केशवदास काव्य धारा के कवि हैं

  1. नयी कविता
  2. भक्तिकाल के कवि
  3. हिन्दी साहित्य – काव्य – Site Title
  4. केशवदास
  5. हिंदी कविता (रीतिकालीन) सहायिका/केशवदास
  6. नयी कविता
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नयी कविता

नयी कविता नयी कविता (1951 ई० से…): यों तो ‘नयी कविता’ के प्रारंभ को लेकर विद्वानों में विवाद है, लेकिन ‘ मुख्य तथ्य • नयी कविता हिंदी साहित्य की उन कविताओं को कहा गया, जिनमें परंपरागत कविता से आगे नये भावबोधों की अभिव्यक्ति के साथ ही नये मूल्यों और नये शिल्प-विधान का अन्वेषण किया गया। • यह प्रयोगवाद के बाद विकसित हुई हिंदी कविता की नवीन धारा है। • नई कविता अपनी वस्तु-छवि और रूप-छवि दोनों में प्रगतिवाद और प्रयोगवाद का विकास होकर भी विशिष्ट है। आधुनिक हिंदी कविता प्रयोगशीलता की प्रवृति से आगे बढ़ गयी है और अब वह पहले से अपनी पूर्ण पृथकता घोषित करने के लिए प्रयत्नशील है.आधुनिक काल की इस नवीन काव्यधारा को अभी तक कोई नया नाम नहीं दिया गया है। जन्म केवल नयी कविता नाम से ही अभी इसका बोध कराया जाता है सन १९५४ ई. में डॉ.जगदीश गुप्त और डॉ.रामस्वरुप चतुर्वेदी के संपादन में नयी कविता काव्य संकलन का प्रकाशन हुआ। इसी को नयी कविता में में संलठन है। हिंदी की यह नयी कविता के परंपरागत रूप से इतनी भिन्न हो गयी है कि इस कविता न कहकर अकविता कहा जाने लगा है। जिस तरह प्रयोगवादी काव्यांदोलन को शुरू करने का श्रेय अज्ञेय की पत्रिका ‘ प्रतीक‘ को प्राप्त है उसी तरह नयी कविता आंदोलन को शुरू करने का श्रेय जगदीश प्रसाद गुप्त के संपादकत्व में निकलनेवाली पत्रिका ‘ नयी कविता‘ को जाता है। ‘नयी कविता’ भारतीय स्वतंत्रता के बाद लिखी गयी उन कविताओं को कहा जाता है, जिनमें परम्परागत कविता से आगे नये भाव बोधों की अभिव्यक्ति के साथ ही नये मूल्यों और नये शिल्प विधान का अन्वेषण किया गया। अज्ञेय को ‘नयी कविता का भारतेन्दु‘ कह सकते हैं क्योंकि जिस प्रकार भारतेन्दु ने जो लिखा सो लिखा ही, साथ ही उन्होंने समकालीनों को इस ...

