भक्ति धर्म की ............... अवस्था है?

  1. भक्ति काल की परिस्थितियां – Dr. Sunita Sharma
  2. भक्ति की श्रेष्ठता
  3. भक्तिकाल हिन्दी साहित्य का स्वर्ण युग । Complete information of the Bhaktikal । भक्तिकाल की सम्पूर्ण जानकरी । Bhaktikal ki Jankari ।
  4. चैतन्य महाप्रभु की सगुण भक्ति
  5. भक्ति क्या है ? भक्ति और भक्त के प्रकार
  6. भारतीय धर्म
  7. भक्ति के अवस्थाभेद
  8. भक्ति


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भक्ति काल की परिस्थितियां – Dr. Sunita Sharma

हिंदी साहित्य के काल विभाजन में दूसरे काल को भक्ति काल की संज्ञा दी गई है। भक्ति काल का समय संवत 1375 से लेकर सवत 1700 तक निर्धारित किया गया है। साहित्य समाज की उपज होता है और समाज से कटकर साहित्य की कोई उपयोगिता नहीं रहती। साहित्यकार स्वयं भी समाज की उपज होता है और सामाजिक परिस्थितियां उसे बनाती हैं। किसी भी युग के साहित्य को जाने के लिए उस युग की परिस्थितियों को जाना नितांत आवश्यक माना गया है। भक्ति काल में भक्ति भावना की प्रधानता होने के कारण आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने इस काल को भक्ति काल का नाम दिया। आदिकाल के वीरता और श्रृंगार से परिपूर्ण साहित्य से एकदम भिन्न इस काल के साहित्य में भक्ति का शांत झरना बहता है। कोई भी साहित्यिक प्रवृत्तियाँ यूं ही अचानक विकसित नहीं होती, उसके पीछे कई सारे प्रमुख कारक, शक्तियां और तमाम परिस्थितियां सक्रिय रहती हैं। लगभग 300 वर्षों के भक्ति साहित्य का सृजन कोई सहज सरल घटना नहीं थी। ऐतिहासिक दृष्टि से भक्ति आंदोलन के विकास को दो चरणों में बांटा जा सकता है- पहले चरण के अंतर्गत दक्षिण भारत का भक्ति आंदोलन आता है, और दूसरे चरण में उत्तर भारत का भक्ति आंदोलन आता है। हिंदी साहित्य के भक्ति काल का संबंध उत्तरी भारत के भक्ति आंदोलन से है। इस युग की राजनीतिक, सामाजिक, धार्मिक और सांस्कृतिक परिस्थितियों का विवेचन इस प्रकार है- राजनीतिक परिस्थितियां राजनीतिक दृष्टि से भक्ति काल का युग व्यवस्था का युग कहा जा सकता है।इस युग में मुख्य रूप से तुगलक वंश से लेकर मुगल वंश के बादशाह शाहजहां के शासनकाल तक का समय संकलित है। सर्वप्रथम तुगलक और लोधी वंश के शासकों ने यह राज्य किया। यह शासक प्रयोग अत्याचारी होने के साथ-साथ सत्ता के लालची भी थे। इनमें सांप्रदायिकता ...

