काम क्रोध लोभ मोह मद मत्सर

  1. त्रिविध दु:खों का निवारण
  2. काम (धर्म)
  3. परहित
  4. मानस दोष
  5. षड्रिपू पासून सुटका: काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद आणि मत्सर (Freedom from Lust, Anger, Greed, Ego, Infatuation & Envy) – RAJU NANDKAR DEPUTY COLLECTOR BLOG
  6. काम, क्रोध, लोभ, मोह मद, मत्सर, अहंकार, आलस्य, हिंसा एवं चोरी के परित्याग करने का पर्व दशहरा
  7. षड्रिपू
  8. मत्सर
  9. मानस दोष
  10. षड्रिपू


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त्रिविध दु:खों का निवारण

समस्त दु:खों के कारण तीन हैं—(१) अज्ञान (२) अशक्ति (३) अभाव। जो इन तीनों कारणों को जिस सीमा तक अपने से दूर करने में समर्थ होगा, वह उतना ही सुखी बन सकेगा। अज्ञान के कारण मनुष्य का दृष्टिकोण दूषित हो जाता है। वह तत्त्वज्ञान से अपरिचित होने के कारण उलटा- सीधा सोचता है और उलटे काम करता है, तदनुरूप उलझनों में अधिक फँसता जाता है और दुःखी होता है। स्वार्थ, भोग, लोभ, अहंकार, अनुदारता और क्रोध की भावनाएँ मनुष्य को कर्तव्यच्युत करती हैं और वह दूरदर्शिता को छोड़कर क्षणिक, क्षुद्र एवं हीन बातें सोचता है तथा वैसे ही काम करता है। फलस्वरूप उसके विचार और कार्य पापमय होने लगते हैं। पापों का निश्चित परिणाम दुःख है। दूसरी ओर अज्ञान के कारण वह अपने और दूसरे सांसारिक गतिविधियों के मूल हेतुओं को नहीं समझ पाता। फल स्वरूप असम्भव आशाएँ, तृष्णाएँ, कल्पनाएँ किया करता है। इस उलटे दृष्टिकोण के कारण साधारण- सी बातें उसे बड़ी दुःखमय दिखाई देती हैं, जिसके कारण वह रोता- चिल्लाता रहता है। आत्मीयों की मृत्यु, साथियों की भिन्न रुचि, परिस्थितियों का उतार- चढ़ाव स्वाभाविक है, पर अज्ञानी सोचता है कि मैं जो चाहता हूँ, वही सदा होता रहे। प्रतिकूल बात सामने आये ही नहीं। इस असम्भव आशा के विपरीत घटनाएँ जब भी घटित होती हैं, तभी वह रोता- चिल्लाता है। तीसरे अज्ञान के कारण भूलें भी अनेक प्रकार की होती हैं, समीपस्थ सुविधाओं से वञ्चित रहना पड़ता है, यह भी दु:ख का हेतु है। इस प्रकार अनेक दु:ख मनुष्य को अज्ञान के कारण प्राप्त होते हैं। अशक्ति का अर्थ है- निर्बलता। शारीरिक, मानसिक, सामाजिक, बौद्धिक, आत्मिक निर्बलता के कारण मनुष्य अपने स्वाभाविक जन्मसिद्ध अधिकारों का भार अपने कन्धों पर उठाने में समर्थ नहीं होता, फल स्वरूप उसे ...

काम (धर्म)