भक्तिकाल के कवि

अनुक्रम • 1 सूरदास • 2 संत शिरोमणि रविदास • 3 ध्रुवदास • 4 रसखान • 5 व्यास जी • 6 स्वामी हरिदास • 7 मीराबाई • 8 गदाधर भट्ट • 9 हितहरिवंश • 10 गोविन्दस्वामी • 11 छीतस्वामी • 12 चतुर्भुजदास • 13 कुंभनदास • 14 परमानंद • 15 कृष्णदास • 16 श्रीभट्ट • 17 सूरदास मदनमोहन • 18 नंददास • 19 चैतन्य महाप्रभु • 20 विस्तृत अध्ययन हेतु सूरदास मुख्य लेख: हिन्दी साहित्य के श्रेष्ठ कृष्णभक्त कवि सूरदास का जन्म 1478 ई. के आस-पास हुआ था। इनकी मृत्यु अनुमानत: 1583 ई. के आस-पास हुई। इनके बारे में ‘भक्तमाल’ और ‘चौरासी वैष्णवन की वार्ता’ में थोड़ी-बहुत जानकारी मिल जाती है। ‘आईने अकबरी’ और ‘मुंशियात अब्बुलफजल’ में भी किसी संत सूरदास का उल्लेख है, किन्तु वे बनारक के कोई और सूरदास प्रतीत होते हैं। अनुश्रुति यह अवश्य है कि अकबर बादशाह सूरदास का यश सुनकर उनसे मिलने आए थे। ‘भक्तमाल’ में इनकी भक्ति, कविता एवं गुणों की प्रशंसा है तथा इनकी अंधता का उल्लेख है। ‘चौरासी वैष्णवन की वार्ता’ के अनुसार वे आगरा और मथुरा के बीच साधु या स्वामी के रूप में रहते थे। वे वल्लभाचार्य के दर्शन को गए और उनसे लीलागान का उपदेश पाकर कृष्ण-चरित विषयक पदों की रचना करने लगे। कालांतर में श्रीनाथ जी के मंदिर का निर्माण होने पर महाप्रभु वल्लभाचार्य ने इन्हें यहाँ कीर्तन का कार्य सौंपा. सूरदास के विषय में कहा जाता है कि वे जन्मांध थे। उन्होंने अपने को ‘जन्म को आँधर’ कहा भी है। किन्तु इसके शब्दार्थ पर अधिक नहीं जाना चाहिए। सूर के काव्य में प्रकृतियाँ और जीवन का जो सूक्ष्म सौन्दर्य चित्रित है उससे यह नहीं लगता कि वे जन्मांध थे। उनके विषय में ऐसी कहानी भी मिलती है कि तीव्र अंतर्द्वन्द्व के किसी क्षण में उन्होंने अपनी आँखें फोड़ ली थीं। उ...

हिन्दी साहित्य – काव्य – Site Title

आदिकाल (650 ई०-1350 ई०) • हिन्दी साहित्येतिहास के विभिन्न कालों के नामकरण का प्रथम श्रेय जार्ज ग्रियर्सन को है। • हिन्दी साहित्येतिहास के आरंभिक काल के नामकरण का प्रश्न विवादास्पद है। इस काल को ग्रियर्सन ने ‘चरण काल’, मिश्र बंधु ने ‘प्रारंभिक काल’, महावीर प्रसाद द्विवेदी ने ‘बीज वपन काल’, शुक्ल ने ‘आदिकाल: वीर गाथाकाल’, राहुल सांकृत्यायन ने ‘सिद्ध- सामंत काल’, राम कुमार वर्मा ने ‘संधिकाल’ व ‘चारण काल’, हजारी प्रसाद द्विवेदी ने ‘आदिकाल’ की संज्ञा दी है। • आदिकाल में तीन प्रमुख प्रवृत्तियाँ मिलती है- धार्मिकता, वीरगाथात्मकता व श्रृंगारिकता। • प्रबंधात्मक काव्यकृतियाँ : रासो काव्य, कीर्तिलता , कीर्तिपताका इत्यादि। मुक्तक काव्यकृतियाँ : खुसरो की पहेलियाँ, सिद्धों-नाथों की रचनाएँ, विद्यापति की पदावली इत्यादि। • विद्यापति ने ‘कीर्तिलता’ व ‘कीर्तिपताका’ की रचना अवहट्ट में और ‘पदावली’ की रचना मैथली में की। • आदिकाल में दो शैलियाँ मिलती हैं डिंगल व पिंगल। डिंगल शैली में कर्कश शब्दावलियों का प्रयोग होता है जबकि पिंगल शैली में कर्णप्रिय शब्दावलियों की। कर्कश शब्दावलियों के कारण डिंगल शैली अलोकप्रिय होती चली गई। जबकि कर्णप्रिय शब्दावलियों के कारण पिंगल शैली लोकप्रिय होती चली गई और आगे चलकर इसका ब्रजभाषा में विगलन हो गया। • ‘पृथ्वी राज रासो’ कथानक रूढ़ियों का कोश है। [(कथानक रूढ़ि (Motiff)- एक प्रकार का प्रतीक जिसके साथ एक पूरी की पूरी कथा जुड़ी हो)] • अपभ्रंश में 15 मात्राओं का एक ‘चउपई’ छंद मिलता है। हिन्दी ने चउपई में एक मात्रा बढ़ाकर ‘चौपाई’ के रूप में अपनाया अर्थात चौपाई 16 मात्राओं का छंद है। • आदिकाल में ‘आल्हा’ छंद (31 मात्रा) बहुत प्रचलित था। यह वीर रस का बड़ा ही लोकप्रिय छंद था। •...