भक्ति की श्रेष्ठता

जब बच्चा जन्म लेता है, तो कुछ दिनों में ही अपनी माँ को प्रेम करने लगता है, फिर अपने पिता को | धीरे धीरे वह अपने अन्य भाई,बहन को प्रेम करने लगता है | क्या उसे कोई यह प्रेम करना सिखाता है? नहीं | भगवान प्रत्येक जीव को प्रेम करने की शक्ति अर्थात भक्ति देकर ही इस जगत में भेजतें हैं | लेकिन हम इस शक्ति को शरीर के रिश्तेदारों व संसारिक वस्तुओं में निवेशित करते रहते हैं जबकि इसे हमें भगवान की सेवा या भक्ति में नियोजित करना होता है | तभी हम भगवत-प्रेम का विकास अपने हृदय में कर सकते हैं | वस्तुतः भगवान के साथ हमारा सम्बन्ध, सेवा का सम्बन्ध है | भगवान परम भोक्ता हैं और हम सारे जीव उनके भोग(सेवा) के लिए बने हैं और यदि हम भगवान के साथ उस नित्य भोग में भाग लेते हैं तो हम वास्तव में सुखी बनते है तथ आनन्द का उपभोग करते हैं, क्योंकि भगवान आनन्द के आगार हैं | हम किसी अन्य प्रकार से या स्वंतत्र रूप से कभी भी सुखी नही बन सकते | भक्ति-कर्म दो प्रकार का है ; राग भक्ति (स्वतः स्फूर्त) तथा विधि भक्ति (साधन भक्ति) | रागानुगा भक्ति से मनुष्य को मूल भगवान अर्थात कृष्ण की प्राप्ति होती है और विधि-विधानों से भक्ति करने पर मनुष्य को भगवान का विस्तार रूप प्राप्त होता है | माता यशोदा के पुत्र भगवान कृष्ण रागानुगा प्रेमा-भक्ति में लगे भक्तों के लिए उपलब्ध हैं | वैधि भक्ति करने से मनुष्य नारायण का पार्षद बनता हैं (चै.च.मध्य लीला २४.८४ -८७) | प्रहलाद महाराज ने अपने पिता दैत्य-राज हिरन्यकशिपू के पूछने पर सर्वश्रेष्ठ शिक्षा के रूप में नवधा भक्ति (९ प्रकार की भक्ति) का वर्णन किया (श्रीमद् भागवतम – ७.५.२३) : १.श्रवणं: भगवान के पवित्र नाम को सुनना भक्ति का शुभारम्भ है | श्रीमद् भागवतम के पाठ को सुनना सर्वाधिक म...

भक्तिकाल हिन्दी साहित्य का स्वर्ण युग । Complete information of the Bhaktikal । भक्तिकाल की सम्पूर्ण जानकरी । Bhaktikal ki Jankari ।

भक्तिकाल की सम्पूर्ण जानकरी Complete information of the B haktikal भक्तिकाल- एक परिचय B haktikal - an introduction हिन्दी साहित्य के इतिहास के वर्गीकरण में भक्तिकाल का द्वितीय स्थान है। भक्तिकाल का आरम्भ अधिकांश विद्वान सन् 1350 से मानते हैं, किन्तु आचार्य रामचन्द्र शुक्ल जी सन् 1375 से स्वीकारते हैं। इस काल को भक्ति का स्वर्ण युग कहा गया है क्योंकि इस काल में संत कबीर, जायसी, तुलसीदास, सूरदास इन समकालीन कवियों ने अपनी रचनाओं का निर्माण कर भक्ति को चरम पर पहुँचाया। उपासना भेद की दृष्टि से इस काल के साहित्य को दो भागों में बाँटा गया है। एक सगुण भक्ति और दूसरा निर्गुण भक्ति। निर्गुण के दो भेद किए गए है। संतो की निर्गुण उपासना अर्थात ज्ञानमार्गी शाखा तथा सूफियों की निर्गुण उपासना अर्थात प्रेममार्गी शाखा। सगुण में विष्णु के दो अवतार राम और कृष्ण की उपासना साहित्य सृजित है। इस पोस्ट में भक्तिकाल की सम्पूर्ण जानकारी (Bhaktikal ki jankari) प्रदान की जा रही है। Bhaktikal भक्तिकाल की परिस्थितियाँ- 1. राजनैतिक परिस्थितियाँ - हिन्दी साहित्य में भक्तिकाल तक उत्तरी भारत में मुस्लिम साम्राज्य की स्थापना हो चुकी थी। किन्तु इन दिनों मुगलों और अफगानों में परस्पर संघर्ष जारी हुआ । इस समय मुस्लिमों में हिन्दुओं से संबंध स्थापित कर अपना शासन दृढ करना शुरू किया। इस कालखण्ड में दिल्ली पर तुगलक वंश, लोधी वंश, बाबर, हुमायुं, अकबर, जहाँगीर और शाहजहाँ का शासन रहा है। मुगलवंश काल राजनीतिक दृष्टि से प्रायः यह काल अशान्त और संघर्षमय रहा था। इस काल में हिन्दुओं और मुसलिमों में द्वेष बढ गया था। जात-पात, छुआ-छूत, ऊँच-नीच की भावना अत्यधिक बढ गई थी। भक्तिकाल का साहित्य राजनीतिक वातावरण के प्रतिकूल है। कबीर...

