नवधा एवं अवतारवाद …… की विशेषताएं हैं।

  1. अवतारवाद
  2. मूल्यांकन का अर्थ, परिभाषा, विशेषताएं
  3. भारतीय संस्कृति की विशेषताएं
  4. नवधा भक्ति
  5. सृजनात्मकता का अर्थ, परिभाषा, विशेषताएं, तत्व एवं सिद्धांत
  6. नवधा भक्ति क्या है?
  7. असामान्य मनोविज्ञान/मनोव्यधिकीय क्या हैं? परिभाषा, विशेषताएं
  8. भक्तिकाल की विशेषताएँ


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अवतारवाद

अनुक्रम • 1 हिंदू धर्म में अवतारवाद • 1.1 नैतिक संतुलन • 2 बौद्ध तथा अन्य धर्म (पारसी, सामी, मिस्री, यहूदी, यूनानी, इसलाम) • 3 ईसाई धर्म • 4 सन्दर्भ • 5 सन्दर्भ ग्रन्थ • 6 इन्हें भी देखें हिंदू धर्म में अवतारवाद [ ] अवतारवाद की नैतिक संतुलन [ ] 'ऋत' की स्थिति रहने पर ही जगत की प्रतिष्ठा बनी रहती है और इस संतुलन के अभाव में जगत् का विनाश अवश्यंभावी है। सृष्टि के रक्षक भगवान इस संतुलन की सुव्यवस्था में सदैव दत्तचित्त रहते हैं। 'ऋत' के स्थान पर 'अनृत' की, धर्म के स्थान पर अधर्म की जब कभी प्रबलता होती है, तब भगवान का अवतार होता है। साधु का परित्राण, दुर्जन का विनाश, अधर्म का नाश तथा धर्म की स्थापना इस महनीय उद्देश्य की पूर्ति के लिए भगवान अवतार धारण कहते हैं। परित्राणाय साधूनां विनाशाय च दुष्टकृताम्। धर्मसंस्थापनार्थाय संभवामि युगे युगे।। परंतु ये उद्देश्य भी अवतार के लिए गौण रूप ही माने जाते हैं। अवतार का मुख्य प्रयोजन इससे सर्वथा भिन्न है। सर्वैश्यर्वसंपन्न, अपराधीन, कर्मकालादिकों के नियामक तथा सर्वनिरपेक्ष भगवान के लिए दुष्टदलन और शिष्टरक्षण का कार्य तो इतर साधनों से भी सिद्ध हो सकता है, तब भगवान के अवतार का मुख्य प्रयोजन श्रीमद्भागवत (१०.२९.१४) के अनुसार कुछ दूसरा ही है: नृणां नि:श्रेयसार्थाय व्यक्तिर्भगवती भुवि। अव्ययस्याप्रमेयस्य निर्गुणास्य गुणात्मन:।। मानवों को साधन निरपेक्ष मुक्ति का दान ही भगवान के प्राकट्य का जागरूक प्रयोजन है। भगवान स्वत: अपने लीलाविलास से, अपने अनुग्रह से, साधकों को बिना किसी साधना की अपेक्षा रखते हुए, मुक्ति प्रदान करते हैं-अवतार का यही मौलिक तथा प्रधान उद्देश्य है। भागवत के अनुसार सत्वनिधि हरि के अवतारों की गणना नहीं की जा सकती। जिस प्रकार न सूख...

