महाभारत अनुशासन पर्व अध्याय 88

  1. महाभारत मौसल पर्व अध्याय 4 श्लोक 1
  2. महाभारत का पर्वसंग्रह पर्व
  3. महाभारत अनुशासनपर्व अध्याय 88 श्लोक 1
  4. अनुशासन पर्व महाभारत
  5. महाभारत आश्‍वमेधिक पर्व अध्याय 88 श्लोक 1
  6. अनुशासन पर्व ~ महाभारत
  7. महाभारत अनुशासन पर्व अध्याय 1 श्लोक 66
  8. महाभारत
  9. अनुशासन पर्व महाभारत
  10. महाभारत


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महाभारत मौसल पर्व अध्याय 4 श्लोक 1

महाभारत: मौसल पर्व: चतुर्थ अध्याय: श्लोक 1-12 का हिन्दी अनुवाद दारूक का अर्जुन को सूचना देने के लिये हस्तिनापुर जाना, बभ्रु का देहावसान एवं बलराम और श्रीकृष्‍ण का परमधाम-गमन वैशम्पायन जी कहते हैं- राजन्! तदनन्तर दारूक,बभ्रु और भगवान श्रीकृष्ण तीनों ही बलराम जी के चरणचिह्न देखते हुए वहाँ चल दिये! थोड़ी ही देर बाद उन्होंने अनन्त पराक्रमी बलराम जी को एक वृक्ष के नीचे विराजमान देखा, जो एकान्त में बैठकर ध्यान कर रहे थे। उन महानुभाव के पास पहुँचकर श्रीकृष्ण ने तत्काल दारूक को आज्ञा दी कि तुम शीघ्र ही कुरूदेश की राजधानी हस्तिनापुर में जाकर अर्जुन को यादवों के इस महासंहार का सारा समाचार कह सुनाओ। ‘ब्राह्मणों के शाप से यदुवंशियों की मृत्यु का समाचार पाकर अर्जुन शीघ्र ही द्वारका चले आवें ।’ श्रीकृष्ण के इस प्रकार आज्ञा देने पर दारूक रथ पर सवार हो तत्काल कुरूदेश को चला गया । वह भी इस महान् शोक से अचेत-सा हो रहा था। दारूक के चले जाने पर भगवान श्रीकृष्ण ने अपने निकट खड़े हुए बभ्रु से कहा-‘आप स्त्रियों की रक्षा के लिये शीघ्र ही द्वारका को चले जाइये । कहीं ऐसा न हो कि डाकू धन की लालच से उन की हत्या कर डालें’। श्रीकृष्ण की आज्ञा पाकर बभ्रु वहाँ से प्रस्थित हुए । वे मदिरा के मद से आतुर थे ही, भाई-बन्धुओं के वध से भी अत्यन्त शोक पीड़ित थे । वे श्रीकृष्ण के निकट अभी विश्राम कर ही रहे थे कि ब्राह्मणों के शाप के प्रभाव से उत्पन्न हुआ एक महान् दुर्धर्ष मूसल किसी व्याध के बाण से लगा हुआ सहसा उनके ऊपर आकर गिरा । उस ने तुरंत ही उन के प्राण ले लिये । बभ्रु को मारा गया देख उग्र तेजस्वी श्रीकृष्ण ने अपने बड़े भाई से कहा- ‘भैया बलराम! आप यहीं रहकर मेरी प्रतीक्षा करें । जब तक मैं स्त्रियों को कुटुम्बी ...