केशवदास

केशवदास एक केशव या केशवदास • केशवदास रचित प्रामाणिक ग्रंथ नौ हैं- रसिकप्रिया, कविप्रिया, नखशिख, छंदमाला, रामचंद्रिका, वीरसिंहदेव चरित, रतनबावनी, विज्ञानगीता और जहाँगीर जसचंद्रिका। • रसिकप्रिया केशवदास की प्रौढ़ रचना है, जो काव्यशास्त्र संबंधी ग्रंथ हैं। इसमें • केशवदास • अलंकारों के प्रति विशेष रुचि होने के कारण काव्यपक्ष दब गया है और सामान्यत: केशवदास सहृदय कवि नहीं माने जाते। अपनी क्लिष्टता के कारण ये कठिन काव्य के प्रेत कहे गए हैं।

हिंदी कविता (रीतिकालीन) सहायिका/केशवदास

तीसरा प्रभाव समझैं बाला बालकहूं, वर्णन पंथ अगाध | कविप्रिया केशव करी, छमियो कवि अपराध|1/1|| संदर्भ:- यह पद हिंदी साहित्य के रीतिकाल के रीतिबद्ध कवि केशवदास द्वारा रचित कविप्रिया के तीसरा प्रभाव से लिया गया है प्रसंग:- इस पद के द्वारा केशवदास क्षमा मांगते हुए इस पद को लिखने की आज्ञा मांगते हैं व्याख्या:- १. केशवदास कहते हैं कि बच्चों को, युवकों और युवतियों को समझने के लिए, यह जो काव्य मार्ग है, काव्य लेखन का मार्ग आघात है इसी का में वर्णन करने जा रहा हूं इसका मार्ग बहुत कठिन है मुझे क्षमा करना कि मुझसे कोई गलती हो जाए तो २. केशवदास कहते हैं कि मैंने इस कविप्रिया पुस्तक को इसीलिए लिखा है कि जिससे कविता के अघात रहस्य को स्त्री तथा बालक भी समझ सके अंतः कविगण मेरा अपराध क्षमा करें | ३. केशवदास ने ‘कविप्रिया’ के ‘तीसरे प्रभाव’ के प्रारंभ में ही क्षमा याचना की है उन्होंने कहा कि उनका ‘कविप्रिया’ ग्रंथ इतना शुभम और आसान है जिसे साधारण शिक्षा संस्कार वाले बालक भी आसानी से समझ सकते हैं इसीलिए केशव कवियों से अपने अपराध की शमा मांगते हैं अलंकार कवितान के, सुनि सुनि विविध विचार | कवि प्रिया केशव करी, कविता को शृगार|2/2|| संदर्भ:- यह पद हिंदी साहित्य के रीतिकाल के रीतिबद्ध कवि केशवदास द्वारा रचित कविप्रिया के तीसरा प्रभाव से लिया गया है प्रसंग:- इस पद के द्वारा केशवदास बताते की उन्होंने किस प्रकार इस कविप्रिया रचना में अलंकारों का प्रयोग किया है व्याख्या:- १. कवि कहते हैं कि मैंने बार-बार विचार करके अन्य कविगरणों से सुनकर, समझकर और मेरे भी विभिन्न प्रकार के विचार कर कर इन अलंकारों का प्रयोग किया है क्योंकि कविता की शोभा कविप्रिया का निर्माण और अलंकारों का दूसरा नाम ही सौंदर्य है २. कवित...