चैतन्य महाप्रभु की सगुण भक्ति

पूरा नाम चैतन्य महाप्रभु अन्य नाम विश्वम्भर मिश्र, श्रीकृष्ण चैतन्य चन्द्र, निमाई, गौरांग, गौर हरि, गौर सुंदर जन्म जन्म भूमि मृत्यु सन् 1534 मृत्यु स्थान अभिभावक जगन्नाथ मिश्र और शचि देवी पति/पत्नी लक्ष्मी देवी और कर्म भूमि नागरिकता भारतीय अन्य जानकारी महाप्रभु चैतन्य के विषय में इन्हें भी देखें सगुण भक्ति को महत्त्व देते थे। भगवान का वह सगुण रूप, जो अपरिमेय शक्तियों और गुणों से पूर्ण है, उन्हें मान्य रहा। जीव उनकी दृष्टि में परमात्मा का शाश्वत अंश होते हुए भी परमात्मा का सेवक है। परमात्मा के अनेक नामों में अनेक शक्तियों का परिगणन किया गया है। अत: उन नामों का संकीर्तन ही जीव की बन्धनमुक्ति का एकमात्र साधन है। चैतन्य के मत में भक्ति चैतन्य ने बलदेव विद्याभूषण के अनुसार भक्ति मार्ग की तीन अवस्थाएं हैं- साधन, भाव और प्रेम। इन्द्रियों के माध्यम से की जाने वाली भक्ति जीव के हृदय में भगवत प्रेम को जागृत करती है। इसीलिए इसको साधन भक्ति कहा जाता है। भाव प्रेम की प्रथम अवस्था का नाम है, अत: भक्ति मार्ग की प्रक्रिया में भाव भक्ति का दूसरा स्थान है। जब भाव घनीभूत हो जाता है, तब वह प्रेम कहलाने लगता है। यही भक्ति की चरम अवस्था है और इस सोपान पर पहुँचने के बाद ही जीव मुक्ति भक्ति की पात्रता अन्याभिलाषिताशून्यं ज्ञानकमद्यिनावृतम्। आनुकूल्येन कृष्णनुशीलनं भक्तिरूत्तमा।। चैतन्य की भक्ति पद्धति वस्तुत: व्यवहार का विषय अधिक है। यही कारण है कि चैतन्य मतानुयायियों ने भक्ति के भेदोपभेद या अन्य सैद्धांतिक पक्षों पर अधिक बल नहीं दिया। रूप गोस्वामी के भक्ति 'रसामृतसिन्धु' और 'उज्ज्वल नीलमणि' नामक ग्रन्थों तथा

भक्ति क्या है ? भक्ति और भक्त के प्रकार

Table of Contents • • • • • • • • • • भक्ति का अर्थ पूजन , वंदना, संगीत, अर्चना करने वाले यह सभी भक्त कहलाते हैं। भजना कर्म करना भगवान की सेवा करना, यह मनुष्य की आवश्यकता है भक्ति की आवश्यकता है जोड़ना, परमात्मा के साथ जुड़ाव को भक्ति योग कहते हैं। भक्ति की परिभाषा जिस कर्म के अनुसार अपने इष्ट की सेवा की जाए उसे भक्ति कहते हैं। सृष्टि के प्रारंभ से ही व्यक्ति भक्त और भगवान की यह परंपरा चलती आ रही है। व्यक्ति किसी न किसी को अपना गुरु मानता है और अपने गुरु की अर्चना पूजा करता है। लेकिन भक्तों के वर्तमान स्वरूप को देखते हुए संपूर्ण भाव विकृत हो चुका है। भक्तों का सार बदल दिया गया है। यह व्यवसाय के रूप में प्रचलित कर लिया गया है। भक्ति का स्वरूप कहीं छुप सा गया है भक्ति के माध्यम से भक्तों को डराया जा रहा है। भक्त के प्रकार श्रीमद्भागवत गीता के अनुसार चार प्रकार के भक्त चार प्रकार के होते है 1 आर्त – जो भक्त भगवान के पास जाते हैं और बाद में भगवान को भूल जाते हैं यानी जब मनुष्य को दुख होता है तो वह भगवान को याद करता है और सुख होने पर भगवान को भूल जाते हैं यह अच्छी भक्ति नहीं है इससे आर्त भक्ति कहते हैं। 2 अर्थाती – सभी चीजों की कामना करना लालसा अर्थ पुत्र की लालसा की प्राप्ति, धन की प्राप्ति, रात से कब प्राप्ति को बढ़ावा देना कैसे भक्त भगवान के पास हमेशा कुछ ना कुछ प्राप्त करने के लिए ही जाते हैं इसलिए ही वह भगवान की पूजा अर्चना करते हैं ऐसे भक्त भगवान को प्राप्त नहीं कर सकते। 3 जिज्ञासु जानने के लिए जो हमेशा प्रेरित होते हैं उन्हें दिव्यांशु भक्त कहते हैं । ऐसे भक्त नई नई चीजों को जानना चाहते हैं और भगवान के प्रति अग्रसर रहते हैं यह मध्यम श्रेणी के भक्त कहलाते हैं। यह परमात्मा...

