्त्र के प्रभाव के कारण जहाँ एक ओर राजनीतिशास्त्र का दृष्टिकोण और सन्दर्भ की सीमाओं का विस्तार हुआ, तो वहीं दूसरी ओर इसकी विषय वस्तु और चरित्र इतना परिवर्तित हो गये कि एक नवीन अध्ययन विषय के रूप में 'राजनीतिक समाजशास्त्र' का उदय हुआ। इस प्रकार राजनीतिक समाजशास्त्र राजनीति विज्ञान और समाजशास्त्र दोनों से सम्बन्धित है। अतः राजनीतिक समाजशास्त्र अत्यन्त महत्वपूर्ण व समकालीन अध्ययनशाखा अथवा उपागम है, इसके विविध पक्षों का विस्तृत विवेचन निम्नांकित शीर्षकों के अन्तर्गत किया जा सकता है: राजनीतिक समाजशास्त्र की परिभाषाएँ राजनीतिक समाजशास्त्र को विभिन्न विद्वानों ने भिन्न-भिन्न प्रकार से परि...

मानव अधिकारों का सार्वभौम घोषणापत्र क्या है??

Last Updated on December 16, 2022 by मानव अधिकारों का सार्वभौम घोषणापत्र क्या है?? इस आर्टिकल में हमने मानव अधिकारों से जुड़े सभी चीजों को विस्तार पूर्वक समझाया है। क्योकि हम में से कई ऐसे लोग है जो मानव अधिकारों से तो वाकिफ है लेकिन उनके घोषणापत्र और बनावट से अनभिग्न है। इसलिए हमने इस आर्टिकल में मानव अधिकारों का सार्वभौम घोषणापत्र को विस्तार से वर्णन किया है। तो आइये बिना किसी देरी के जानते है मानव अधिकारों को। Table of Contents • • • • • • • • • मानव अधिकारों का सार्वभौम घोषणापत्र क्या है?? दुनिया में सभी मनुष्यों के लिए समान अधिकार सुनिश्चित करने के लिए, आयोग को पहले प्राधिकरण पर एक अंतरराष्ट्रीय लेख तैयार करने के लिए कहा गया था। दो साल की कड़ी मेहनत के बाद मानवाधिकार आयोग ने एक मानवाधिकार लेख तैयार किया जिसे 7 दिसंबर 1948 को महासभा की सामाजिक समिति ने स्वीकार कर लिया। महासभा ने 10 दिसंबर, 1948 को मानवाधिकारों की घोषणा की। मानवाधिकारों को अपनाने में 58 देशों के प्रतिनिधियों ने इसे स्वीकार किया और 8 राज्यों ने परहेज किया। प्रत्येक देश से यह अपेक्षा की जाती है कि वह अपने नागरिकों को ये अधिकार प्रदान करे। 10 दिसंबर दुनिया भर में मानवाधिकार दिवस है। मानवाधिकार आयोग अभी भी आर्थिक और सामाजिक परिषद के एक सहायक निकाय के रूप में कार्य करता है और पूरे देश में इन अधिकारों को लागू करने का प्रयास करता है। मानवाधिकारों की घोषणा में एक प्रस्तावना और 30 लेख हैं। प्रस्तावना में मनुष्य की प्रतिष्ठा और मूल्य पर अधिक बल दिया गया है। नागरिक और राजनीतिक अधिकार। आर्थिक, सामाजिक और सांस्कृतिक अधिकार। सामाजिक और अंतर्राष्ट्रीय व्यवस्था। Read Also: नागरिक और राजनीतिक अधिकार- मानवाधिकारों की सार...

