ज्ञानेश्वरी अध्याय पहिला अर्थासहित

  1. ज्ञानेश्वरी अभ्यास (Studying Dnyaneshwari): ज्ञानेश्वरी अध्याय ४, ओव्या ९३ ते १७५
  2. ज्ञानेश्वरी/अध्याय पहिला


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ज्ञानेश्वरी अभ्यास (Studying Dnyaneshwari): ज्ञानेश्वरी अध्याय ४, ओव्या ९३ ते १७५

आणि उदोअस्ताचेनि प्रमाणें, जैसे न चलतां सूर्याचें चालणें। तैसें नैष्कर्म्यत्व जाणे, कर्मीचि असतां॥ ९९ ॥ तो मनुष्यासारिखा तरी आवडे, परी मनुष्यत्व तया न घडे। जैसें जळीं जळामाजीं न बुडे, भानुबिंब ॥ १०० ॥ तेणें न पाहतां विश्व देखिलें, न करितां सर्व केले। न भोगितां भोगिलें, भोग्यजात ॥ १०१ ॥ एकेचि ठायीं बैसला, परि सर्वत्र तोचि गेला। हें असो विश्व जाहला, आंगेंचि तो॥ १०२ ॥ यस्य सर्वे समारम्भाः कामसंकल्पवर्जिताः। ज्ञानाग्निदग्धकर्माणं तमाहुः पंडितं बुधाः॥ १९ ॥ जया पुरुषाचां ठायीं, कर्माचा तरी खेदु नाहीं। परी फळापेक्षा कहीं, संचरेना॥ १०३ ॥ आणि हें कर्म मी करीन, अथवा आदरिले सिद्धी नेईन। येणें संकल्पेंही जयाचें मन, विटाळेना॥ १०४ ॥ ज्ञानाग्निचेनि मुखें, जेणें जाळिली कर्में अशेखें। तो ब्रह्मचि मनुष्यवेखें, वोळख तूं॥ १०५ ॥ त्यक्त्वा कर्मफलासंगं नित्यतृप्तो निराश्रयः। कर्मण्यभिप्रवृत्तोऽपि नैव किंचित् करोति सः॥ २० ॥ जो शरीरीं उदासु, फळभोगीं निरासु। नित्यता उल्हासु, होऊनि असे॥ १०६ ॥ जो संतोषाचां गाभारां, आत्मबोधाचिया वोगरा। पुरे न म्हणेचि धनुर्धरा, आरोगितां॥ १०७ ॥ म्हणोनि अवसरें जें जें पावे, तेणेचि तो सुखावे। जया आपुले आणि परावें, दोन्ही नाहीं॥ १०९ ॥ तो दिठी जें पाहे, ते आपणचि होऊनि जाये। आइकें तें आहे, तोचि जाहाला॥ ११० ॥ चरणीं हन चाले, मुखें जें जें बोले। ऐसें चेष्टाजात तेतुलें, आपणचि जो॥ १११ ॥ हें असो विश्व पाहीं, जयासि आपणपेवांचूनि नाहीं। आता कवण तें कर्म कायी, बाधी तयातें॥ ११२ ॥ हा मत्सरु जेथ उपजे, तेतुले नुरेचि जया दुजें। तो निर्मत्सरु काइ म्हणिजे, बोलवरी॥ ११३ ॥ म्हणोनि सर्वांपरी मुक्तु, तो सकर्मुचि तो कर्मरहितु। सगुण परि गुणातीतु, एथ भ्रांति नाहीं॥ ११४ ॥ गतसंगस्य मुक्तस्य ज्ञानावस्थ...

ज्ञानेश्वरी/अध्याय पहिला

ॐ नमोजी आद्या । वेद प्रतिपाद्या । जय जय स्वसंवेद्या । आत्मरुपा ॥१॥ देवा तूंचि गणेशु | सकलमति प्रकाशु | म्हणे निवृत्ति दासु | अवधारिजो जी ||२|| हें शब्दब्रह्म अशेष | तेचि मूर्ति सुवेष | तेथ वर्णवपु निर्दोष | मिरवत असे ||३|| स्मृति तेचि अवयव | देखा अंगिकभाव | तेथ लावण्याची ठेव | अर्थशोभा ||४|| अष्टादश पुराणे | तीचि मणिभूषणे | पदपद्धती खेवणे | प्रमेयरत्नांची ||५|| पदबंध नागर | तेचि रंगाथिले अंबर | जेथ साहित्यवाणे | सपूर उजाळाचे ||६|| देखा काव्यनाटका | जे निर्धारिता सकौतुका | त्याचि रुणझुणती क्षुद्रघंटिका | अर्थध्वनी || ७|| नाना प्रमेयांचि परी | निपुणपणे पाहता कुसरी | दिसती उचित पदे माझारी | रत्नें भली || ८|| तेथ व्यासादिकांच्या मति | तेचि मेखळा मिरवती | चोखाळपणे झळकती | पल्लवसडका || ९|| देखा षड्दर्शने म्हणिपती | तेचि भुजांची आकृती || म्हणऊनि विसंवादे धरिती | आयुधे हाती || १०|| तरी तर्क तोचि परशु | नीतिभेदु अंकुशु | वेदांतु तो महारसु | मोदकाचा || ११ || एके हाति दंतु | जो स्वभावता खंडितु | तो बौद्धमत संकेतु | वार्तिकांचा || १२ || मग सहजे सत्कारवादु | तो पद्मकरु वरदु | धर्मप्रतिष्ठा तो सिद्धु | अभयहस्तु || १३ || देखा विवेकमंतु सुविमळु | तोचि शुंडादंडु सरळु | जेथ परमानंदु केवळु | महासुखाचा || १४ || तरी संवादु तोचि दशनु | जो समताशुभ्रवर्णु | देवो उन्मेषसुक्ष्मेक्षणु | विघ्नराजु || १५ || मज अवगमलिया दोनी | मीमांसा श्रवणस्थानी | बोधमदामृत मुनी | अलि सेविती || १६ || प्रमेयप्रवाल सुप्रभ | द्वैताद्वैत तेचि निकुंभ | सरिसे एकवटत | इभ मस्तकावरी || १७ || उपरि दशोपनिषदे | जिये उदारे ज्ञानमकरंदे | तिये कुसुमे मुगुटी सुगंधे | शोभती भली || १८ || अकार चरणयुगुल | उकार उदर विशाल | मकार महामंडल | ...