भारतीय धर्म

भारतीय परंपरा में जीवन के चार पुरुषार्थ माने गए है . धर्म , अर्थ , काम और मोक्ष . ये जीवन का मूल तत्व या पदार्थ भी हैं , जिन्हें प्राप्त कर लेना मानवजीवन की वास्तविक उपलब्धि कही जा सकती है . इनमें से पहले तीन की प्राप्ति इसी जीवन में संभव है , जबकि चौथे के लिए मृत्यु के पार दस्तक देना जरूरी है . इस बारे में आगे चर्चा करने से पहले यह जान लेना आवश्यक है कि मोक्ष क्या है . भारतीय परंपरा में इसका सीधा – सीधा मतलब है—मुक्ति , यानी संसार के आवागमन से दूर हो जाना . सामान्यत इसका अर्थ उस स्थिति से लिया जाता है जब आत्मा परमात्मा में मिलकर उसका अभिन्न – अटूट हिस्सा बन जाती है . दोनों के बीच का सारा द्वैत विलीन हो जाता है . यह जल में कुंभ और कुंभ में जल की – सी स्थिति है . जल घड़े में है , घड़ा जल में . घड़ा यानी पंचमहाभूत से बनी देह . पानी की दो सतहों के बीच फंसी मिट्टी की पतली – सी क्षण – भंगुर दीवार , जिसकी उत्पत्ति भी जल यानी परमतत्त्व के बिना संभव नहीं . वेदांत की भाषा में जो माया है . तो उस पंचमहाभूत से बने घट के मिटते ही उसमें मौजूद सारा जल सागर के जल में समा जाता है . सागर में मिलकर उसी का रूप धारण कर लेता है . यही मोक्ष है जिसका दूसरा अर्थ संपूर्णता भी है , आदमी को जब लगने लगे कि जो भी उसका अभीष्ट था , जिसको वह प्राप्त करना चाहता था , वह उसको प्राप्त हो चुका है . उसकी दृष्टि नीर – क्षीर का भेद करने में प्रवीण हो चुकी है . जिसके फलस्वरूप वह इस संसार की निस्सारता को , उसके मायावी आवरण को जान चुका है . साथ ही वह इस संसार के मूल और उसके पीछे निहित परमसत्ता को भी पहचानने लगा है . उसे इतना आत्मसात कर चुका है कि उससे विलगाव पूर्णतः असंभव है . अब कोई भी लालच , कोई भी प्रलोभन कोई भी शक्...