प्राचीन भारतीय इतिहास के साहित्यिक स्रोत

• • • • • • • • • • • • • • • भारतवर्ष का प्राचीन इतिहास अत्यंत गौरवपूर्ण रहा है। परन्तु दुर्भाग्यवश हमें अपने प्राचीन इतिहास के पुनर्निर्माण के लिए उपयोगी सामग्री बहुत कम मिलती है। प्राचीन भारतीय साहित्य में ऐसे ग्रंथो का प्रायः अभाव-सा है जिन्हें आधुनिक परिभाषा में “इतिहास” की संज्ञा दी जाती है। पुरातत्ववेत्ताओं ने अतीत के खण्डहरों से अनेक ऐसी वस्तुएं खोज निकाली है जो हमें प्राचीन इतिहास- सम्बन्धी बहुमूल्य सूचनाएं प्रदान करती है। अतः हम सुविधा के लिए भारतीय इतिहास जानने के साधनों को तीन शीर्षकों में रख सकते है- • साहित्यिक साधन (Literary Sources) • पुरातत्विक साधन (Archeological Sources) • विदेशी यात्रियों के विवरण (Foreign Accounts) भारतीय साहित्य कुछ अंश तक धार्मिक है और कुछ अंश तक लौकिक है। इसलिए साहित्यिक साधन को दो भागों में बांटा गया है- • धार्मिक साहित्य (Religious Literature) • लौकिक साहित्य (Cosmic Literature) धार्मिक साहित्य में ब्राह्मण ग्रन्थ और ब्राह्मणेत्तर ग्रंथों की चर्चा की जा सकती है। जबकि ब्राह्मणेत्तर ग्रंथों में जैन साहित्य और बौद्ध साहित्य आते है। इसी प्रकार लौकिक साहित्य में ऐतिहासिक ग्रंथों, जीवनियाँ, कल्पना प्रधान साहित्य का वर्णन किया जाता है। धार्मिक साहित्य धार्मिक साहित्य में ब्राह्मण ग्रन्थ और ब्राह्मणेत्तर ग्रंथों की चर्चा की जा सकती है। ब्राह्मण ग्रन्थ ब्राह्मण ग्रन्थ में वेद, ब्राह्मण, आरण्यक, उपनिषद्, वेदांग, सूत्र, महाकाव्य, पुराण और स्मृति ग्रन्थ आते है। वेद (Veda) वेदों के बाद संस्कृत साहित्य के महान काव्यों में रामायण और महाभारत का नाम आता है। वेदों को समझने वाले कम लोग थे लेकिन ये महाकाव्य सभी के लिए रोचक थे। इन महाकाव्यों से उस युग...

मानवाधिकार

अनुक्रम • 1 इतिहास • 2 सन्दर्भ • 3 इन्हेंभीदेखें • 4 बाहरीकड़ियाँ इतिहास [ ] अनेक प्राचीन दस्तावेजों एवं बाद के धार्मिक और दार्शनिक पुस्तकों में ऐसी अनेक अवधारणाएं है जिन्हें मानवाधिकार के रूप में चिन्हित किया जा सकता है। ऐसे प्रलेखों में उल्लेखनीय हैं अशोक के आदेश पत्र, श्री राम द्वारा निर्मित अयोध्या का संविधान (राम राज्य) आदि। आधुनिक मानवाधिकार कानून तथा मानवाधिकार की अधिकांश अपेक्षाकृत व्यवस्थाएं समसामयिक इतिहास से संबंध हैं। द ट्वेल्व आर्टिकल्स ऑफ़ द ब्लैक फॉरेस्ट (1525) को यूरोप में मानवाधिकारों का सर्वप्रथम दस्तावेज़ माना जाता है। यह जर्मनी के किसान - विद्रोह (Peasants' War) स्वाबियन संघ के समक्ष उठाई गई किसानों की मांग का ही एक हिस्सा है। ब्रिटिश बिल ऑफ़ राइट्स ने युनाइटेड किंगडम में सिलसिलेवार तरीके से सरकारी दमनकारी कार्रवाइयों को अवैध करार दिया. 1776 में संयुक्त राज्य में और 1789 में फ्रांस में 18 वीं शताब्दी के दौरान दो प्रमुख क्रांतियां घटीं. जिसके फलस्वरूप क्रमशः संयुक्त राज्य की स्वतंत्रता की घोषणा एवं फ्रांसीसी मनुष्य की मानव तथा नागरिकों के अधिकारों की घोषणा का अभिग्रहण हुआ। इन दोनों क्रांतियों ने ही कुछ निश्चित कानूनी अधिकार की स्थापना की। "मानवाधिकारों" को लेकर अक्सर विवाद बना रहता है। ये समझ पाना मुश्किल हो जाता है कि क्या वाकई में मानवाधिकारों की सार्थकता है। यह कितना दुर्भाग्यपू्‌र्ण है कि तमाम प्रादेशिक, राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर सरकारी और गैर सरकारी मानवाधिकार संगठनों के बावजूद मानवाधिकारों का परिदृश्य तमाम तरह की विसंगतियों और विद्रूपताओं से भरा पड़ा है। किसी भी इंसान की जिंदगी, आजादी, बराबरी और सम्मान का अधिकार है मानवाधिकार है। भारतीय सं...