महाभारत का पर्वसंग्रह पर्व

ऋषय ऊचुः समन्तपञ्चकमिति यदुक्तं सूतनन्दन । एतत् सर्वं यथातत्त्वं श्रोतुमिच्छामहे वयम्॥⁠ १॥ ऋषि बोले—सूतनन्दन! आपने अपने प्रवचनके प्रारम्भमें जो समन्तपंचक (कुरुक्षेत्र) की चर्चा की थी, अब हम उस देश (तथा वहाँ हुए युद्ध) के सम्बन्धमें पूर्णरूपसे सब कुछ यथावत् सुनना चाहते हैं॥⁠ १॥ सौतिरुवाच शृणुध्वं मम भो विप्रा ब्रुवतश्च कथाः शुभाः । समन्तपञ्चकाख्यं च श्रोतुमर्हथ सत्तमाः॥⁠ २॥ उग्रश्रवाजीने कहा—साधुशिरोमणि विप्रगण! अब मैं कल्याणदायिनी शुभ कथाएँ कह रहा हूँ; उसे आपलोग सावधान चित्तसे सुनिये और इसी प्रसंगमें समन्तपंचकक्षेत्रका वर्णन भी सुन लीजिये॥⁠२॥ त्रेताद्वापरयोः सन्धौ रामः शस्त्रभृतां वरः । असकृत् पार्थिवं क्षत्रं जघानामर्षचोदितः॥⁠ ३॥ त्रेता और द्वापरकी सन्धिके समय स सर्वं क्षत्रमुत्साद्य स्ववीर्येणानलद्युतिः । समन्तपञ्चके पञ्च चकार रौधिरान् ह्रदान्॥⁠ ४॥ अग्निके समान स तेषु रुधिराम्भःसु ह्रदेषु क्रोधमूर्च्छितः । पितॄन् संतर्पयामास रुधिरेणेति नः श्रुतम्॥⁠ ५॥ क्रोधसे आविष्ट होकर परशुरामजीने उन रक्तरूप जलसे भरे हुए सरोवरोंमें रक्ताञ्जलिके द्वारा अपने अथर्चीकादयोऽभ्येत्य पितरो राममब्रुवन् । राम राम महाभाग प्रीताः स्म तव भार्गव॥⁠ ६॥ अनया पितृभक्त्या च विक्रमेण तव प्रभो । वरं वृणीष्व भद्रं ते यमिच्छसि महाद्युते॥⁠ ७॥ तदनन्तर, ऋचीक आदि पितृगण परशुरामजीके पास आकर बोले—‘महाभाग राम! सामर्थ्यशाली भृगुवंशभूषण परशुराम!! तुम्हारी इस पितृभक्ति और पराक्रमसे हम बहुत ही प्रसन्न हैं। महाप्रतापी परशुराम! तुम्हारा कल्याण हो। तुम्हें जिस वरकी इच्छा हो हमसे माँग लो’॥⁠ ६-७॥ राम उवाच यदि मे पितरः प्रीता यद्यनुग्राह्यता मयि । यच्च रोषाभिभूतेन क्षत्रमुत्सादितं मया॥⁠ ८॥ अतश्च पापान्मुच्येऽहमेष मे प्रार्थि...

महाभारत अनुशासनपर्व अध्याय 88 श्लोक 1

महाभारत: अनुशासनपर्व: अष्टाशीतितमो अध्याय: श्लोक 1-10 का हिन्दी अनुवाद श्राद्ध में पितरों के तृप्तिविषय का वर्णन युधिष्ठिर ने पूछा- पितामह! पितरों के लिये दी हुई कौन-सी वस्तु अक्षय होती है? किस वस्तु के दान से पितर अधिक दिन तक और किसके दान से अनन्त काल तक तृप्त रहते हैं। भीष्मजी ने कहा- युधिष्ठिर! श्राद्धवेत्ताओं ने श्राद्ध-कल्पमय जो हविष्य नियत किये हैं, वे सब-के-सब काम्य हैं। मैं उनका तथा उनके फल का वर्णन करता हूं, सुनो। नरेश्‍वर! तिल, ब्रीहि, जौ, उड़द, जल और फल-मूल के द्वारा श्राद्ध करने से पितरों को एक मास तक तृप्ति बनी रहती है । मनुजी का कथन है कि जिस श्राद्ध में तिल की मात्रा अधिक रहती है, वह श्राद्ध अक्षय होता है। श्राद्ध सम्बन्धी सम्पूर्ण भोज्य पदार्थों में तिलों का प्रधान रूप से उपयोग बताया गया है। यदि श्राद्ध में गाय का दही दान किया जाये तो उससे पितरों को एक वर्ष तक तृप्ति होती बतायी गयी है। गाय के दही का जैसा फल बताया गया है, वैसा ही घृत मिश्रित खीर का भी समझना चाहिये । युधिष्ठिर! इस विषय में पितरों द्वारा गाई हुई गाथा का भी विज्ञ पुरुष गान करते हैं। पूर्वकाल में भगवान सनत्कुमार ने मुझे यह गाथा बतायी थी । पितर कहते हैं- ‘क्या हमारे कुल में कोई ऐसा पुरुष उत्पन्न होगा, जो दक्षिणायन में आश्विन मास के कृष्ण पक्ष में मघा और त्रियोदशी तिथी का योग होने पर हमारे लिये घृत मिश्रित खीर का दान करेगा?' ‘अथवा वह नियमपूर्वक व्रत का पालन करके मघा नक्षत्र में ही हाथी के शरीर की छाया में बैठकर उसके कान रूपी व्यजन से हवा लेता हुआ अन्न-विशेष चावल का बना हुआ पायश लोहषाक से विधि पूर्वक हमारा श्राद्ध करेगा?' ‘पितरों की क्षय-तिथी को जल, मूल, फल उसका गूदा और अन्न आदि जो कुछ भी मधु मिश्र...