नयी कविता

नयी कविता नयी कविता (1951 ई० से…): यों तो ‘नयी कविता’ के प्रारंभ को लेकर विद्वानों में विवाद है, लेकिन ‘ मुख्य तथ्य • नयी कविता हिंदी साहित्य की उन कविताओं को कहा गया, जिनमें परंपरागत कविता से आगे नये भावबोधों की अभिव्यक्ति के साथ ही नये मूल्यों और नये शिल्प-विधान का अन्वेषण किया गया। • यह प्रयोगवाद के बाद विकसित हुई हिंदी कविता की नवीन धारा है। • नई कविता अपनी वस्तु-छवि और रूप-छवि दोनों में प्रगतिवाद और प्रयोगवाद का विकास होकर भी विशिष्ट है। आधुनिक हिंदी कविता प्रयोगशीलता की प्रवृति से आगे बढ़ गयी है और अब वह पहले से अपनी पूर्ण पृथकता घोषित करने के लिए प्रयत्नशील है.आधुनिक काल की इस नवीन काव्यधारा को अभी तक कोई नया नाम नहीं दिया गया है। जन्म केवल नयी कविता नाम से ही अभी इसका बोध कराया जाता है सन १९५४ ई. में डॉ.जगदीश गुप्त और डॉ.रामस्वरुप चतुर्वेदी के संपादन में नयी कविता काव्य संकलन का प्रकाशन हुआ। इसी को नयी कविता में में संलठन है। हिंदी की यह नयी कविता के परंपरागत रूप से इतनी भिन्न हो गयी है कि इस कविता न कहकर अकविता कहा जाने लगा है। जिस तरह प्रयोगवादी काव्यांदोलन को शुरू करने का श्रेय अज्ञेय की पत्रिका ‘ प्रतीक‘ को प्राप्त है उसी तरह नयी कविता आंदोलन को शुरू करने का श्रेय जगदीश प्रसाद गुप्त के संपादकत्व में निकलनेवाली पत्रिका ‘ नयी कविता‘ को जाता है। ‘नयी कविता’ भारतीय स्वतंत्रता के बाद लिखी गयी उन कविताओं को कहा जाता है, जिनमें परम्परागत कविता से आगे नये भाव बोधों की अभिव्यक्ति के साथ ही नये मूल्यों और नये शिल्प विधान का अन्वेषण किया गया। अज्ञेय को ‘नयी कविता का भारतेन्दु‘ कह सकते हैं क्योंकि जिस प्रकार भारतेन्दु ने जो लिखा सो लिखा ही, साथ ही उन्होंने समकालीनों को इस ...

