राजमहल नाटक

  1. Read and Update: उर्दू ड्रामों का इतिहास राजमहल में पैदा हुआ उर्दू ड्रामा
  2. लहरों के राजहंस
  3. सौतेली माँ : पंजाब की लोक
  4. राजेश कुमार का नाटक : कह रैदास खलास चमारा (अंतिम भाग)


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Read and Update: उर्दू ड्रामों का इतिहास राजमहल में पैदा हुआ उर्दू ड्रामा

उर्दू नाटकों की शुरुआत पैदाइश य जन्म राजमहल से माना जाता है और अवध के आखिरी नवाब नवाब वाजिद अली शाह को उर्दू ड्रामे जनक माना जाता है उर्दू का पहला नाटक नवाब वाजिद अली शाह ने लिखा था, वास्तव में नवाब वाजिद अली शाह राधा और कृष्ण के प्रेम कहानी के दीवाने थे और इसी के चलते 3 जून 1845 में उन्होंने अपने लिखे नाटक किस्सा राधा कृष्ण का का मंचन अपने ही निर्देशन में राज महल में किया था उन्होंने न सिर्फ इस नाटक का लेखन एवं निर्देशन किया था बल्कि उसमें खुद कृष्ण की भूमिका भी निभाई थी लखनऊ दरबार से संबंध रखने वाले जनाब आगा हसन अमानत जो कि एक कवि और साहित्यकार थे इस नाटक से बहुत प्रभावित हुए और उन्होंने कुछ लिखने का विचार किया किंतु अपनी बीमारी के कारण पांच 6 साल तक कोई काम अंजाम नहीं दे सके किंतु सन 1853 में उन्होंने इंद्रसभा नाटक लिखा जो कि अपने मंचन के साथ बहुत प्रसिद्ध हुआ और इसकी प्रसिद्धि लखनऊ से ढाका तक पहुंच गई आम जनों तक पहुंचने वाला यह पहला उर्दू नाटक कहा जा सकता है इस नाटक की प्रसिद्धि का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है 1860 में जब मुंबई में पारसी थियेटर कंपनियों की स्थापना हुई तो अधिकांश थिएटर कंपनियां अपने कंपनी की शुरुआत इंद्रसभा नाटक से ही किया करते थे और इन्हीं कंपनियों से जुड़े आगा हश्र कश्मीरी को यह श्रेय दिया जा सकता है कि उन्होंने उर्दू नाटकों को पद से निकालकर गद्य में स्थान दिलवाया अगर यह कहा जाए कि उर्दू नाटक मुंबई में बहुत फला फूला तो गलत नहीं होगा 1947 में पृथ्वीराज कपूर ने पृथ्वी थिएटर की स्थापना की वह खुद उर्दू जानते थे और उनके साथ जुड़े हुए फिल्म जगत के मशहूर निर्देशक रामानंद सागर और कुछ दूसरे लोग उर्दू से वाबस्ता रहे और इस टीम ने 1943 से 1960 तक सारे देश मे...

लहरों के राजहंस

⇒ नंदः नाटक का केन्द्रीय पात्र नंद गौतम बुद्ध का सौतेला भाई था। यह नाटक उनके मानसिक द्वन्द्व के इर्द-गिर्दं रचा गया है। एक ओर वे गौतम बुद्ध से प्रभावित होकर भिक्षु बनना चाहते हैं दूसरी ओर अपनी पत्नी सुन्दरी पर भी अनुरक्त है। जब नंद सुन्दरी के पास होते हैं तब वे आध्यात्मिक होना चाहते हैं लेकिन जब तथागत के निकट होते हैं तो सांसारिकता से मुक्त नहीं हो पाते। नंद मन का प्रतीक है। ⇒ श्यामांगः नंद का कर्मचारी। यह वैचारिक रूप से अन्तद्र्वन्द्व में जीता हैं। इसका मन भी नंद और लहरों के राजहंस की तरह स्थिर नहीं है। ⇒ सुन्दरीः नंद की रूप गर्विता रानी जो सांसारिकता में पूरी तरह रमी हुई हैं। वह गौतम बुद्ध के सन्यास के लिए प्रत्यक्ष एवं अप्रत्यक्ष रूप से यशोधरा की उदासीनता को दोषी मानती है। सुंदरी संसार का प्रतीक है। ⇒ श्वेतांगः नंद का प्रधान कर्मचारी तथा राजमहलों में नंद और सुन्दरी का विश्वासपात्र। ⇒ अलकाः सुन्दरी की परिचारिका व सहेली जो उसका पूरा ध्यान रखती हैं। ⇒ नीहारिकाः दासी। ⇒ भिक्षु आनंदः गौतम बुद्ध का शिष्य। ⇒ मैत्रेयः नंद का मित्र। ⇒ शंशाकः गृहाधिकारी। महत्वपूर्ण प्रश्नोत्तर 1. गौतम बुद्ध का किस अन्य नाम से भी जाना जाता है? ⇒ तथागत 2. ‘मुझे तुमसे इर्ष्या होती है’ कथन है- ⇒ श्यामांग 3. ’लहरों के राजहंस’ की कथा किस ग्रन्थ से ली गई है – ⇒ सौन्दरानन्द 4. सुन्दरी का आसन कैसा था? ⇒ मत्स्याकार 5. ’लौटकर वे नहीं आये, जो आया है वह व्यक्ति दूसरा है।’ यह कथन है – ⇒ सुन्दरी 6. ‘अन्यथा यह ना हो कि कल को तु भी भिक्षुणी का वेश धारण करने की बात सोचने लगे’ कथन है- ⇒ सुन्दरी ने अलका से कहा। 7. ’लहरों के राजहंस’ नाटक में किस पात्र को नन्द के मन के भटकाव की चीख के रूप में प्रस्तुत किया गया है? ⇒ श...