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परहित

साधु का स्वभाव परोपकारी होता है, जैसे वृक्ष कभी अपना फल स्वंय नहीं खाता है और नदी जिस प्रकार से स्वंय के नीर का संचय नहीं करती है। लोक कल्याण के हेतु बहती रहती है। वैसे ही साधु और संत भी अपने ज्ञान का उपयोग परमार्थ के लिए ही करते हैं, स्वंय के कल्याण के लिए नहीं। साधु भी अपने सुखदुःख कष्टो की चिंता न करके अन्य के लिए अपने शरीर मन आत्मा से कल्याण का भाव रखता है।कबीर साहेब की इससे प्रकृतिवादी द्रष्टिकोण का भी पता चलता है। प्रकृति सदा देने का भाव रखती है वह बदलें में कुछ भी नहीं चाहती है। कबीर साहेब का जीवन भी प्रकृति के आस पास ही नजर आता है। वृक्ष कबहुँ नहिं फल भखै, नदी न संचै नीर। परमारथ के कारने, साधुन धरा सरीर।। वृक्ष अपने फल स्वयं नहीं खाते हैं और सरोवर(तालाब)भी अपना पानी स्वयं नहीं पीती है। इसी तरह अच्छे और सज्जन व्यक्ति वो हैं जो दूसरों के कार्य के लिए संपत्ति को संचित करते हैं। तरुवर फल नहिं खात है, सरवर पियहि न पान॥ कहि रहीम पर काज हित, संपति सँचहि सुजान॥ मैथिलीशरण गुप्त ने तो अपना स्वार्थ साधने वाले मनुष्य को पशु कहा है। यही पशु–प्रवृत्ति है कि आप आप ही चरे¸ वही मनुष्य है कि जो मनुष्य के लिए मरे।। काकभुशुण्डिजी ने कहा हे गरुड़जी मन,वचन और शरीर से परोपकार करना, यह तो संतों का सहज स्वभाव है। पर उपकार बचन मन काया। संत सहज सुभाउ खगराया॥ जिसने अपना उपकार नहीं किया ऐसा व्यक्ति पराया उपकार कर ही नहीं सकता सभी में परोपकार करने की पात्रता नहीं होती है! जिनको अपना कोई स्वार्थ नहीं है और जो पूर्ण काम है वे ही परोपकार कर सकते है !जो ना के बराबर है मानस में तो साफ साफ कहा है! स्वारथ मीत सकल जग माहीं। सपनेहुँ प्रभु परमारथ नाहीं॥ सुर नर मुनि सब कै यह रीती। स्वारथ लागि करहिं सब प्र...

मानस दोष

१. काम- इन्द्रियों के विषय में अधिक आसक्ति रखना 'काम' कहलाता है ।। २. क्रोध- दूसरे के अहित की प्रवृत्ति जिसके द्वारा मन और शरीर भी पीड़ित हो उसे क्रोध कहते हैं ।। ३. लोभ- दूसरे के धन, स्त्री आदि के ग्रहण की अभिलाषा को लोभ कहते हैं ।। ४. ईर्ष्या- दूसरे की सम्पत्ति- समृद्धि को सहन न कर सकने को ईर्ष्या कहते हैं ।। ५. अभ्यसूया- छिद्रान्वेषण के स्वभाव के कारण दूसरे के गुणों को भी दोष बताना अभ्यसूया या असूया कहते हैं ।। ६. मार्त्सय- दूसरे के गुणों को प्रकट न करना अथवा कूररता दिखाना 'मात्र्सय' कहलाता है ।। ७. मोह- अज्ञान या मिथ्या ज्ञान (विपरीत ज्ञान) को मोह कहते हैं ।। ८. मान- अपने गुणों को अधिक मानना और दूसरे के गुणों का हीन दृष्टि से देखना 'मान' कहलाता है ।। ९. मद- मान की बढ़ी हुई अवस्था 'मद' कहलाती है ।। १०. दम्भ-जो गुण, कर्म और स्वभाव अपने में विद्यमान न हों, उन्हें उजागर कर दूसरों को ठगना 'दम्भ' कहलाता है ।। ११. शोक- पुत्र आदि इष्ट वस्तुओं के वियोग होने से चित्त में जो उद्वेग होता है, उसे शोक कहते हैं ।। १२. चिन्ता- किसी वस्तु का अत्यधिक ध्यान करना 'चिन्ता' कहलाता है ।। १३. उद्वेग- समय पर उचित उपाय न सूझने से जो घबराहट होती है उसे 'उद्वेग' कहते हैं ।। १४. भय- अन्य आपत्ति जनक वस्तुओं से डरना 'भय' कहलाता है ।। १५. हर्ष- प्रसन्नता या बिना किसी कारण के अन्य व्यक्ति की हानि किए बिना अथवा सत्कर्म करके मन में प्रसन्नता का अनुभव करना हर्ष कहलाता है ।। १६. विषाद- कार्य में सफलता न मिलने के भय से कार्य के प्रति साद या अवसाद-अप्रवृत्ति की भावना 'विषाद' कहलाता है ।। About Gayatri Pariwar is a living model of a futuristic society, being guided by principles of human unity and equality. ...

षड्रिपू पासून सुटका: काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद आणि मत्सर (Freedom from Lust, Anger, Greed, Ego, Infatuation & Envy) – RAJU NANDKAR DEPUTY COLLECTOR BLOG

