गीता 15 अध्याय संस्कृत

  1. भगवत गीता में कितने श्लोक है
  2. श्रीमद् भगवद्गीता
  3. Bhagavad Gita Chapter 15 Sanskrit Shloka [Audio, PDF, Video]
  4. अध्याय 5


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भगवत गीता में कितने श्लोक है

भगवत ❤ गीता में कितने श्लोक है | गीता में कितने श्लोक हैं Bhagwat Geeta Me Kitne Shlok Hai भगवद्गीता - एक ऐंसा ग्रंथ जिसका नाम लेने मात्र से समस्त पाप नष्ट हो जाते हैं। भगवान श्रीकृष्ण का हृदय ❤ है यह भगवद्गीता। साक्षात् भगवान् के मुख से निकली गीता को सुनना व पढना भला कौन नहीं चाहेगा! वास्तव में हमारे भगवान् श्रीकृष्ण ने इस गीता के माध्यम से दुनिया को बहुत कुछ बताने की कोशिश की है। ज्ञान, कर्म व भक्ति तीनों का संगम है- यह भगवद्गीता। इसे भी दबाएँ- तो आइये, आज हम जानेंगे- भगवद्गीता की रोचक रहस्यमय बातें और भगवद्गीता में कितने श्लोक हैं?कुल कितने श्लोक हैं एवं प्रत्येक अध्याय की श्लोक संख्या- हम आपको बताने जा रहे हैं। तो आइये! खूब ज्ञान पाइये! इसे भी दबाएँ- भगवत गीता में कितने अध्याय हैं? भगवान श्रीकृष्ण के मुख से निकली व वेद व्यास द्वारा विरचित- श्रीमद्भगवद्गीता में कुल 18 अध्याय हैं। यह 18 संख्या भगवान श्रीकृष्ण व वेदव्यास जी से बहुत बड़ा सम्बंध रखती हैं। शायद इसी कारण वेदव्यास जी ने अठारह 18 संख्या को बहुत ज्यादा प्रयोग किया है। इसके कुछ रहस्य देखिए- श्रीमद्भगवद्गीता से जुड़ी रोचक बातें • भगवत गीता में 18 अध्याय हैं। • महाभारत में 18 पर्व हैं। • महाभारत का युद्ध 18 दिन तक चला। • पुराणों की संख्या- 18 है। • उपपुराणों की संख्या भी- 18 है। • महाभारत में अक्षौहिणी सेना का परिमाण भी- 18 था। अब आपको अठारह 18 संख्या का रहस्य पता चल गया होगा। तो चलिए, हम अपने विषय पर आते हैं- हम आपको यंहा भगवद्गीता में कितने श्लोक हैं व प्रत्येक अध्याय की श्लोक संख्या क्या है यह स्पष्ट करने जा रहे हैं। भगवद्गीता में 18 अध्याय हैं यह तो आपने जान लिया। अब गीता श्लोक संख्या Bhagwat Geeta Shlokकी चर्च...