हिन्दी साहित्य – काव्य – Site Title

आदिकाल (650 ई०-1350 ई०) • हिन्दी साहित्येतिहास के विभिन्न कालों के नामकरण का प्रथम श्रेय जार्ज ग्रियर्सन को है। • हिन्दी साहित्येतिहास के आरंभिक काल के नामकरण का प्रश्न विवादास्पद है। इस काल को ग्रियर्सन ने ‘चरण काल’, मिश्र बंधु ने ‘प्रारंभिक काल’, महावीर प्रसाद द्विवेदी ने ‘बीज वपन काल’, शुक्ल ने ‘आदिकाल: वीर गाथाकाल’, राहुल सांकृत्यायन ने ‘सिद्ध- सामंत काल’, राम कुमार वर्मा ने ‘संधिकाल’ व ‘चारण काल’, हजारी प्रसाद द्विवेदी ने ‘आदिकाल’ की संज्ञा दी है। • आदिकाल में तीन प्रमुख प्रवृत्तियाँ मिलती है- धार्मिकता, वीरगाथात्मकता व श्रृंगारिकता। • प्रबंधात्मक काव्यकृतियाँ : रासो काव्य, कीर्तिलता , कीर्तिपताका इत्यादि। मुक्तक काव्यकृतियाँ : खुसरो की पहेलियाँ, सिद्धों-नाथों की रचनाएँ, विद्यापति की पदावली इत्यादि। • विद्यापति ने ‘कीर्तिलता’ व ‘कीर्तिपताका’ की रचना अवहट्ट में और ‘पदावली’ की रचना मैथली में की। • आदिकाल में दो शैलियाँ मिलती हैं डिंगल व पिंगल। डिंगल शैली में कर्कश शब्दावलियों का प्रयोग होता है जबकि पिंगल शैली में कर्णप्रिय शब्दावलियों की। कर्कश शब्दावलियों के कारण डिंगल शैली अलोकप्रिय होती चली गई। जबकि कर्णप्रिय शब्दावलियों के कारण पिंगल शैली लोकप्रिय होती चली गई और आगे चलकर इसका ब्रजभाषा में विगलन हो गया। • ‘पृथ्वी राज रासो’ कथानक रूढ़ियों का कोश है। [(कथानक रूढ़ि (Motiff)- एक प्रकार का प्रतीक जिसके साथ एक पूरी की पूरी कथा जुड़ी हो)] • अपभ्रंश में 15 मात्राओं का एक ‘चउपई’ छंद मिलता है। हिन्दी ने चउपई में एक मात्रा बढ़ाकर ‘चौपाई’ के रूप में अपनाया अर्थात चौपाई 16 मात्राओं का छंद है। • आदिकाल में ‘आल्हा’ छंद (31 मात्रा) बहुत प्रचलित था। यह वीर रस का बड़ा ही लोकप्रिय छंद था। •...

हिंदी कविता (रीतिकालीन) सहायिका/केशवदास

तीसरा प्रभाव समझैं बाला बालकहूं, वर्णन पंथ अगाध | कविप्रिया केशव करी, छमियो कवि अपराध|1/1|| संदर्भ:- यह पद हिंदी साहित्य के रीतिकाल के रीतिबद्ध कवि केशवदास द्वारा रचित कविप्रिया के तीसरा प्रभाव से लिया गया है प्रसंग:- इस पद के द्वारा केशवदास क्षमा मांगते हुए इस पद को लिखने की आज्ञा मांगते हैं व्याख्या:- १. केशवदास कहते हैं कि बच्चों को, युवकों और युवतियों को समझने के लिए, यह जो काव्य मार्ग है, काव्य लेखन का मार्ग आघात है इसी का में वर्णन करने जा रहा हूं इसका मार्ग बहुत कठिन है मुझे क्षमा करना कि मुझसे कोई गलती हो जाए तो २. केशवदास कहते हैं कि मैंने इस कविप्रिया पुस्तक को इसीलिए लिखा है कि जिससे कविता के अघात रहस्य को स्त्री तथा बालक भी समझ सके अंतः कविगण मेरा अपराध क्षमा करें | ३. केशवदास ने ‘कविप्रिया’ के ‘तीसरे प्रभाव’ के प्रारंभ में ही क्षमा याचना की है उन्होंने कहा कि उनका ‘कविप्रिया’ ग्रंथ इतना शुभम और आसान है जिसे साधारण शिक्षा संस्कार वाले बालक भी आसानी से समझ सकते हैं इसीलिए केशव कवियों से अपने अपराध की शमा मांगते हैं अलंकार कवितान के, सुनि सुनि विविध विचार | कवि प्रिया केशव करी, कविता को शृगार|2/2|| संदर्भ:- यह पद हिंदी साहित्य के रीतिकाल के रीतिबद्ध कवि केशवदास द्वारा रचित कविप्रिया के तीसरा प्रभाव से लिया गया है प्रसंग:- इस पद के द्वारा केशवदास बताते की उन्होंने किस प्रकार इस कविप्रिया रचना में अलंकारों का प्रयोग किया है व्याख्या:- १. कवि कहते हैं कि मैंने बार-बार विचार करके अन्य कविगरणों से सुनकर, समझकर और मेरे भी विभिन्न प्रकार के विचार कर कर इन अलंकारों का प्रयोग किया है क्योंकि कविता की शोभा कविप्रिया का निर्माण और अलंकारों का दूसरा नाम ही सौंदर्य है २. कवित...