मानवाधिकार की परिभाषा

मानव अधिकारों को कभी-कभी मौलिक, मूल या नैसर्गिक अधिकार भी कहते हैं क्योंकि यह वह अधिकार है जिन्हें किसी विधायनी या सरकार के किसी कृत्य द्वारा छीना नहीं जा सकता है तथा बहुधा उनका वर्णन या उल्लेख संविधान में किया जाता है। नैसर्गिक अधिकारों के रूप में उन्हें ऐसे अधिकारों के रूप में देखा जाता है जो प्रकृति से ही पुरुषों एवं महिलाओं के हैं। उनका वर्णन ‘सामान्य अधिकारों’ (Common rights) जो विश्व के पुरुष एवं महिलाओं के समान रूप से उसी प्रकार होंगे जैसे उदाहरण के लिए इंग्लैण्ड की कामन विधि (Common Law) जो स्थानीय प्रथाओं से भिन्न ऐसे नियमों तथा प्रथाओं का समूह है जो पूरे देश को नियंत्रित करता है या उस पर लागू होता है। चूंकि मानव अधिकारों को किसी विधायनी ने निर्मित नहीं किया है, वह बहुत कुछ नैसर्गिक अधिकारों से मिलते हैं या उसके समान हैं। सभी सभ्य देश या संयुक्त राष्ट्र जैसी संस्था या निकाय उन्हें मान्यता देती है या स्वीकार करती है। उन्हें संशोधन की प्रक्रिया के अधीन भी नहीं किया जा सकता है। मानवीय अधिकारों के संरक्षण के विधिक कर्त्तव्य में उनका सम्मान करने का कर्त्तव्य भी सम्मिलित है। मेरी रोबिन्सन के अनुसार-“प्रत्येक व्यक्ति को उसकी मौलिक स्वतंत्रताओं की संरक्षा एवं उसके प्राप्त करने के व्यक्तिगत एवं सामूहिक रूप से राष्ट्रीय अथवा अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर प्राप्त अधिकार मानवाधिकार कहलाते हैं।” • मानवाधिकार का अर्थ Meaning of Human rights in Hindi मानवाधिकार की आवश्यकता एवं महत्व- मानव अधिकार के महत्व का आकलन इस बात से किया जा सकता है कि द्वितीय विश्व युद्ध के समाप्त होने के पश्चात् जब 1945 में संयुक्त राष्ट्र संघ की स्थापना हुई तो मानवाधिकार के सम्वर्द्धन और संरक्षण को इसने अपने प...

