समर शेष है कविता का भावार्थ

  1. रामधारी सिंह दिनकर की कविता 'समर शेष है' कितनी प्रासंगिक है आज भी
  2. प्रस्तुत है राष्ट्रकवि रामधारी सिंह दिनकर की कविता
  3. समर शेष है
  4. समर शेष है, नहीं पाप का भागी केवल व्याघ्र, जो तटस्थ हैं, समय लिखेगा उनका भी अपराध’
  5. समर शेष है … रामधारी सिंह दिनकर
  6. स्मृति शेष डॉ.रवीन्द्र राजहंस:नुक्कड़, कविता, आंदोलन के अहम हस्ताक्षर का यूं चले जाना
  7. समर शेष है।
  8. समर शेष है


Download: समर शेष है कविता का भावार्थ
Size: 37.34 MB

रामधारी सिंह दिनकर की कविता 'समर शेष है' कितनी प्रासंगिक है आज भी

आधुनिक युग के श्रेष्ठ वीर रस के कवि रामधारी सिंह ‘दिनकर’ स्वतन्त्रता पूर्व एक विद्रोही कवि के रूप में स्थापित हुए और स्वतन्त्रता के बाद राष्ट्रकवि के नाम से जाने गये। वे छायावादोत्तर कवियों की पहली पीढ़ी के कवि थे। एक ओर उनकी कविताओं में ओज, विद्रोह, आक्रोश और क्रान्ति की पुकार है, तो दूसरी ओर कोमल श्रृंगारिक भावनाओं की अभिव्यक्ति है। इन्हीं दो प्रवृत्तिय का चरम उत्कर्ष हमें उनकी कुरुक्षेत्र और उर्वशी नामक कृतियों में मिलता है। उर्वशी को भारतीय ज्ञानपीठ पुरस्कार जबकि कुरुक्षेत्र को विश्व के 100 सर्वश्रेष्ठ काव्यों में 74वाँ स्थान दिया गया। उन्होंने सामाजिक और आर्थिक समानता और शोषण के खिलाफ कविताओं की रचना की। एक प्रगतिवादी और मानववादी कवि के रूप में उन्होंने ऐतिहासिक पात्रों और घटनाओं को ओजस्वी और प्रखर शब्दों का तानाबाना दिया। उनकी महान रचनाओं में रश्मिरथी और परशुराम की प्रतीक्षा शामिल है। उर्वशी को छोड़कर दिनकर की अधिकतर रचनाएँ वीर रस से ओतप्रोत है। भूषण के बाद उन्हें वीर रस का सर्वश्रेष्ठ कवि माना जाता है। ज्ञानपीठ से सम्मानित उनकी रचना उर्वशी की कहानी मानवीय प्रेम, वासना और सम्बन्धों के इर्द-गिर्द घूमती है।उर्वशी स्वर्ग का परित्याग कर चुकी एक अप्सरा की कहानी है। वहीं, कुरुक्षेत्र, महाभारत के शान्ति-पर्व का कवितारूप है। यह दूसरे विश्वयुद्ध के बाद लिखी गयी रचना है। वहीं सामधेनी की रचना कवि के सामाजिक चिन्तन के अनुरुप हुई है। संस्कृति के चार अध्याय में दिनकर जी ने कहा कि सांस्कृतिक, भाषाई और क्षेत्रीय विविधताओं के बावजूद भारत एक देश है। क्योंकि सारी विविधताओं के बाद भी, हमारी सोच एक जैसी है। वहीं आज़ादी के सात वर्षो बाद उनकी लिखी एक कविता ‘समर शेष है’ में वे ऐसे कई प्रश्न ...

