अमेरिका का मस्त योगी वाल्ट व्हिटमैन निबंध है

  1. Setu 🌉 सेतु: हिन्दी निबन्ध कला का विकास और आचार्य रामचन्द्र शुक्ल की समीक्षा
  2. साहित्यालय: निबंध


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Setu 🌉 सेतु: हिन्दी निबन्ध कला का विकास और आचार्य रामचन्द्र शुक्ल की समीक्षा

आधुनिक हिन्दी साहित्य में निबंध का विकास अंग्रेजी के Essay के अनुकरण पर हुआ। भारतेंदु युग से पहले यहाँ तक विशाल संस्कत वाङ्मय में निबंध का कहीं उल्लेख नही मिलता है। इसके पहले‘निबन्ध’ शब्द का उद्भव यूरोपीय पुनर्जागरण काल के दौरान हुआ था। मूलतः अंग्रेजी समनार्थी एसे फ्रांसीसी भाषा (फ्रेंच) का शब्द हैं। जिसका शाब्दिक अर्थ-आजमाईश या कोशिश करना होता है। पश्चिमी परम्परा में निबंध के पितामह मिशेल इक्वेम द मोंतेन भी फ्रांसीसी ही थे। मोंतेन के निबंध सबसे पहले 1580 में प्रकाशित हुए। मोंतेन के सन्दर्भ मेंविद्धान साहित्यकार अरूण प्रकाश लिखते हैं- ‘‘उसने अपने निबंध ऑन एजुकेशन में लिखाः‘जहाँ तक प्रारम्भ और आमुख का सवाल है, मुझे इसका ध्यान नही रहता। मध्य का भी नहीं। जहाँ तक उपसंहार की बात है, मैं इसके मुतल्लिक कुछ नही करना चाहता।’ उसने उपदेश के उत्तराधिकारी निबंध को अनौपचारिक, भटकाव से भरा, लापरवाह, विश्रृंखल, विचार-सहचारी। लेकिन फ्रांसिस बेकन ने निबंध को सटीक, संक्षिप्त, रूखा बनाया। मोंतेन वाले मानवीय संस्पर्श से मुक्त कर दिया। भावना को बेदखल कर बौद्धिकता का राज बना दिया। यह दखल बेदखल खेल रूका नही। आज भी जो शुष्क है हिंदी में उसे निबंध कहते हैं।’’1 भारतेंदु युगीन लेखकों की पत्रकारिता ने हिंदी में निबंध साहित्य को जन्म दिया। वरिष्ठ साहित्यकार अरूण प्रकाश की इस टिप्पणी से इस तथ्य को ठीक से समझा जा सकता है- ‘‘निबंध की क्षमता है कि वह किसी को भी बगैर शोर-शराबे के उसकी अंतरंगता से बाहर निकाल ले। वैसे निबंध को रूपहीन रूपबंध कहा जाता है। लेकिन इसका एक युगो पुराना ढांचा तो है हीः प्रस्तावना, सामग्री और पद्धतियां, परिणाम, वाद-विवाद और निष्कर्ष। पर इसका उपयोग तकनीकी, वैज्ञानिक और अकादमिक क्षेत्र ...

साहित्यालय: निबंध

अमेरिका के लम्बे लम्बे हरे देवदारों के घने वन में वह कौन फिर रहा है ? कभी यहाँ टहलता है कभी वहाँ गाता है। एक लम्बा, ऊँचा, वृद्ध-युवक, मिट्टी-गारे से लिप्त, मोटे वस्त्र का पतलून और कोट पहने, नङ्गे सिर, नङ्गे पाँव और नङ्गे ही दिल अपनी तिनकों की टोपी मस्ती में उछालता, झूमता जा रहा है। मौज आती है तो घास पर लेट जाता है। कभी नाचता, कभी चीखता और कभी भागता है। मार्ग में पशुओं को हरे तृण का भोज उड़ाते देख आनन्द में मग्न हो जाता है। आकाश-गामी पक्षियों के उड़ान को देख हर्ष में प्रफुल्लित हो जाता है। जब कभी उसे परोपकार की सूझती है तब वह गोल गोल श्वेत शिवशङ्करों को उठा उठा कर नदी की तरङ्गों पर बरसाता है। आज इस वृक्ष के नीचे विश्राम करता है, कल उसके नीचे बैठता है। जीवन के अरण्य में वह धूप और छाँह की तरह बिचरता चला जाता है। कभी चलते चलते अकस्मात् ठहर जाता है, मानो कोई बात याद आ गई । बार बार गर्दन फेर फेर और नेत्र उठा उठा कर वह सूर्य को ताकता है। सूर्य की सुनहली सोहनी रोशनी पर वह मरता है। समीर की मन्द मन्द गति के साथ वह नृत्य करता है, मानो सहस्रों वीणायें और सितार उसको पवन के प्रवाह में सुनाई देते हैं। इस प्राकृतिक राग की आँधी के सामने मानुषिक राग, दिनकर के प्रकाश में टिमटिमाती हुई दीप-शिखा के समान तेजोहीन प्रतीत होते हैं। उसके भीतर बाहर कुछ ऐसी असाधारण मधुरता भरी है कि चञ्चरीक के समूह के समूह उसके साथ साथ लगे फिरते हैं। उसके हृदय का सहस्रदल ब्रह्म-कमल ऐसा खिला है कि सूर्य और चन्द्र भ्रमरवत् उस विकसित कमल के मधु का स्वाद लेने को जाते हैं। बारी बारी से वे उसमें मस्त होकर बन्द होते हैं और प्रकाश पाकर पुनः बाहर आते हैं। उस सुन्दर धवल केशधारी वृद्ध के वेश में कहीं न्यागरा की दूध धारा तो नहीं ...