अनुशासन पर्व महाभारत

अनुशासन पर्व में कुल मिलाकर 168 अध्याय हैं। अनुशासन पर्व के आरम्भ में 166 अध्याय दान-धर्म पर्व के हैं। इस पर्व में भी भीष्म का उपदेश युधिष्ठिर ने भीष्म के चरण-स्पर्श किए। भीष्म ने युधिष्ठिर को तरह-तरह के उपदेश दिए। उन्होंने कहा कि पुरुषार्थ ही भाग्य है। राजा का धर्म है-पूरी शक्ति से प्रजा का पालन करें तथा प्रजा के हित के लिए सब कुछ त्याग दे। जाति और धर्म के विचार से ऊपर उठकर सबके प्रति सद्भावना रखकर प्रजा का पालन तथा शासन करना चाहिए। युधिष्ठिर भीष्म को प्रमाण करके चले गए। भीष्म का महाप्रयाण सूर्य उत्तरायण हो गया। उचित समय जानकर युधिष्ठिर सभी भाइयों, परीक्षित का जन्म युधिष्ठिर ने कुशलता से राज्य का संचालन किया। कुछ समय बाद अनुशासन पर्व के अन्तर्गत 2 उपपर्व हैं- • दान-धर्म-पर्व, • भीष्मस्वर्गारोहण पर्व। संबंधित लेख · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · स्थान