प्रस्तुत है राष्ट्रकवि रामधारी सिंह दिनकर की कविता

भारत के प्रमुख लेखक, कवि व निबन्धकार रामधारी सिंह दिनकर का जन्म 23 सितंबर 1908 को सिमरिया, मुंगेर, बिहार में हुआ था। ‘दिनकर’ स्वतन्त्रता पूर्व एक विद्रोही कवि के रूप में स्थापित हुए और स्वतन्त्रता के बाद राष्ट्रकवि के नाम से जाने गये। वे छायावादोत्तर कवियों की पहली पीढ़ी के कवि थे। एक ओर उनकी कविताओ में ओज, विद्रोह, आक्रोश और क्रान्ति की पुकार है तो दूसरी ओर कोमल श्रृंगारिक भावनाओं की अभिव्यक्ति है। इन्हीं दो प्रवृत्तियों का चरम उत्कर्ष हमें उनकी कुरुक्षेत्र और उर्वशी नामक कृतियों में मिलता है। उर्वशी को भारतीय ज्ञानपीठ पुरस्कार जबकि कुरुक्षेत्र को विश्व के 100 सर्वश्रेष्ठ काव्यों में 74वाँ स्थान दिया गया। आज हम आपके लिए उनकी एक ऐसी कविता लाये है जो उन्होंने आजादी के ठीक सात वर्ष बाद लिखी थी। आज़ादी मिलने पर देश में खुशहाली होनी चाहिए थी, प्रेम होना चाहिए था, सोहार्द पनपना चाहिए था। परन्तु हुआ इसका ठीक विपरीत। बाहर से आये अंग्रेजो से युद्ध तो ख़त्म हो गया था पर अपने ही देश में रह रहे अपने ही भाईयों से समर (युद्ध) अभी बाकी था। इसी का वर्णन करते हुए कवी लिखते है – समर शेष है ! ढीली करो धनुष की डोरी, तरकस का कस खोलो , किसने कहा, युद्ध की वेला चली गयी, शांति से बोलो? किसने कहा, और मत वेधो ह्रदय वह्रि के शर से, भरो भुवन का अंग कुंकुम से, कुसुम से, केसर से? कुंकुम? लेपूं किसे? सुनाऊँ किसको कोमल गान? तड़प रहा आँखों के आगे भूखा हिन्दुस्तान । फूलों के रंगीन लहर पर ओ उतरनेवाले ! ओ रेशमी नगर के वासी! ओ छवि के मतवाले! सकल देश में हालाहल है, दिल्ली में हाला है, दिल्ली में रौशनी, शेष भारत में अंधियाला है । मखमल के पर्दों के बाहर, फूलों के उस पार, ज्यों का त्यों है खड़ा, आज भी मरघट-सा संसा...

समर शेष है

ढीली करो धनुष की डोरी, तरकस का कस खोलो , किसने कहा, युद्ध की वेला चली गयी, शांति से बोलो? किसने कहा, और मत वेधो ह्रदय वह्रि के शर से, भरो भुवन का अंग कुंकुम से, कुसुम से, केसर से? कुंकुम? लेपूं किसे? सुनाऊँ किसको कोमल गान? तड़प रहा आँखों के आगे भूखा हिन्दुस्तान । फूलों के रंगीन लहर पर ओ उतरनेवाले ! ओ रेशमी नगर के वासी! ओ छवि के मतवाले! सकल देश में हालाहल है, दिल्ली में हाला है, दिल्ली में रौशनी, शेष भारत में अंधियाला है । मखमल के पर्दों के बाहर, फूलों के उस पार, ज्यों का त्यों है खड़ा, आज भी मरघट-सा संसार । वह संसार जहाँ तक पहुँची अब तक नहीं किरण है जहाँ क्षितिज है शून्य, अभी तक अंबर तिमिर वरण है देख जहाँ का दृश्य आज भी अन्त:स्थल हिलता है माँ को लज्ज वसन और शिशु को न क्षीर मिलता है पूज रहा है जहाँ चकित हो जन-जन देख अकाज सात वर्ष हो गये राह में, अटका कहाँ स्वराज? अटका कहाँ स्वराज? बोल दिल्ली! तू क्या कहती है? तू रानी बन गयी वेदना जनता क्यों सहती है? सबके भाग्य दबा रखे हैं किसने अपने कर में? उतरी थी जो विभा, हुई बंदिनी बता किस घर में समर शेष है, यह प्रकाश बंदीगृह से छूटेगा और नहीं तो तुझ पर पापिनी! महावज्र टूटेगा समर शेष है, उस स्वराज को सत्य बनाना होगा जिसका है ये न्यास उसे सत्वर पहुँचाना होगा धारा के मग में अनेक जो पर्वत खडे हुए हैं गंगा का पथ रोक इन्द्र के गज जो अडे हुए हैं कह दो उनसे झुके अगर तो जग मे यश पाएंगे अड़े रहे अगर तो ऐरावत पत्तों से बह जाऐंगे समर शेष है, जनगंगा को खुल कर लहराने दो शिखरों को डूबने और मुकुटों को बह जाने दो पथरीली ऊँची जमीन है? तो उसको तोडेंगे समतल पीटे बिना समर कि भूमि नहीं छोड़ेंगे समर शेष है, चलो ज्योतियों के बरसाते तीर खण्ड-खण्ड हो गिरे विषमता...