सौतेली माँ : पंजाब की लोक

एक राजा और उसकी दो रानियाँ थीं। दोनों ही अधिकतर आपस में ही लड़ती-झगड़ती रहती थीं। बड़ी रानी के एक पुत्र और एक पुत्री थे, जबकि छोटी रानी का एक ही पुत्र था। जब बड़ी रानी की मृत्यु हो गई तब छोटी रानी मनमानियाँ करने लगी। वह बड़ी रानी के पुत्र और पुत्री दोनों से अच्छा व्यवहार नहीं करती थी,क्योंकि वे दोनों उसे एक आँख नहीं भाते थे। बड़ी रानी का पुत्र और पुत्री अपनी सौतेली माँ से बहुत तंग आ गए थे, क्योंकि छोटी रानी उन्हें भरपेट खाना तक भी नहीं दिया करती थी, परन्तु राजा अपनी पत्नी को अच्छा समझ कर उसकी प्रत्येक बात खुशी-खुशी मानता था। एक दिन रानी अपने पति से रूठ गयी। जब राजा राजदरबार से वापस आया, तो वह अपनी रूठी हुई रानी को देखकर हैरान हो गया। राजा ने पूछा, "क्या बात है, तुम आज इस तरह से क्यों लेटी हुई हो ?" पहले तो रानी ने कहा, "नहीं, ऐसी तो कोई बात नहीं है। राजा ने दूसरी बार पूछा तो रानी ने फिर उससे कहा, "कुछ नहीं। राजा ने फिर तीसरी बार पूछा, “बता तो दो कि क्या बात है ?” रानी ने कहा, यदि तुम मेरी बात मानोगे, तो मैं अपने रूठने का कारण बता दूंगी। राजा ने उसकी यह शर्त मान ली। अब छोटी रानी ने कहा, 'बड़ी रानी के पुत्र को काट कर यदि उसे स्वाद से खाया जाए, तो हम सभी के लिए यह बहुत ही शुभ होगा, ऐसा मुझे किसी पण्डित ने बताया है। राजा ने रानी की यह बात सच मान कर एक दिन अपने पुत्र को काट दिया और उसके टुकड़े-टुकड़े करके कुछ गोश्त कुत्तों को डाल दिया और कुछ को मसाले में डाल कर राजा रानी दोनों ने ही एक साथ बैठ कर खा लिया। बड़ी रानी की पुत्री ने अपने भाई का गोश्त खाते देखकर रोना शुरू कर दिया। सौतेली माँ ने उसे दरवाजे की तरफ खड़ा कर दिया और उसे भी अपने भाई का वही गोश्त खाने के लिए कहा, परन्तु लड़...

राजेश कुमार का नाटक : कह रैदास खलास चमारा (अंतिम भाग)

राजेश कुमार का नाटक : कह रैदास खलास चमारा (अंतिम भाग) नाटककार ने यज्ञोपवीत में विश्वास दिखाकर रैदास का विश्वास भी जनेऊ में दिखा दिया है। इस प्रकार निर्गुण रैदास यहां ब्राह्मणवादी बना दिए गए हैं। नाटककार को जनेऊ वाली कहानी को या तो दिखाना ही नहीं चाहिए था, और अगर दिखाना ही था, तो उसका रैदास के द्वारा खंडन कराना चाहिए था। पढ़ें राजेश कुमार द्वारा लिखित नाटक का कंवल भारती द्वारा पुनर्पाठ का दूसरा और अंतिम भाग पहली कड़ी के आगे नाटक में अगला दृश्य चमत्कार का है, जो रैदास साहेब को वैष्णव बनाने के उद्देश्य से ब्राह्मणों द्वारा उनकी ठाकुर-भक्ति दिखाने के लिए गढ़े गए हैं। पर नाटककार ने बड़ी कुशलता से इस चमत्कार को वैज्ञानिक मोड़ दे दिया है। पहले इस प्रसंग को देख लेते हैं। नाटक के अनुसार काशी के ब्राह्मण पंडे महंत अघोरनाथ के नेतृत्व में काशी नरेश के दरबार में रैदास के विरुद्ध शिकायत लेकर जाते हैं, और कहते हैं, महाराज हमारे धर्म को बचाइए। महंत महाराज को बताता है, “अब मंदिरों में कीर्तनों के समानांतर नुक्कड़-चौराहों पर सबद गाए जा रहे हैं। धर्मानुसार पूजा-पाठ का जो कार्य ब्राह्मणों के लिए निर्धारित है, वह एक शूद्र कर रहा है। रैदास ने ब्राह्मणों के सुरक्षित क्षेत्र में अनाधिकार प्रवेश करने का जो अपराध किया है, वेदों को मिथ्या कहा है, कर्मकांड को पाखंड बताया है, उसके लिए ऐसे कठोर दंड-विधान की रचना करें ताकि फिर कोई शूद्र ब्राह्मण के सम्मुख सिर उठाकर चलने का दुस्साहस न कर सके।” [1] महाराज के आदेश पर रैदास को दरबार में बुलाया जाता है। रैदास प्रवेश करते हैं। महाराज रैदास से उनका नाम और ठांव पूछते हैं। रैदास अपना नाम बताते हैं और ठांव के उत्तर में यह पद गाते हैं— अब हम खूब वतन घर पाया। ऊंचा खेर ...