महाभारत आश्‍वमेधिक पर्व अध्याय 88 श्लोक 1

महाभारत: आश्‍वमेधिक पर्व: अष्‍टाशीतितम अध्याय: श्लोक 1-19 का हिन्दी अनुवाद उलूपी और चित्रांगदा के सहित बभ्रुवाहन कर रत्‍न-आभूषण आदि से सत्‍कार तथा अश्‍वमेध – यज्ञ का आरम्‍भ वैशम्‍पायनजी कहते हैं – जनमेजय! पाण्‍डवों के महल में प्रवेश करके महाबाहु बभ्रुवाहन ने अत्‍यन्‍त मधुर वचन बोलकर अपनी दादी कुन्‍ती के चरणों में प्रणाम किया। इसके बाद देवी चित्रांगदा और कौरव्‍य नाग की पुत्री उलूपी ने एक साथ ही विनीत भाव से कुन्‍ती और द्रोपदी के चरण छुए । फिर सुभ्रदा तथा कुरूकुल की अन्‍य स्‍त्रियों से भी वे यथायोग्‍य मिलीं । उस समय कुन्‍तीने उन दोनो को नाना प्रकार के रत्‍न भेंट में दिये । द्रोपदी, सुभद्रा तथा अन्‍य स्‍त्रियों ने भी अपनी ओर से नाना प्रकार के उपहार दिये । तत्‍पश्‍चात् वे दोनों देवियां बहुमूल्‍य शय्याओं पर विराजमान हुईं । अर्जुन के हित की कामना से कुन्‍ती देवी ने स्‍वयं ही उन दोनों का बड़ा सत्‍कार किया । कुन्‍ती से सत्‍कार पाकर महातेजस्‍वी राजा बभ्रुवाहन महाराज धृतराष्‍ट्र की सेवा में उपस्‍थित हुआ और उसने विधि पूर्वक उनका चरण – स्‍पर्श किया । इसके बाद राजा युधिष्‍ठिर और भीमसेन आदि सभी पाण्‍डवों के पास जाकर उस महातेजस्‍वी नरेश ने विनय पूर्वक उनका अभिवादन किया । उन सब लोगों में प्रेमवश उसे छाती से लगा लिया और उसका यथोचित सत्‍कार किया । इतना ही नहीं, बभ्रुवाहन पर प्रसन्‍न हुए उन पाण्‍डव महारथियों ने उसे बहुत धन दिया । इसी प्रकार वह भूपाल प्रद्युम्‍न की भांति विनीत भाव से शंख – चक्र – गदाधारी भगवान श्रीकृष्‍ण की सेवा में उपस्‍थित हुआ । श्रीकृष्‍ण ने इस राजा को एक बहुमूल्‍य रथ प्रदान किया जो सुनहरी साजों से सुसज्‍जित, सबके द्वारा अत्‍यन्‍त प्रशंसित और उत्‍त्‍म था । उसमें दिव्‍य घो़...

अनुशासन पर्व ~ महाभारत

अनुशासन पर्व में कुल मिलाकर 168 अध्याय हैं। अनुशासन पर्व के आरम्भ में 166 अध्याय दान-धर्म पर्व के हैं। इस पर्व में भी भीष्म के साथ युधिष्ठिर के संवाद का सातत्य बना हुआ है। भीष्म युधिष्ठिर को नाना प्रकार से तप, धर्म और दान की महिमा बतलाते हैं और अन्त में युधिष्ठिर पितामह की अनुमति पाकर हस्तिनापुर चले जाते हैं। भीष्मस्वर्गारोहण पर्व में केवल 2 अध्याय (167 और 168) हैं। इसमें भीष्म के पास युधिष्ठिर का जाना, युधिष्ठिर की भीष्म से बात, भीष्म का प्राणत्याग, युधिष्ठिर द्वारा उनका अन्तिम संस्कार किए जाने का वर्णन है। इस अवसर पर वहाँ उपस्थित लोगों के सामने गंगा जी प्रकट होती हैं और पुत्र के लिए शोक प्रकट करने पर श्री कृष्ण उन्हें समझाते हैं। भीष्म का उपदेश युधिष्ठिर ने भीष्म के चरण-स्पर्श किए। भीष्म ने युधिष्ठिर को तरह-तरह के उपदेश दिए। उन्होंने कहा कि पुरुषार्थ ही भाग्य है। राजा का धर्म है-पूरी शक्ति से प्रजा का पालन करें तथा प्रजा के हित के लिए सब कुछ त्याग दे। जाति और धर्म के विचार से ऊपर उठकर सबके प्रति सद्भावना रखकर प्रजा का पालन तथा शासन करना चाहिए। युधिष्ठिर भीष्म को प्रमाण करके चले गए। सूर्य उत्तरायण हो गया। उचित समय जानकर युधिष्ठिर सभी भाइयों, धृतराष्ट्र, गांधारी एवं कुंती को साथ लेकर भीष्म के पास पहुँचे। भीष्म ने सबको उपदेश दिया तथा अट्ठावन दिन तक शर-शय्या पर पड़े रहने के बाद महाप्रयाण किया। सभी रोने लगे। युधिष्ठिर तथा पांडवों ने पितामह के शरविद्ध शव को चंदन की चिता पर रखा तथा अंतिम संस्कार किया।

