वर्नर का उपसहसंयोजक सिद्धांत

  1. उपसहसंयोजन यौगिकों का वर्नर का सिद्धांत
  2. वर्नर की अभिधारणाओं के आधार पर उपसहसंयोजन यौगिकों में आबंधन को समझाइए।
  3. वर्नर का सिद्धांत उदाहरण सहित समझाइए के अनुप्रयोग क्या है के कोई दो प्रमुख बिंदु लिखिए


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उपसहसंयोजन यौगिकों का वर्नर का सिद्धांत

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वर्नर की अभिधारणाओं के आधार पर उपसहसंयोजन यौगिकों में आबंधन को समझाइए।

उपसहसंयोजन यौगिकों में आबंधन को समझाने के लिए वर्नर ने सन् 1898 में उपसहसंयोजन यौगिकों का सिद्धांत प्रस्तुत किया। इस सिद्धांत की मुख्य अभिधारणाएँ निम्नलिखित हैं – • उपसहसंयोजन यौगिकों में धातुएँ दो प्रकार की संयोजकताएँ दर्शाती हैं- प्राथमिक तथा द्वितीयक। • प्राथमिक संयोजकताएँ सामान्य रूप से धातु परमाणु की ऑक्सीकरण अवस्था से संबंधित होती हैं। तथा आयननीय होती हैं। ये संयोजकताएँ ऋणात्मक आयनों द्वारा संतुष्ट होती हैं। • द्वितीयक संयोजकताएँ धातु परमाणु की उपसहसंयोजन संख्या से संबंधित होती हैं। द्वितीयक संयोजकताएँ अन-आयननीय होती हैं। ये उदासीन अणुओं अथवा ऋणात्मक आयनों द्वारा संतुष्ट होती हैं। द्वितीयक संयोजकता उपसहसंयोजन संख्या के बराबर होती है तथा इसका मान किसी धातु के लिए सामान्यत: निश्चित होता है। • धातु से द्वितीयक संयोजकता से आबंधित आयन समूह विभिन्न उपसहसंयोजन संख्या के अनुरूप दिक्स्थान में विशिष्ट रूप से व्यवस्थित रहते हैं। आधुनिक सूत्रीकरण में इस प्रकार की दिक्स्थान व्यवस्थाओं कोसमन्वये बहुफलक(coordination polyhedra) कहते हैं। गुरुकोष्ठक में लिखी स्पीशीजसंकुलतथा गुरु कोष्ठक के बाहर लिखे आयनप्रति आयन(counter ions) कहलाते हैं। उन्होंने यह भी अभिधारणा दी कि संक्रमण तत्वों के समन्वय यौगिकों में सामान्यतः अष्टफलकीय, चतुष्फलकीय व वर्ग समतली ज्यामितियाँ पायी जाती हैं। इस प्रकार [Co(NH 3) 6] 3+, [CoCl(NH 3) 5] 2+ तथा [CoCl 2(NH 3) 4] + की ज्यामितियाँ अष्टफलकीय हैं, जबकि [Ni(CO) 4)] तथा [PtCl 4] 2−क्रमश: चतुष्फलकीय तथा वर्ग समतली हैं। उपर्युक्त अभिधारणाओं से वर्नर, जिसने निम्नलिखित यौगिकों को कोबाल्ट (III) क्लोराइड की NH 3से अभिक्रिया करके बनाया, ने इन यौगिकों (उपसहसंयोजक) की संरच...

वर्नर का सिद्धांत उदाहरण सहित समझाइए के अनुप्रयोग क्या है के कोई दो प्रमुख बिंदु लिखिए

उन्नीसवीं शताब्दी के उत्तरार्ध में अधिकांश कार्य कार्बनिक यौगिकों पर केन्द्रित था। उस समय तक वैज्ञानिकों की रूचि यह जानने में जागृत हो चुकी थी कि किसी अणु में विभिन्न परमाणु किस प्रकार में बंधित होते हैं तथा उस पदार्थ के विभिन्न गुणों की बंधन द्वारा किस प्रकार व्याख्या की जा सकती है। एक सर्वमान्य सिद्धान्त यह था कि परमाणुओं में संयुक्त होने की क्षमता, जिसे संयोजकता कहते हैं. पाई जाती है तथा परमाणु इस निश्चित संयोजकता के संतुष्ट होने तक आबंध बनाते हैं। एक परमाणु जितने आबंध बनाता है, उसकी संयोजकता कहलाती है। कार्बनिक यौगिकों के गुणों तथा बंधन की व्याख्या उनके अवयवी परमाणुओं की संयोजकता (C की 4, N की 3, O की 2, H की 1 इत्यादि) के आधार पर सफलतापूर्वक की जा सकी थी। संयोजकता द्वारा अकार्बनिक यौगिकों की व्याख्या के भी प्रयत्न किए गए। सामान्य अकार्बनिक यौगिकों, जैसे लवण, ऑक्साइड, सल्फाइड के लिए सफलता तो मिली थी लेकिन अन्य बहुत से अकार्बनिक यौगिकों को, जिन्हें अब उपसंहयोजन यौगिक कहा जाता है, कार्बनिक योगिकों वाले सिद्धान्तों की सहायता से सूत्रबद्ध नहीं किया जा सका था। वर्नर ने इस समस्या को दूसरे ही दृष्टिकोण से देखा तथा अपने विचार प्रस्तुत किए जिन्हें वर्नर का सिद्धान्त कहते हैं। चूंकि परमाणु में इलेक्ट्रॉनिक व्यवस्था (बोर सिद्धान्त 1913) तथा संयोजकता के इलेक्ट्रॉनिक सिद्धान्तों का विकास वर्नर सिद्धान्त के बहुत बाद में हुआ था, वर्नर का सिद्धान्त परमाणुओं की संयोजकता की धारणा पर ही आधारित था न कि इलेक्ट्रॉनिक विन्यास पर । वर्नर ने कोबाल्ट क्लोराइड तथा अमोनिया की अभिक्रिया से बहुत से कोबाल्ट ऐम्मीन क्लोराइड बनाये तथा उनका विस्तार से अध्ययन किया। उसने देखा कि यद्यपि इन ऐम्मीन यौगिकों ...