मूल्यांकन का अर्थ, परिभाषा, विशेषताएं

मूल्यांकन का अर्थ (mulyankan kise kahate hai) mulyankan ka arth paribhasha visheshtayen;मूल्यांकन से अर्जित ज्ञान समझ कौशल और संशोधित व्यवहार की परख की जाती हैं। डाॅ. रामसकर पाण्डेय के अनुसार," बालक ने कितना ज्ञान अर्जित कर लिया तथा कितना अभी अर्जित करना हैं, उसके व्यवहार में कितना संशोधन हुआ हैं और अभी कितना शेष हैं? आदि बातें बालक के अर्जित ज्ञान एवं व्यवहार की जाँच करके ही ज्ञात की जा सकती हैं। इस प्रकार अर्जित ज्ञान तथा संशोधित व्यवहार की परख करने की प्रक्रिया को मूल्यांकन के नाम से संबोधित किया जाता हैं। यद्यपि मूल्यांकन में ज्ञानार्जन की वस्तुनिष्ठता तथा व्यवहारारिकता पर अधिक बल देने की परम्परा हैं तथापि वर्तमान शैक्षिक परिवेश में मूल्यांकन का आशय शिक्षा के लिये निर्धारित उद्देश्यों के अनुसार विद्यार्थी के व्यक्तित्व के विविध पक्षों से सम्बद्ध सतत् व्यापक मूल्यांकन से हैं। परम्परागत परीक्षायें तथा परीक्षण को अनेक दृष्टियों से दोषपूर्ण माना गया और इसके दोषों से मुक्त होने के वर्तमान समय में परीक्षण के संदर्भ में प्रयुक्त 'मूल्यांकन' शब्द का प्रचलन शिक्षा-जगत् में खूब हुआ। यह मूल्यांकन क्या हैं? प्रचलित परीक्षण और उसकी विधियों से किस प्रकार भिन्न हैं? ये महत्वपूर्ण प्रश्न सहज ही उठते हैं? वास्तव में प्रचलित परीक्षायें केवल एक ही समाधान दे रही हैं कि किसी विशेष समय में परीक्षार्थी की बौद्धिक क्षमता की स्थिति क्या हैं? इस प्रकार यह एकपक्षीय और एक-उद्देश्यीय व्यवस्था है जो बालक के सर्वांगीण विकास के दायित्व से न जुड़कर शिक्षा के उद्देश्यों एवं क्षेत्रों को संकुचित कर देती हैं। मूल्यांकन में परीक्षार्थी की बौद्धिक स्थिति का आकलन करने के साथ और भी बहुत-सी बातें विचारणीय होत...

भारतीय संस्कृति की विशेषताएं

भारतीय संस्कृति की प्रमुख विशेषताओं का वर्णन करें ? • प्राचीन भारतीय संस्कृति के मूलभूत तत्त्व जो आज से हजारों वर्ष पूर्व तक भारतीय संस्कृति के महत्त्वपूर्ण अंग थे आज भी किसी न किसी रूप में भारतीय संस्कृति में विद्यमान है और भारतीय संस्कृति की इन्ही विशेषताओं को ध्यान में रखकरभारतीय प्राचीन भारत की परिस्थिति का आकलन कर सकते हैं। • भारतीय संस्कृति में में धर्म , अध्यात्मवाद , ललितकला ज्ञान , विज्ञान , विविध विद्याए , नीति , विधि-विधान , जीवन प्रणालियां और वे समस्त क्रियाएं और कार्य है जो उसे विशिष्ट बनाते हैं और जिन्होंने भारतीय के सामाजिक और राजनैतिक विचारों को , धार्मिक और आर्थिक जीवन को साहित्यक , शिष्टाचार और नैतिकता में ढाला है।" इस प्रकार भारतीय संस्कृति की निम्नलिखित विशेषताएं हैं- 1 प्राचीनता • भारतीय संस्कृति विश्व की प्राचीनतम में मानी जाती है। विश्व की अनेक संस्कृतियां मिश्र , असीरिया , बेबीलोनिया , क्रीट , यूनान आदि संस्कृतियां समय के साथ नष्ट होती गई। आज इन प्राचीन संस्कृतियों का नाम लेने वाला कोई नहीं बचा है लेकिन भारत की संस्कृति आज भी भारतीय संस्कृति की प्राचीनता वेदों की प्रामाणिकता , महावीर स्वामी एवं गौतम बुद्ध का अहिंसा एवं शान्ति का देवी-देवता , समाज , संस्कार आदि भारतीय संस्कृति में देखे जा सकते हैं। • मद्रास के निकट पल्लवरम , चिंगलपेट , वैल्लौर , सोहनघाटी के क्षेत्र , उत्तर प्रदेश के मिर्जापुर के रिहन्द क्षेत्र मध्य प्रदेश आदि स्थानों से पाषाणकालीन संस्कृति के अवशेष मिले हैं तथा हड़प्पा , मोहनजोदड़ो आदि स्थानों की खुदाई से लगभग 3200 ई.पू. की प्राचीन सभ्यता एवं संस्कृति का पता है निरकार भारतीय संस्कृति लगभग 5200 वर्ष पुरानी हैं। 2. निरन्तरता • भारतीय सं...