षड्रिपू पासून सुटका: काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद आणि मत्सर (Freedom from Lust, Anger, Greed, Ego, Infatuation & Envy) मानवी मन हे विलक्षण आहे. ते समजून आणि उमजून घेण्यात अवघड आणि अत्यंत क्लिष्ट असते. मन हे कायम बदलणारे असते आणि ते व्यक्तीपरत्वे वेगवेगळ्या भाव-भावना दाखवते. त्यामुळे अशा मनाचा ठाव घेणे हे तेवढेच अवघड आणि अडचणीचे ठरते. या मनातून हजारो विचार, सहा मुख्य भावना आणि साधारणपणाने तीस दुय्यम भावना निर्माण होत असतात. या भावनांमधील काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद आणि मत्सर या सहा भावनांना एकत्रितरित्या षड्रिपू किंवा षडरिपू असे म्हटले जाते. रिपु म्हणजे दोष अथवा शत्रू होय. अशा हा दोषांचे प्रमाण आपल्या भावनिक आणि मानसिक अवस्थांमध्ये प्रमाणापेक्षा जास्त झाले की मानवी वर्तन हे स्वत:ला आणि समाजाला विधायक न ठरता विघातक ठरते. यातून आपले व्यक्तिमत्व कमालीचे घसरते आणि सामाजिक प्रतिष्ठा, सहजीवन आणि परस्पर सहकार्ये या मध्ये दोष अथवा बाधा निर्माण होतात. सामाजिक सहजीवन आणि परस्पर सहकार्ये मध्ये बाधा निर्माण झाल्या की विकास आणि प्रगती खुंटते. बर्‍याच वेळा आपल्याला या षड्रिपूनी घेरले आहे आणि आपण चक्रव्यूहात फसलो आहोत, हे लवकर लक्षात येत नाही. तसेच आपला अहंकार किंवा ज्याला आपण इगो म्हणतो, तो त्याचा पडदा किंवा आवरण या षड्रिपू भोवती एवढे जड आणि जाड करतो की अगदी संपूर्ण आयुष्य पूर्णत्वास जाते, मात्र माणसाची सुटका या षड्रिपू मधून होत नाही. साहजिकच या षड्रिपूची वाढ झाल्यामुळे वैयक्तिक आणि सामाजिक सहजीवनात असंख्य समस्या निर्माण होवून व्यक्ती कुटुंबाच्या आणि समाजाच्या बाहेर फेकला जावून निराश आणि वैफल्यग्रस्त होतो आणि रसातळाला जातो. प्रस्तुत लेखात हे षड्रिपू काय आहेत, ते कसे निर्माण होतात, ते कसे परिमाण...

काम, क्रोध, लोभ, मोह मद, मत्सर, अहंकार, आलस्य, हिंसा एवं चोरी के परित्याग करने का पर्व दशहरा

दशहरा का अर्थ डा. जे. के. गर्गसंस्कृत भाषा के शब्द’दश’व’हरा’से मिलकर बना है “दशहरा”|दशहरा का अर्थ भगवान राम द्वारा रावण के दसों सिरों को काटने एवं रावण की मृत्यु के साथ राक्षस (असुर) राज्य के आंतक से मुक्ति दिलाने से है। इसीलिये दशहरे को विजयदशमी अर्थात अन्याय पर न्याय की विजय एवं अहंकार की पराजय के रूप में भी मनाया जाता है। विजयदशमी मात्र इस बात का प्रतीक नहीं है कि अन्याय पर न्याय अथवा बुराई पर अच्छाई की विजय हुई थी वरन् यह बुराई में भी अच्छाई ढूँढने का अवसर होता है। रावण–वध के बाद स्वयं भगवान राम ने अपने अनुज लक्ष्मण को रावण के पास जाकर उनसे राजनीति सीखने एवं ज्ञान प्राप्त करने को कहा था | दशहरा का पर्व हमारे देश में प्रत्येक पर्व सामाजिक स्तर पर मनायें जाते हैं इसीलिए इन पर्वों के माध्यम से सामाजिक सामंजस्य निर्माण हेतु इनको शिक्षाप्रद-मनोरंजक बनाया जाता है जिसके लिये इन पर्वों में संगीत,नृत्य,नाटक आदि भी सम्मिलितत किये जाते हैं । कहा जाता है कि गोस्वामी तुलसीदास ने भगवान राम के जीवन व शिक्षाओं को जन–जन तक पहुँचाने के प्रयोजन से बनारस में प्रति वर्ष रामलीला की परम्परा शुरू की थी। आज भी प्रतीकात्मक रूप में दशहरे के दिन रावण-मेघनाद-कुंभकर्ण के पुतलों का दहन किया जाता है। ऐसी मान्यता है कि दशहरे के पहले नवरात्रा के समय मातृरूपिणी देवी नवधान्य सहित पृथ्वी पर अवतरित होती हैं (शैलपुत्री,ब्रह्मचारिणी,चंद्रघंटा,कूश्मांडा,स्कंदमाता,कात्यायनी,कालरात्रि,महागौरी व सिद्धिदात्री) ऐसा भी कहा जाता है कि है कि नवरात्र के अंतिम दिन भगवान राम ने चंडी पूजा के रूप में माँ दुर्गा की उपासना की थी और माँ ने श्रीराम को युद्ध में विजय का आशीर्वाद दिया था। इसके अगले ही दिन यानि अश्विन शुक्ला दशम...