श्रीमद् भगवद्गीता

Sanskrit Commentary By Sri Madhusudan Saraswati ।।18.66।।अधुना तु ईश्वरः सर्वभूतानां हृद्देशे तिष्ठति तमेव सर्वभावेन शरणं गच्छेति यदुक्तं तद्विवृणोति -- सर्वधर्मान्प्ररित्यज्येति। केचिद्वर्णधर्माः केचिदाश्रमधर्माः केचित्सामान्यधर्मा इत्येवं सर्वानपि धर्मान्परित्यज्य विद्यमानानविद्यमानान्वा शरणत्वेनानादृत्य मामीश्वरमेकमद्वितीयं सर्वधर्माणामधिष्ठातारं फलदातारं च शरणं व्रज। धर्माः सन्तु न सन्तु वा किं तैरन्यसापेक्षैः। भगवदनुग्रहादेव त्वन्यनिरपेक्षादहं कृतार्थो भविष्यामीति निश्चयेन परमानन्दघनमूर्तिमनन्तं श्रीवासुदेवमेव भगवन्तमनुक्षणं भावनया भजस्व। इदमेव परमं तत्त्वं नातोऽधिकमस्तीति विचारपूर्वकेण प्रेमप्रकर्षेण सर्वानात्मचिन्ताशून्यया मनोवृत्त्या तैलधारावदविच्छिन्नया सततं चिन्तयेत्यर्थः। अत्र मामेकं शरणं ब्रजेत्यनेनैव सर्वधर्मशरणतापरित्यागे लब्धे सर्वधर्मान्परित्यज्येति निषेधानुवादस्तु कार्यकारितालाभाययज्ञायज्ञीये साम्नि ऐरं कृत्वोद्भेयमित्यत्र न गिरा गिरेतिब्रूयात् इतिवत्। तथाच ममेव सर्वधर्मकार्यकारित्वान्मदेकशरणस्य नास्ति धर्मापेक्षेत्यर्थः। एतेनेदमपास्तं सर्वधर्मान्परित्यज्येत्युक्ते नाधर्माणां परित्यागो लभ्यते अतो धर्मपदं कर्ममात्रपरमिति। नह्यत्र कर्मत्यागो विधीयते अपितु विद्यमानेऽपि कर्मणि तत्रानादरेण भगवदेकशरणतामात्रं ब्रह्मचारिगृहस्थवानप्रस्थभिक्षूणां साधारण्येन विधीयते। तत्र सर्वधर्मान्परित्यज्येति तेषां स्वधर्मादरसंभवेन तन्निवारणार्थम्। अधर्मे चानर्थफले कस्याप्यादराभावात्तत्परित्यागवचनमनर्थकमेव? शास्त्रान्तरप्राप्तत्वाच्च।,तस्माद्वर्णाश्रमधर्माणामभ्युदयहेतुत्वप्रसिद्धेर्मोक्षहेतुत्वमपि स्यादिति शङ्कानिराकरणार्थमेवैतद्वच इति न्याय्यम्। नच सर्वधर्माधर्मपरित्यागोऽत्र विधी...

Bhagavad Gita Chapter 15 Sanskrit Shloka [Audio, PDF, Video]

।। ॐ श्रीसद्गुरु परमात्मने नमः ।। गीता के पद्रहवें अध्याय का पाठ करके भोजन करने से भोजन प्रसाद बन जाता है । ।। अथ पंचदशोऽध्यायः ।। श्री भगवानुवाच ऊर्ध्वमूलमधःशाखमश्वत्थं प्राहुरव्ययम् । छन्दांसि यस्य पर्णानि यस्तं वेद स वेदवित् ।।1।। अधश्चोर्ध्वं प्रसृतास्तस्य शाखा गुणप्रवृद्धा विषयप्रवालाः । अधश्च मूलान्यनुसंततानि कर्मानुबन्धीनि मनुष्यलोके ।।2।। न रूपमस्येह तथोपलभ्यते नान्तो न चादिर्न च संप्रतिष्ठा । अश्वत्थमेनं सुविरूढमूलमसंगशस्त्रेण दृढेन छित्त्वा ।।3।। ततः पदं तत्परिमार्गितव्यं यस्मिन्गता न निवर्तन्ति भूयः । तमेव चाद्यं पुरुषं प्रपद्ये यतः प्रवृत्तिः प्रसृता पुराणी ।।4।। निर्मानमोहा जितसंगदोषा अध्यात्मनित्या विनिवृत्तकामाः । द्वन्द्वैर्विमुक्ताः सुखदुःखसंज्ञैर्गच्छ्नत्यमूढाः पदमव्ययं तत् ।।5।। न तद्भासयते सूर्यो न शशांको न पावकः । यद्गत्वा न निवर्तन्ते तद्धाम परमं मम ।।6।। ममैवांशो जीवलोके जीवभूतः सनातनः । मनःषष्ठानीन्द्रियाणि प्रकृतिस्थानि कर्षति ।।7।। शरीरं यदवाप्नोति यच्चाप्युत्क्रामतीश्वरः । गृहीत्वैतानि संयाति वायुर्गन्धानिवाशयात् ।।8।। श्रोत्रं चक्षुः स्पर्शनं च रसनं घ्राणमेव च । अधिष्ठाय मनश्चायं विषयानुपसेवते ।।9।। उत्क्रामन्तं स्थितं वापि भुंजानं वा गुणान्वितम् । विमूढा नानुपश्यन्ति पश्यन्ति ज्ञानचक्षुषः ।।10।। यतन्तो योगिनश्चैनं पश्य्नत्यात्मन्यवस्थितम् । यतन्तोऽप्यकृतात्मानो नैनं पश्य्नत्यचेतसः ।।11।। यदादित्यगतं तेजो जगद्भासयतेऽखिलम् । यच्चन्द्रमसि यच्चाग्नौ तत्तेजो विद्धि मामकम् ।।12।। गामाविश्य च भूतानि धारयाम्यहमोजसा । पुष्णामि चौषधीः सर्वाः सोमो भूत्वा रसात्मकः ।।13।। अहं वैश्वानरो भूत्वा प्राणिनां देहमाश्रितः । प्राणापानसमायुक्तः पचाम्यन्नं चतुर्विधम् ...