नवधा भक्ति

प्राचीन शास्त्रों में भक्ति के 9 प्रकार बताए गए हैं जिसे नवधा भक्ति कहते हैं - श्रवणं कीर्तनं विष्णोः स्मरणं पादसेवनम्। अर्चनं वन्दनं दास्यं सख्यमात्मनिवेदनम् ॥ श्रवण (परीक्षित), कीर्तन (शुकदेव), स्मरण (प्रह्लाद), पादसेवन (लक्ष्मी), अर्चन (पृथुराजा), वंदन (अक्रूर), दास्य (हनुमान), सख्य (अर्जुन) और आत्मनिवेदन (बलि राजा) - इन्हें नवधा भक्ति कहते हैं। श्रवण: ईश्वर की लीला, कथा, महत्व, शक्ति, स्रोत इत्यादि को परम श्रद्धा सहित अतृप्त मन से निरंतर सुनना। कीर्तन: ईश्वर के गुण, चरित्र, नाम, पराक्रम आदि का आनंद एवं उत्साह के साथ कीर्तन करना। स्मरण: निरंतर अनन्य भाव से परमेश्वर का स्मरण करना, उनके महात्म्य और शक्ति का स्मरण कर उस पर मुग्ध होना। पाद सेवन: ईश्वर के चरणों का आश्रय लेना और उन्हीं को अपना सर्वस्व समझना। अर्चन: मन, वचन और कर्म द्वारा पवित्र सामग्री से ईश्वर के चरणों का पूजन करना। वंदन: भगवान की मूर्ति को अथवा भगवान के अंश रूप में व्याप्त भक्तजन, आचार्य, ब्राह्मण, गुरूजन, माता-पिता आदि को परम आदर सत्कार के साथ पवित्र भाव से दास्य: ईश्वर को स्वामी और अपने को दास समझकर परम श्रद्धा के साथ सेवा करना। सख्य: ईश्वर को ही अपना परम मित्र समझकर अपना सर्वस्व उसे समर्पण कर देना तथा सच्चे भाव से अपने पाप पुण्य का निवेदन करना। [ ] भगवान् श्रीराम जब भक्तिमती शबरीजी के आश्रम में आते हैं तो भावमयी शबरीजी उनका स्वागत करती हैं, उनके श्रीचरणों को पखारती हैं, उन्हें आसन पर बैठाती हैं और उन्हें रसभरे कन्द-मूल-फल लाकर अर्पित करती हैं। प्रभु बार-बार उन फलों के स्वाद की सराहना करते हुए आनन्दपूर्वक उनका आस्वादन करते हैं। इसके पश्चात् भगवान राम शबरीजी के समक्ष नवधा भक्ति का स्वरूप प्रकट करते हुए उनस...

सृजनात्मकता का अर्थ, परिभाषा, विशेषताएं, तत्व एवं सिद्धांत

सृजनात्मकता का सामान्य अर्थ है सृजन अथवा रचना करने की योग्यता। मनोविज्ञान में सृजनात्मकता से तात्पर्य मनुष्य के उस गुण, योग्यता अथवा शक्ति से होता है जिसके द्वारा वह कुछ नया सृजन करता है। जेम्स ड्रेवर के अनुसार-’’सृजनात्मकता नवीन रचना अथवा उत्पादन में अनिवार्य रूप से पाई जाती है।’’ क्रो व क्रो के अनुसार-’’सृजनात्मकता मौलिक परिणामों को अभिव्यक्त करने की मानसिक प्रक्रिया है।’’ कोल एवं ब्रूस के अनुसार-’’सृजनात्मकता एक मौलिक उत्पाद के रूप में मानव मन की ग्रहण करने, अभिव्यक्त करने और गुणांकन करने की योग्यता एवं क्रिया है।’’ ई0 पी0 टॉरेन्स (1965) के अनुसार-’’सृजनषील चिन्तन अन्तरालों, त्रुटियों, अप्राप्त तथा अलभ्य तत्वों को समझने, उनके सम्बन्ध में परिकल्पनाएं बनाने और अनुमान लगाने, परिकल्पनाओं का परीक्षण करने, परिणामों को अन्य तक पहुचानें तथा परिकल्पनाओं का पुनर्परीक्षण करके सुधार करने की प्रक्रिया है।’’ उपर्युक्त परिभाशाओं से स्पश्ट होता है कि- • सृजनात्मकता नवीन रचना करना है। • सृजनात्मकता मौलिक परिणामों को प्रदर्षित करना है। • सृजनात्मकता किसी समस्या के समाधान हेतु परिकल्पनाओं का निर्माण एवं पुनर्परीक्षण करके सुधार करने की योग्यता है। • सृजनात्मकता मानव की स्वतंत्र अभिव्यक्ति में विद्यमान रहती है। सृजनात्मकता की प्रकृति एवं विशेषताएं • सृजनात्मकता सार्वभौमिक होती है। प्रत्येक व्यक्ति में सृजनात्मकता का गुण कुछ न कुछ अवश्य विद्यमान रहता है। • सृजनात्मकता का गुण ईश्वर द्वारा प्रदत्त होता है परन्तु शिक्षा एवं उचित वातावरण के द्वारा सृजनात्मक योग्यता का विकास किया जा सकता है। • सृजनात्मकता एक बाध्य प्रक्रिया नहीं है, इसमें व्यक्ति को इच्छित कार्य प्रणाली को चुनने की पूर्ण रूप से स...