समर शेष है, नहीं पाप का भागी केवल व्याघ्र, जो तटस्थ हैं, समय लिखेगा उनका भी अपराध’

श्री गणेश की पूजा सदियों से हो रही है। बाल गंगाधर तिलक ने सार्वजनिक गणेशोत्सव प्रारंभ हुआ। इस मंच से राष्ट्र प्रेम व स्वतंत्रता संग्राम के लिए अवाम को प्रेरित किया गया। वाद-विवाद, कविता पाठ व एकांकी नाटक प्रस्तुत हुए। श्रेणी करण करने का हमें ऐसा जुनून रहा है कि हमने देव पूजा की भी भौगोलिक सरहदें खींच दीं और भाषावर-प्रांत रचना भी कर दी। महाराष्ट्र में गणेश उत्सव, गुजरात में नवरात्रि तो बंगाल में दुर्गा पूजा धूमधाम से मनाया जाता है । फिल्मों में रावण दहन, श्री कृष्ण का रास आयोजन व दुर्गा मूर्ति विसर्जन के दृश्य रचे गए। विद्या बालन अभिनीत फिल्म ‘कहानी’ का क्लाइमेक्स मूर्ति विसर्जन के समय प्रस्तुत है। मनमोहन देसाई की ‘छलिया’ के रावण दहन में बिछुड़े हुए पति-पत्नी मिलते हैं। ‘प्रेमग्रंथ’ का क्लाइमैक्स भी रावण दहन की पृष्ठभूमि पर था। हम सदियों से रावण दहन कर रहे हैं, परंतु बुराइयां यथावत हैं। क्या हम सचमुच बुराइयां तजना चाहते हैं। मुंबई के लालबाग में गणेशोत्सव धूमधाम से मनता रहा है। खुले मंच पर चढ़ावे की राशि गिनी जाती थी। करेंसी, नोट, सोने, हीरे-मोती जड़े आभूषष चढ़ावे में आते रहे। धन का उपयोग शौक्षणिक संस्थाओं के विकास में हुआ। पूजा स्थानों पर चढ़ावा कभी कैशलेस नहीं रहा। ठप्प व्यवस्था दसों दिशाओं में उजागर रही है। महामारी मेें इस वर्ष सार्वजनिक गणेशोत्सव नहीं मनेगा, पर घरों में पूजा चलेगी। हर क्षेत्र में बेरोज़गारी बढ़ी है। गणेश विसर्जन में लेजिम वादकों की कमाई होती रही। संभवत: लेजिम बजाना लोग भूल गए हैं। अब केवल तालियां बज रही हैं। यहां तक की हाथ की रेखाएं भी मिट रही हैं। आम आदमी के संघर्ष भरे जीवन में उत्सव उसे खुश रखते हैं। यह अधिकार उससे छीना नहीं जा सकता। सभी जानते हैं कि वेदव्या...

समर शेष है … रामधारी सिंह दिनकर

हर कोई कला को समझना चाहता है। चिड़िया के गाये गीत को समझने की चेष्टा क्यों नहीं करते? पेंटिंग के मामले में लोगों को समझना होता है... पर क्यों? वे लोग जो चित्रों की व्याख्या करना चाहते हैं सरासर गलती पर होते हैं। • Blogroll • • श्रेणी • • • • • • • • • • • • • • • • • • • • • • • • • • • • • • • • • • • • • • • • • • • • • • • • • • • • • पुरालेख पुरालेख • हाल के पोस्ट • • • • • • • • • • • • • • • • • • • • • • • • • • हाल ही की टिप्पणियाँ sangeeta swarup पर सुशील कुमार जोशी पर प्रमोद कुमार प्रजापत… पर Gobind sharma पर • Top Posts • • • • • • • • • • • • Blog Stats • 442,323 hits since May 2010 • कुंकुम? लेपूं किसे? सुनाऊँ किसको कोमल गान? तड़प रहा आँखों के आगे भूखा हिन्दुस्तान । फूलों के रंगीन लहर पर ओ उतरनेवाले ! ओ रेशमी नगर के वासी! ओ छवि के मतवाले! सकल देश में हालाहल है, दिल्ली में हाला है, दिल्ली में रौशनी, शेष भारत में अंधियाला है । मखमल के पर्दों के बाहर, फूलों के उस पार, ज्यों का त्यों है खड़ा, आज भी मरघट-सा संसार । वह संसार जहाँ तक पहुँची अब तक नहीं किरण है जहाँ क्षितिज है शून्य, अभी तक अंबर तिमिर वरण है देख जहाँ का दृश्य आज भी अन्त:स्थल हिलता है माँ को लज्ज वसन और शिशु को न क्षीर मिलता है पूज रहा है जहाँ चकित हो जन-जन देख अकाज सात वर्ष हो गये राह में, अटका कहाँ स्वराज? अटका कहाँ स्वराज? बोल दिल्ली! तू क्या कहती है? तू रानी बन गयी वेदना जनता क्यों सहती है? सबके भाग्य दबा रखे हैं किसने अपने कर में? उतरी थी जो विभा, हुई बंदिनी बता किस घर में समर शेष है, यह प्रकाश बंदीगृह से छूटेगा और नहीं तो तुझ पर पापिनी! महावज्र टूटेगा समर शेष है, उस स्वराज को सत्य बनाना होगा जिसका ...