षड्रिपू

षड्रिपू किंवा षडरिपू (सहा शत्रू) असे म्हणतात. या भावनांमुळे • काम म्हणजे मानवी मनात नित्य निर्माण होणाऱ्या इच्छा. मग त्यात • क्रोध म्हणजे राग.(गुस्सा,चड़चिढाहट) • लोभ म्हणजे एखाद्या गोष्टीचा हव्यास, मिळविण्याची इच्छा, अतीव प्रेम.(लालच) • मोह म्हणजे • मद म्हणजे गर्व, अति अभिमान. (घमंड, अहंकार) • मत्सर म्हणजे द्वेष, जळावू वृत्ती, दुसऱ्याची भरभराट, प्रगती सहन न होणे.(ईर्ष्या,जलन) ह्या सहा विकारांमुळे जे रोग उत्पन्न होतात त्यांना मानस रोग असेही म्हणतात. मानस रोग अर्थात मनुष्यास होणारे विविध आजार. संदर्भ [ ]

मत्सर

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मानस दोष

१. काम- इन्द्रियों के विषय में अधिक आसक्ति रखना 'काम' कहलाता है ।। २. क्रोध- दूसरे के अहित की प्रवृत्ति जिसके द्वारा मन और शरीर भी पीड़ित हो उसे क्रोध कहते हैं ।। ३. लोभ- दूसरे के धन, स्त्री आदि के ग्रहण की अभिलाषा को लोभ कहते हैं ।। ४. ईर्ष्या- दूसरे की सम्पत्ति- समृद्धि को सहन न कर सकने को ईर्ष्या कहते हैं ।। ५. अभ्यसूया- छिद्रान्वेषण के स्वभाव के कारण दूसरे के गुणों को भी दोष बताना अभ्यसूया या असूया कहते हैं ।। ६. मार्त्सय- दूसरे के गुणों को प्रकट न करना अथवा कूररता दिखाना 'मात्र्सय' कहलाता है ।। ७. मोह- अज्ञान या मिथ्या ज्ञान (विपरीत ज्ञान) को मोह कहते हैं ।। ८. मान- अपने गुणों को अधिक मानना और दूसरे के गुणों का हीन दृष्टि से देखना 'मान' कहलाता है ।। ९. मद- मान की बढ़ी हुई अवस्था 'मद' कहलाती है ।। १०. दम्भ-जो गुण, कर्म और स्वभाव अपने में विद्यमान न हों, उन्हें उजागर कर दूसरों को ठगना 'दम्भ' कहलाता है ।। ११. शोक- पुत्र आदि इष्ट वस्तुओं के वियोग होने से चित्त में जो उद्वेग होता है, उसे शोक कहते हैं ।। १२. चिन्ता- किसी वस्तु का अत्यधिक ध्यान करना 'चिन्ता' कहलाता है ।। १३. उद्वेग- समय पर उचित उपाय न सूझने से जो घबराहट होती है उसे 'उद्वेग' कहते हैं ।। १४. भय- अन्य आपत्ति जनक वस्तुओं से डरना 'भय' कहलाता है ।। १५. हर्ष- प्रसन्नता या बिना किसी कारण के अन्य व्यक्ति की हानि किए बिना अथवा सत्कर्म करके मन में प्रसन्नता का अनुभव करना हर्ष कहलाता है ।। १६. विषाद- कार्य में सफलता न मिलने के भय से कार्य के प्रति साद या अवसाद-अप्रवृत्ति की भावना 'विषाद' कहलाता है ।।

षड्रिपू

षड्रिपू किंवा षडरिपू (सहा शत्रू) असे म्हणतात. या भावनांमुळे • काम म्हणजे मानवी मनात नित्य निर्माण होणाऱ्या इच्छा. मग त्यात • क्रोध म्हणजे राग.(गुस्सा,चड़चिढाहट) • लोभ म्हणजे एखाद्या गोष्टीचा हव्यास, मिळविण्याची इच्छा, अतीव प्रेम.(लालच) • मोह म्हणजे • मद म्हणजे गर्व, अति अभिमान. (घमंड, अहंकार) • मत्सर म्हणजे द्वेष, जळावू वृत्ती, दुसऱ्याची भरभराट, प्रगती सहन न होणे.(ईर्ष्या,जलन) ह्या सहा विकारांमुळे जे रोग उत्पन्न होतात त्यांना मानस रोग असेही म्हणतात. मानस रोग अर्थात मनुष्यास होणारे विविध आजार. संदर्भ [ ]