महाभारत अनुशासन पर्व अध्याय 1 श्लोक 66

महाभारत: अनुशासन पर्व: प्रथम अध्याय: श्लोक 66-83 का हिन्दी अनुवाद व्‍याधने कहा— मृत्‍यु और सर्प! यदि तुम दोनों कालके अधीन हो तो मुझ तटस्‍थ व्‍यक्ति को परोपकारी के प्रति वर्ष और दूसरोंका अपकार करने वाले तुम दोनों पर क्रोध क्‍यों होता है, यह मैं जानना चाहता हूँ। मृत्‍युने कहा—व्‍याध! जगत् में जो कोई भी चेष्‍टा हो रही है, वह सब कालकी प्रेरणा से ही होती है । यह बात मैंने तुमसे पहले ही बता दी है। अत: व्‍याध! हम दोनोंको कालके अधीन और कालके ही आदेश का पालक समझकर तुम्‍हें कभी हमारे ऊपर दोषारोपण नहीं करना चाहिये। भीष्‍मजी कहते हैं— युधिष्ठिर! तदनन्‍तर धार्मिक विषय में संदेह उपस्थित होने पर काल भी वहाँ आ पहुँचा; तथा सर्प, मृत्‍यु एवं अर्जनक व्‍याधसे इस प्रकार बोला। कालने कहा— व्‍याध! न तो मैं, न यह मृत्‍यु और न यह सर्प ही इस जीवकी मृत्‍युमें अपराधी हैं। हमलोग किसी की मृत्‍यु में प्रेरक या प्रयोजक भी नहीं हैं। अर्जुनक! इस बालकने जो कर्म किया है वही इसकी मृत्‍युमें प्रेरक हुआ है, दूसरा कोई इसके विनाश का कारण नहीं है । यह जीव अपने कर्मसे ही मरता है। इस बालकने जो कर्म किया है, उसीसे यह मृत्‍युको प्राप्‍त हुआ है । इसका कर्म ही इसके विनाशका कारण है। हम सब लोग कर्मके ही अधीन हैं। संसार में कर्म ही मनुष्‍योंका पुत्र-पौत्रके समान अनुगमन करने वाला है । कर्म ही दु:ख-सुखके सम्‍बन्‍ध का सूचक है । इस जगत् में कर्म ही जैसे परस्‍पर एक-दूसरेको प्रेरित करते हैं, वैसे ही हम भी कर्मोंसे ही प्रेरित हुए हैं। जैसे कुम्‍हार मिट्टी के लोंदेसे जो-जो बर्तन चाहता है वही बना लेता है । उसी प्रकार मनुष्‍य अपने किये हुए कर्मके अनुसार ही सब कुछ पाता है। जैसे धूप और छाया दोनों नित्‍य-निरन्‍तर एक-दूसरे से मिल रहते है...

महाभारत

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अनुशासन पर्व महाभारत

अनुशासन पर्व में कुल मिलाकर 168 अध्याय हैं। अनुशासन पर्व के आरम्भ में 166 अध्याय दान-धर्म पर्व के हैं। इस पर्व में भी भीष्म का उपदेश युधिष्ठिर ने भीष्म के चरण-स्पर्श किए। भीष्म ने युधिष्ठिर को तरह-तरह के उपदेश दिए। उन्होंने कहा कि पुरुषार्थ ही भाग्य है। राजा का धर्म है-पूरी शक्ति से प्रजा का पालन करें तथा प्रजा के हित के लिए सब कुछ त्याग दे। जाति और धर्म के विचार से ऊपर उठकर सबके प्रति सद्भावना रखकर प्रजा का पालन तथा शासन करना चाहिए। युधिष्ठिर भीष्म को प्रमाण करके चले गए। भीष्म का महाप्रयाण सूर्य उत्तरायण हो गया। उचित समय जानकर युधिष्ठिर सभी भाइयों, परीक्षित का जन्म युधिष्ठिर ने कुशलता से राज्य का संचालन किया। कुछ समय बाद अनुशासन पर्व के अन्तर्गत 2 उपपर्व हैं- • दान-धर्म-पर्व, • भीष्मस्वर्गारोहण पर्व। संबंधित लेख · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · स्थान

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