केशवदास

केशवदास एक केशव या केशवदास • केशवदास रचित प्रामाणिक ग्रंथ नौ हैं- रसिकप्रिया, कविप्रिया, नखशिख, छंदमाला, रामचंद्रिका, वीरसिंहदेव चरित, रतनबावनी, विज्ञानगीता और जहाँगीर जसचंद्रिका। • रसिकप्रिया केशवदास की प्रौढ़ रचना है, जो काव्यशास्त्र संबंधी ग्रंथ हैं। इसमें • केशवदास • अलंकारों के प्रति विशेष रुचि होने के कारण काव्यपक्ष दब गया है और सामान्यत: केशवदास सहृदय कवि नहीं माने जाते। अपनी क्लिष्टता के कारण ये कठिन काव्य के प्रेत कहे गए हैं।

भक्तिकाल के कवि

अनुक्रम • 1 सूरदास • 2 संत शिरोमणि रविदास • 3 ध्रुवदास • 4 रसखान • 5 व्यास जी • 6 स्वामी हरिदास • 7 मीराबाई • 8 गदाधर भट्ट • 9 हितहरिवंश • 10 गोविन्दस्वामी • 11 छीतस्वामी • 12 चतुर्भुजदास • 13 कुंभनदास • 14 परमानंद • 15 कृष्णदास • 16 श्रीभट्ट • 17 सूरदास मदनमोहन • 18 नंददास • 19 चैतन्य महाप्रभु • 20 विस्तृत अध्ययन हेतु सूरदास मुख्य लेख: हिन्दी साहित्य के श्रेष्ठ कृष्णभक्त कवि सूरदास का जन्म 1478 ई. के आस-पास हुआ था। इनकी मृत्यु अनुमानत: 1583 ई. के आस-पास हुई। इनके बारे में ‘भक्तमाल’ और ‘चौरासी वैष्णवन की वार्ता’ में थोड़ी-बहुत जानकारी मिल जाती है। ‘आईने अकबरी’ और ‘मुंशियात अब्बुलफजल’ में भी किसी संत सूरदास का उल्लेख है, किन्तु वे बनारक के कोई और सूरदास प्रतीत होते हैं। अनुश्रुति यह अवश्य है कि अकबर बादशाह सूरदास का यश सुनकर उनसे मिलने आए थे। ‘भक्तमाल’ में इनकी भक्ति, कविता एवं गुणों की प्रशंसा है तथा इनकी अंधता का उल्लेख है। ‘चौरासी वैष्णवन की वार्ता’ के अनुसार वे आगरा और मथुरा के बीच साधु या स्वामी के रूप में रहते थे। वे वल्लभाचार्य के दर्शन को गए और उनसे लीलागान का उपदेश पाकर कृष्ण-चरित विषयक पदों की रचना करने लगे। कालांतर में श्रीनाथ जी के मंदिर का निर्माण होने पर महाप्रभु वल्लभाचार्य ने इन्हें यहाँ कीर्तन का कार्य सौंपा. सूरदास के विषय में कहा जाता है कि वे जन्मांध थे। उन्होंने अपने को ‘जन्म को आँधर’ कहा भी है। किन्तु इसके शब्दार्थ पर अधिक नहीं जाना चाहिए। सूर के काव्य में प्रकृतियाँ और जीवन का जो सूक्ष्म सौन्दर्य चित्रित है उससे यह नहीं लगता कि वे जन्मांध थे। उनके विषय में ऐसी कहानी भी मिलती है कि तीव्र अंतर्द्वन्द्व के किसी क्षण में उन्होंने अपनी आँखें फोड़ ली थीं। उ...