स्मृति शेष डॉ.रवीन्द्र राजहंस:नुक्कड़, कविता, आंदोलन के अहम हस्ताक्षर का यूं चले जाना

स्मृति शेष डॉ.रवीन्द्र राजहंस: नुक्कड़, कविता, आंदोलन के अहम हस्ताक्षर का यूं चले जाना बिहार में नुक्कड़ कविता आंदोलन का जब भी ज़िक्र होगा, जब भी जेपी आंदोलन के दौरान कविता की नई धारा की चर्चा होगी, डॉ रवीन्द्र राजहंस का नाम बेहद गर्व के साथ लिया जाएगा। याद आते हैं 1974 आंदोलन के वो दिन जब पटना में हर शाम किसी न किसी नुक्कड़ पर हिन्दी के सुप्रसिद्ध कहानीकार फणीश्वरनाथ रेणु की अगुवाई में डॉ रवीन्द्र राजहंस के साथ सत्यनारायण, गोपी वल्लभ, बाबूलाल मधुकर, परेश सिन्हा समेत कई युवा और उत्साही कवि अपनी व्यंग्य कविताओं और सत्ता पर लिखी धारदार पंक्तियों से एक नई चेतना पैदा करने की कोशिश करते थे। बेहद संजीदा तरीके से लिखी गई उनकी कविताओं में भ्रष्टाचार, ब्यूरोक्रेसी के विद्रूप चेहरे, राजनेताओं और सत्ता के चरित्र पर तीखा व्यंग्य था। डॉ.राजहंस जब कविताएं सुनाते थे तो उनके सहज अंदाज़ और मुस्करा कर व्यंग्य करने की उनकी शैली बहुत गहराई तक लोगों को प्रभावित करती थी। जेपी आंदोलन के ही दौरान डॉ.रवीन्द्र राजहंस के संपादन में एक बेहद चर्चित कविता संग्रह आया- समर शेष है। इसमें उस दौर में नुक्कड़ कविता आंदोलन के सात कवियों की कविताएं शामिल थीं। अंतिम दिनों तक लेखक के रूप में सक्रिय रहे डॉ. रवीन्द्र राजहंस बेशक अब हमारे बीच न हों, लेकिन अपने जीवन के अंतिम दिनों में कई तरह की बीमारियों के बावजूद उनका चिंतन और लेखन बरकरार रहा। हिन्दी के जाने माने रचनाकार और साहित्यरत्न डॉ.मुरलीधर श्रीवास्तव के वे दूसरे बेटे थे, करीब 82 साल पहले जन्मे थे और घर में लगातार पढ़ने-पढ़ाने के माहौल की वजह से युवावस्था में ही लिखने लगे थे। बड़े भाई शैलेन्द्र नाथ श्रीवास्तव पटना विश्वविद्यालय में हिन्दी के प्रवक्ता थे, भार...