भक्ति के अवस्थाभेद

भक्ति विभिन्न रूपों में प्रकाशित होती है। 1 पहला है – ‘श्रद्धा’। लोग मन्दिरों और पवित्र स्थानों के प्रति श्रद्धा क्यों प्रकट करते हैं? इसलिए कि वहाँ भगवान की पूजा होती है, ऐसे स्थानों में उनकी सत्ता अधिक अनुभूत होती है। प्रत्येक देश में लोग 2 जो लोग केवल उन्ही की चर्चा करते हैं, वे भक्त को मित्र के समान प्रतीत होते हैं, और जो अन्य लोग अन्य विषयों की चर्चा करते हैं, वे उसको शत्रु के समान लगते हैं। प्रेम की इससे भी उच्च अवस्था तो वह हैं, जब उन प्रेमास्पद भगवान के लिए ही जीवन धारण किया जाता है, जब उन प्रेमस्वरूप के निमित्त ही प्राण धारण करना सुन्दर और सार्थक समझा जाता है। ऐसे प्रेमी के लिए उन परम प्रेमास्पद भगवान बिना एक क्षण भी रहना असम्भव हो उठता है। उन प्रियतम का चिन्तन हृदय में सदैव बने रहने के कारण ही उसे जीवन इतना मधुर प्रतीत होता है। शास्त्रों में इसी अवस्था को ‘तदर्थप्राणसंस्थान’ कहा है। ‘तदीयता’ तब आती है, जब साधक भक्ति-मत के अनुसार पूर्णावस्था को प्राप्त हो जाता है, जब वह श्रीभगवान के चरणारविन्दों का स्पर्श कर धन्य और कृतार्थ हो जाता है। तब उसकी प्रकृति विशुद्ध हो जाती है – सम्पूर्ण रूप से परिवर्तित हो जाती है। तब उसके जीवन की सारी साध पूरी हो जाती है। फिर भी, इस प्रकार के बहुतसे भक्त बस उनकी उपासना के निमित्त ही जीवन धारण किये रहते हैं। इस दुःखमय जीवन में यही एकमात्र सुख है, और वे इसे छोड़ना नहीं चाहते। “हे राजन्! हरि के ऐसे मनोहर गुण हैं कि जो लोग उनको प्राप्त कर संसार की सारी वस्तुओं से तृप्त हो गये हैं, जिनके हृदय की सब 3– “जिन भगवान की उपासना सारे देवता, मुमुक्षु और ब्रह्मवादीगण करते हैं।” 4 ऐसा है प्रेम का प्रभाव! जब मनुष्य अपने आपको बिलकुल भूल जाता है और जब उस...

भक्ति

पंजाब तथा काश्मीर से निमन्त्रण मिलने पर स्वामी विवेकानन्द ने उन प्रदेशों की यात्रा की। कश्मीर में वे एक महीने से ज्यादा समय तक रहे। काश्मीर नरेश तथा उनके भाइयों ने स्वामीजी के कार्य की बड़ी सराहना की। तत्पश्चात् वे कुछ दिनों तक मरी, रावलपिण्डी और जम्मू में रहे, जहाँ उन्होंने प्रत्येक स्थान पर व्याख्यान दिया। फिर वे सियालकोट गये और वहाँ उन्होंने दो व्याख्यान दिये। एक व्याख्यान अंग्रेजी में था और दूसरा हिन्दी में। हिन्दी व्याख्यान का विषय था ‘भक्ति’, जिसका संक्षिप्त विवरण नीचे दिया जा रहा है : संसार में जितने धर्म हैं उनकी उपासना प्रणाली में विभिन्नता होते हुए भी वे वस्तुतः एक ही है। किसी किसी स्थान पर लोग मन्दिरों का निर्माण कर उन्हीं में उपासना करते हैं; कुछ लोग अग्नि की उपासना करते हैं; किसी किसी स्थान में लोग मूर्तिपूजा करते हैं तथा कितने ही आदमी ईश्वर के अस्तित्व में ही विश्वास नहीं करते। ये सब ठीक हैं, इन सब में प्रबल विभिन्नता विद्यमान है, किन्तु यदि प्रत्येक 1– ‘हे भगवन्, तुम्हारे असंख्य नाम है और तुम्हारे प्रत्येक नाम में तुम्हारी अनन्त शक्ति विद्यमान है।’ और प्रत्येक नाम में गम्भीर अर्थ गर्भित है। तुम्हारे नाम का उच्चारण करने के लिए स्थान, काल आदि किसी भी चीज का विचार करना आवश्यक नहीं। हमें सदा मन में ईश्वर का चिन्तन करना चाहिए और इसके लिए स्थान, काल का विचार नहीं करना चाहिए। ईश्वर विभिन्न साधकों के द्वारा विभिन्न नामों से उपासित होते हैं, किन्तु यह भेद केवल दृष्टिमात्र का है, वास्तव में कोई भेद नहीं है। कुछ लोग सोचते हैं कि हमारी ही साधनाप्रणाली अधिक कार्यकारी है, और दूसरे अपनी साधनाप्रणाली को ही श्रीनाथे जानकीनाथे अभेदः परमात्मनि। तथापि मम सर्वस्वं रामः कमललोचनः॥ ...