नवधा भक्ति क्या है?

व्यक्ति अपने जीवन में कई प्रकार की भक्ति करता है। जैसे देश भक्ति, मातृ (माता)-पितृ भक्ति, देव भक्ति, गुरु भक्ति, ईश्वर भक्ति इत्यादि। इनमें से, ईश्वर भक्ति के अंतर्गत नवधा भक्ति आती है।‘नवधा’ का अर्थ है‘नौ प्रकार से या नौ भेद’। अतः‘नवधा भक्ति’ यानी‘नौ प्रकार से भक्ति’। इस भक्ति का विधिवत पालन करने से भक्त नवधा भक्ति दो युगों में दो लोगों द्वारा कही गई है। सतयुग में, प्रह्लाद ने पिता हिरण्यकशिपु से कहा था। फिर त्रेतायुग में, हिरण्यकशिपुरुवाच- प्रह्रादानूच्यतां तात स्वधीतं किञ्चिदुत्तमम्। कालेनैतावतायुष्मन्यदशिक्षद्गुरोर्भवान्॥ - भागवत पुराण ७.५.२२ अर्थात् :- हिरण्यकशिपु ने कहा - बेटा प्रह्राद! इतने दिनों में तुमने गुरु जी से जो शिक्षा प्राप्त की है, उनमें से कोई अच्छी-सी बात हमें सुनाओ। श्रीप्रह्राद उवाच- श्रवणं कीर्तनं विष्णोः स्मरणं पादसेवनम्। अर्चनं वन्दनं दास्यं सख्यमात्मनिवेदनम्॥ इति पुंसार्पिता विष्णौ भक्तिश्चेन्नवलक्षणा। क्रियेत भगवत्यद्धा तन्मन्येऽधीतमुत्तमम्॥ - भागवत पुराण ७.५.२३-२५ अर्थात् :- तब प्रह्लाद जी ने कहा - पिताश्री! विष्णु भगवान की भक्ति में नौ भेद है - भगवान के गुण-लीला आदि का श्रवण, कीर्तन, रूप-नाम आदि का स्मरण, उनके चरणों की सेवा (पाद सेवन), पूजा-अर्चन, वन्दन, दास्य, सख्य और आत्मनिवेदन। यदि भगवान के प्रति समर्पण के भाव से यह नौ प्रकार की भक्ति की जाय, तो मैं उसी को उत्तम अध्ययन समझता हूँ। नवधा भक्ति • श्रवण :- भगवत विषय (भगवान से संबंधित ज्ञान की बातें, उनके के नाम, गुण, लीला, धाम, इत्यादि) सुनना‘श्रवण’ भक्ति है। • कीर्तन :- भगवान के नाम, लीला, गुणों का गान ‘कीर्तन’ भक्ति है। • स्मरण :- मन से भगवान के रूप, लीला आदि का स्मरण करना‘स्मरण’ भक्ति है। • चरण...