समर शेष है।

ढीली करो धनुष की डोरी, तरकस का कस खोलो किसने कहा, युद्ध की बेला गई, शान्ति से बोलो? किसने कहा, और मत बेधो हृदय वह्नि के शर से भरो भुवन का अंग कुंकुम से, कुसुम से, केसर से? कुंकुम? लेपूँ किसे? सुनाऊँ किसको कोमल गान? तड़प रहा आँखों के आगे भूखा हिन्दुस्तान। फूलों की रंगीन लहर पर ओ उतराने वाले! ओ रेशमी नगर के वासी! ओ छवि के मतवाले! सकल देश में हालाहल है दिल्ली में हाला है, दिल्ली में रौशनी शेष भारत में अंधियाला है। मखमल के पर्दों के बाहर, फूलों के उस पार, ज्यों का त्यों है खड़ा आज भी मरघट सा संसार। वह संसार जहाँ पर पहुँची अब तक नहीं किरण है, जहाँ क्षितिज है शून्य, अभी तक अंबर तिमिर-वरण है। देख जहाँ का दृश्य आज भी अन्तस्तल हिलता है, माँ को लज्जा वसन और शिशु को न क्षीर मिलता है। Advertisement पूज रहा है जहाँ चकित हो जन-जन देख अकाज, सात वर्ष हो गए राह में अटका कहाँ स्वराज? अटका कहाँ स्वराज? बोल दिल्ली! तू क्या कहती है? तू रानी बन गयी वेदना जनता क्यों सहती है? सबके भाग्य दबा रक्खे हैं किसने अपने कर में ? उतरी थी जो विभा, हुई बंदिनी, बता किस घर में? समर शेष है यह प्रकाश बंदीगृह से छूटेगा, और नहीं तो तुझ पर पापिनि! महावज्र टूटेगा। समर शेष है इस स्वराज को सत्य बनाना होगा। जिसका है यह न्यास, उसे सत्वर पहुँचाना होगा। धारा के मग में अनेक पर्वत जो खड़े हुए हैं, गंगा का पथ रोक इन्द्र के गज जो अड़े हुए हैं, Advertisement कह दो उनसे झुके अगर तो जग में यश पाएँगे, अड़े रहे तो ऐरावत पत्तों -से बह जाएँगे। समर शेष है जनगंगा को खुल कर लहराने दो, शिखरों को डूबने और मुकुटों को बह जाने दो। पथरीली, ऊँची ज़मीन है? तो उसको तोडेंग़े। समतल पीटे बिना समर की भूमि नहीं छोड़ेंगे। समर शेष है, चलो ज्योतियों के...

समर शेष है

कुरुक्षेत्र प्रथम सर्ग कुरुक्षेत्र / प्रथम सर्ग / भाग 1 कुरुक्षेत्र / प्रथम सर्ग / भाग 2 द्वितीय सर्ग कुरुक्षेत्र / द्वितीय सर्ग / भाग 1 कुरुक्षेत्र / द्वितीय सर्ग / भाग 2 कुरुक्षेत्र / द्वितीय सर्ग / भाग 3 कुरुक्षेत्र / द्वितीय सर्ग / भाग 4 कुरुक्षेत्र / द्वितीय सर्ग / भाग 5 तृतीय सर्ग कुरुक्षेत्र / तृतीय सर्ग / भाग 1 कुरुक्षेत्र / तृतीय सर्ग / भाग 2 कुरुक्षेत्र / तृतीय सर्ग / भाग 3 कुरुक्षेत्र / तृतीय सर्ग / भाग 4 कुरुक्षेत्र / तृतीय सर्ग / भाग 5 कुरुक्षत्र रामधारी सिंह दिनकर की कालजयी रचनाओं में से एक है। इस काव्य में इन्होनेमहाभारत के भीषण युधके पश्चात के एक महत्वपूर्ण अध्याय कासरल हिंदी तुकांत भाषा में वर्णन किया है। युधिष्ठिरका पश्चाताप, भीष्म की सिख, युद्ध का कारणं , युद्ध का अंतिम परिणाम तथा मानव जीवन के कुछ अमूल्य रहस्यों को समझातेहुए दिनकर जी ने बहुत ही अद्भुत शब्द चयन के साथ इस कविता की नीव राखी है। इनकी कुछ लाइन झझकोर देने वाली है जैसे" बद्ध, विदलित और साधनहीन को है उचित अवलम्ब अपनी आह का; गिड़गिड़ाकर किन्तु, माँगे भीख क्यों वह पुरुष, जिसकी भुजा में शक यह मनुज , जो ज्ञान का आगार ! यह मनुज , जो सृष्टि का शृंगार ! नाम सुन भूलो नहीं , सोचो विचारो कृत्य ; यह मनुज , संहार सेवी वासना का भृत्य । छद्म इसकी कल्पना , पाषंड इसका ज्ञान , यह मनुष्य मनुष्यता का घोरतम अपमान । व्योम से पाताल तक सब कुछ इसे है ज्ञेय , पर , न यह परिचित मनुज का , यह न उसका श्रेय । श्रेय उसका बुद्धि पर चैतन्य उर की जीत ; श्रेय मानव कीअसीमित मानवों से प्रीत ; एक नर से दूसरे के बीच का व्यवधान तोड़ दे जो , है वही ज्ञानी , वही विद्वान । और मानव भी वही, जो जीव बुद्धि -अधीर तोड़ना अणु ही , न इस व्यवधान क...