अध्याय 5

श्रीमद् भगवद् गीता - पांचवां अध्याय दिव्य सारांश् विश्लेषण:- गीता के इस अध्याय 5 में गीता ज्ञान कहने वाले ने अपने से अन्य परमेश्वर की विशेष जानकारी बताई है। श्लोक नं. 14-21, 24, 25, 26 में विशेष वर्णन है जो इस प्रकार है:- गीता अध्याय 5 श्लोक 14 का अनुवाद:- गीता ज्ञान बोलने वाले ने अपने से अन्य कुल के मालिक की महिमा बताई है कि ‘‘प्रभु यानि कुल का स्वामी सर्व प्रथम विश्व का सृजन करता है। तब न तो किसी को कर्तापन का, न कर्मों का आधार होता है, न कर्मफल के संयोग ही आधार होते, परंतु सर्व प्राणी अपने स्वभाववश किए कर्म का फल ही बरत रहे होते हैं। अध्याय 5 श्लोक 15 का अनुवाद:- सर्वव्यापक सर्व का स्वामी यानि पूर्ण परमात्मा न किसी का पाप और न किसी के शुभ कर्म का ही प्रतिफल देता है यानि निर्धारित किए नियम अनुसार जीव फल प्राप्त करता है, किंतु अज्ञान के द्वारा ज्ञान ढ़का हुआ है जिससे तत्वज्ञानहीनता के कारण जानवरों तुल्य सब अज्ञानी मनुष्य मोहित हो रहे हैं अर्थात् स्वभाववश शास्त्रा विधि रहित भक्ति कर्म करके क्षणिक सुखों में आसक्त हो रहे हैं। जो साधक शास्त्राविधि अनुसार भक्ति कर्म करते हैं। उनके पाप प्रभु क्षमा कर देता है, अन्यथा संस्कार ही बरतता है अर्थात् प्राप्त करता है।(5/15) इसी का विस्तृत विवरण श्लोक 16-17 में पढ़ें। अध्याय 5 श्लोक 16 का अनुवाद:- परंतु जिनका वह अज्ञान पूर्ण परमात्मा के द्वारा संत रूप में प्रकट होकर आत्मज्ञान तथा परमात्म ज्ञान रूपी तत्वज्ञान बताया जाता है। जिसे तत्वदर्शी संत आगे प्रचार करते हैं, उस आत्मज्ञान द्वारा नष्ट हो गया है। उनका वह तत्वज्ञान (तत्परम्) गीता ज्ञान दाता से दूसरे उस पूर्ण परमात्मा को सूर्य की तरह प्रकाशित कर देता है यानि अज्ञान अंधेरा पूर्ण रूप से समाप...