असामान्य मनोविज्ञान/मनोव्यधिकीय क्या हैं? परिभाषा, विशेषताएं

प्रश्न; मनोव्याधिकी या मनोरोग विज्ञान किसे कहते हैं? अथवा" मनोव्याधिकी या असामान्य मनोविज्ञान को परिभाषित किजिए। अथवा," असामान्य मनोविज्ञान से क्या आशय हैं? असामान्य मनोविज्ञान को परिभाषित किजिए। अथवा" मनोव्याधिकीय या असामान्य व्यवहार की विशेषताओं पर प्रकाश डालिए। उत्तर-- असामान्य मनोविज्ञान पर विचार करते समय स्वाभाविक रूप से प्रश्न उठ खड़ा होता है कि असामान्य (Abnormality) क्या है और मनोविज्ञान क्या है? दूसरे प्रश्न का उत्तर तो सामान्य मनोविज्ञान के अन्तर्गत दिया जा चुका है; किन्तु असामान्यता के सम्बन्ध में युगों से विवाद चलता आ रहा है। इस विवाद पर विचार करने से उचित है कि एक वाक्य मे यह कह दिया जाए कि सामान्य मनोविज्ञान भी मनोविज्ञान की अन्य शाखाओं की तरह एक विधायक या समर्थक विज्ञान (Positive Science) है जो जीव के असामान्य एवं विचित्र व्यवहारों का अध्ययन नियत्रित अवस्था में करता है। असामान्य मनोविज्ञान या मनोव्यधिकीय क्या हैं? (asamanya manovigyan kise kahte hai) असामान्य मनोविज्ञान मानव व्यवहार के विचलनों और विकारों का क्रमबद्ध अध्ययन करता हैं। काॅलमैने ने अपनी पुस्तक 'Abnormal Psychology and modern life' की प्रवेश पंक्तियों में लिखा हैं कि 17 वीं शताब्दी उद् बोधन (Enlightment) का युग, 18वीं शताब्दी तर्क का युग, 19 वीं शताब्दी प्रगति का युग तथा 20वीं शताब्दी चिन्ता का युग हैं। असामान्य मनोविज्ञान, मनोविज्ञान की वह शाखा है जिसके अन्तर्गत असामान्य व्यवहार के व्यक्तियों का वैज्ञानिक रूप से अध्ययन किया जाता हैं। असामान्य मनोविज्ञान को अंग्रेजी में Abnormal Psychology कहते हैं। abnoraml की व्युत्पत्ति anomelas (एनोमिलस) शब्द से हुई है। जो दो शब्दों Ano+melas से मिलकर बना है ...

भक्तिकाल की विशेषताएँ

यद्यपि अन्य युगों की भाँति भक्ति-काल में भी भक्ति-काव्य के साथ-साथ अन्य प्रकार की रचनाएँ होती रहीं, तथापि प्रधानता भक्तिपरक रचनाओं की ही रही। इसलिए भक्ति की प्रधानता के कारण चौदहवीं शती के मध्य से लेकर सत्रहवीं शती के मध्य तक के काल को 'भक्ति-काल' कहना सर्वथा युक्तियुक्त है। भक्तिकाल सम्वत 1375 से प्रारंभ होकर सम्वत 1700 तक समाप्त हुआ। वीरगाथाकाल की युद्ध विभीषिका से त्रस्त मानव हृदय शांति की खोज में भटकने लगा। लगातार मुस्लिम शासकों के आक्रमण के कारण देशी राज्य शक्तियाँ पराभूत होती गई। जनता को कष्ट एवं विषम परिस्थितियों का सामना करना पड़ा। मंदिरों में मूर्तियों को तोड़ा गया, धर्मग्रन्थ जलाए गए। ऐसी स्थिति में जनता के सामने भगवान को पुकारने के अतिरिक्त कोई अन्य साधन न था। फलतः देश में ईश्वर भक्ति की लहर दौड़ने लगी। कबीर, तुलसी, सूर, मीरा, जायसी जैसे महान कवि हमें विरासत के रूप में प्राप्त हुए। यदि भक्तिकाल को विभाजित किया जाए तो हमारे समक्ष दो प्रमुख शाखा उभर कर सामने आते हैं जो निम्न प्रकार से हैं:- 1:-निर्गुण काव्यधारा (अ):-ज्ञानमार्गी शाखा (ब):-प्रेममार्गी शाखा 2:- सगुण काव्यधारा (अ):-रामभक्ति शाखा (ब):- कृष्णभक्ति शाखा 1:-भक्तिकालीन ज्ञानमार्गी निर्गुण शाखा:- भक्ति की इस शाखा में केवल ज्ञान-प्रधान निराकार ब्रह्म की उपासना की प्रधानता है। इसमें प्रायः मुक्तक काव्य रचे गये। दोहा और पद आदि स्फुट छंदों का प्रयोग हुआ है। भाषा खिचड़ी एवं सधुक्कड़ी है। प्रमुख रस शांत रस है। इस काल के प्रमुख कवि व उनकी रचनाएँ निम्न हैं:- प्रमुख कवि रचनाएँ कबीरदास बीजक (साखी,सबद,रमैनी) दादू दयाल साखी, पद रैदास पद गुरु नानक गुरु ग्रन्थ साहब में महला 2:-भक्तिकालीन प्रेममार्गी निर्गुण शाखा:- इस शाखा में...