प्रयोजनमूलक हिंदी

प्रश्न 1: वर्तमान समय में प्रयोजनमूलक हिन्दी की आवश्यकता एवं उपयोगिता पर अपने विचार प्रस्तुत कीजिए। अथवा ‘’ प्रयोजनमूलक हिन्दी का अर्थ समझाते हुए उसके स्वरूप , उद्देश्य एवं महत्व पर विचार कीजिए। अथवा ‘’ प्रयोजनमूलक हिन्दी का अर्थ स्पष्ट कस्ते हुए इसके स्वरूप पर प्रकाश डालिए। अथवा ‘’ प्रयोजनमूलक हिन्दी की प्रयुक्तियों का परिचय दीजिए। अथवा ‘’ प्रयोजनमूलक हिन्दी का अर्थबोध स्पष्ट करते हुए इसके विकास की मीमांसा कीजिए। अथवा ‘’ प्रयोजनमूलक हिन्दी से क्या अभिप्राय है ? प्रयोजनमूलक हिन्दी का स्वरूप सृजनात्मक स्थितियों से गुजर रहा है। समीक्षा कीजिए। उत्तर - प्रयोजनमूलक हिन्दी शब्द का आशय हिन्दी के सर्वाधिक व्यावहारिक एवं सम्पर्क स्वरूप से है जो जनमानस के अनुकूल और जनव्यवहार के लिए सर्वथा सक्षम है। प्रयोजनमूलक हिन्दी को अंग्रेजी में 'Functional Hindi' कहा जाता है। हिन्दी की पहचान साहित्य , कविता , कहानी तक ही सीमित नहीं है। आज वह ज्ञान - विज्ञान की सोच को अभिव्यक्त करने का सक्षम समर्थ साधन भी बन चुकी है। इस प्रकार बहुआयामी प्रयोजनों की अभिव्यक्ति में सक्षम , व्यावहारिक एवं प्रशासनिक हिन्दी का स्वरूप ही प्रयोजनमूलक हिन्दी है। अतः कार्यालयों में प्रयुक्त होने वाली हिन्दी ही प्रयोजनमूलक हिन्दी है। इसका दूसरा नाम व्यावहारिक हिन्दी भी है। डॉ . मोटूरि सत्यनारायण की मान्यता है - “ जीवन की जरूरत की पूर्ति के लिए उपयोग में लाई जाने वाली हिन्दी ही प्रयोजनमूलक हिन्दी है। " वहीं डॉ . बापूराव देसाई की मान्यता है - “ साहित्यिक भाषा सिद्धान्त प्रस्तुत करती है तो प्रयोजनमूलक हिन्दी प्रत्यक्ष व्यवहार । " डॉ . विनोद गोदरे के अनुसार , “ जीवन - जगत् की विभिन्न आवश्यकताओं अथवा लोक व्यवहार , उच्च शिक्षा ...

महिलाओं का ‘प्रजनन अधिकार’ भी उनका ‘मानवाधिकार’ है

महिलाओं से जुड़े प्रजनन अधिकारों को अक्सर केवल बच्चे पैदा करने के अधिकार के संदर्भ में देखा जाता है जबकि इसका स्वरूप इससे कहीं अधिक व्यापक है। पहले के समय में महिला के शरीर और उसमें होने वाले बदलावों को गोपनीय रखा जाता था। पीरियड्स पर तो आज भी समाज खुलकर बात करने को तैयार नहीं होता। अगर किसी महिला की पीरियड्स से संबंधित परेशानी को उसकी शादी से पहले ससुराल वालों से छुपाया जाए तो वह अपराध है। वहीं दूसरी तरफ इसे अपराध कहने वाले लोग खुलकर पीरियड्स पर बात करना संस्कृति के खिलाफ मानते हैं। प्रजनन अधिकारों के लिए लड़ाई की शुरुआत नारीवादी आंदोलन की दूसरी लहर के दौरान हुई। जब यह बात साफतौर पर उजागर होने लगी कि कई सारे राजनीतिक, आर्थिक, सांस्कृतिक और सामाजिक कारक मिलकर औरतों के स्वास्थ्य पर प्रभाव डाल रहे थे और पारंपरिक समाज ने औरत के जीवन से जुड़े हर पहलू को जंजीरों में बांधने की कोशिश में लगा हुआ है। नारीवाद की दूसरी लहर की शुरुआत 1960 के दशक में हुई जो लगभग दो दशक तक चली। इसका उद्देश्य लैगिंक समानता को बल देना था। जहां नारीवाद की पहली लहर मुख्य रूप से वोटिंग अधिकार और प्रॉपर्टी के अधिकार के लिए समानता के रास्ते में आने वाली कानूनी बाधाएं पार करने पर केंद्रित थी। वहीं, दूसरी लहर में बहस का दायरा बढ़ा और इसमें परिवार में महिलाओं के भेदभाव, कार्यस्थल पर शोषण, प्रजनन अधिकार जैसे मुद्दों को प्राथमिकता दी गई। इसी के साथ घरेलू हिंसा और वैवाहिक बलात्कार के कई मुद्दे भी उभरकर सामने आए। प्रजनन अधिकारों के संबंध में रेडिकल नारीवाद का कहना है कि महिलाओं को मां बनने के लिए मजबूर किया जाता है। पितृसत्ता और पढ़ें: प्रजनन भूमिका पर राज्य का हस्तक्षेप भारत जब आज़ाद हुआ तो उसके विकास के रास्ते में...