Ritikal ki rachna hai

  1. महाकवि भूषण
  2. रीतिकाल : समय
  3. रीतिकाल की प्रमुख विशेषताएँ, रचनाएँ और प्रवृत्तियाँ: रीतिकाल क्या है?
  4. रीतिकाल की सामान्य प्रवृत्तियां और विशेषतायें
  5. रीतिकालीन छंदशास्त्र संबंधी ग्रंथ की जानकारी
  6. रीतिकालीन काव्य एवं लक्षण ग्रंथों की परंपरा Archives
  7. रीतिकाल किसे कहते है? रीतिकाल विशेषताएं
  8. रीतिकाल के प्रमुख कवि और उनकी रचनाएं
  9. रीतिकाल के कवि और उनकी रचनाएँ
  10. रीतिकालीन काव्य की प्रमुख प्रवृतियाँ


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महाकवि भूषण

Table of Contents • • • • • • • • • महाकवि भूषण ( जीवन-परिचय वीर रस के सर्वश्रेष्ठ महाकवि भूषण का जन्म संवत् 1670 ( सन् 1618 ई०) में कानपुर के तिकवापुर ऋ्राम में हुआ था इनके पिता का नाम पं० रत्नाकर त्रिपाठी था। हिन्दी के रससिद्ध कवि चिन्तामणि त्रिपाठी और मतिराम इनके भाई थे। इनके बास्तविक नाम के विषय में अभी तक भी ठीक-ठीक पता नहीं चल पाया है। चित्रकूट के राजा रुद्र ने इनकी प्रतिभा से प्रभावित होकर इन्हें ‘भूषण’ की उपाधि से सुशोभित किया था। तब से ये ‘भूषणं नाम से प्रसिद्ध हुए। शनै: शनै: लोगों ने इनके वास्तविक नाम को छोड़ दिया और इन्हें ‘भूषण’ नाम से ही सम्बोधित किया जाने लगा। बाद में ये शिवाजी के दरबार में चले गए और जीवन के अन्तिम दिनों तक वहीं रहे। इनके दूसरे आश्रयदाता महाराज छत्रसाल थे। इन्होंने अपने काव्य में इन्हीं दोनों की वीरता और पराक्रम का गुणगान किया है। कहते हैं कि भूषण से प्रभावित होकर ही महाराजा छत्रसाल ने एक बार उनकी पालकी में कन्या लगाया था। शिवाजी ने उन्हें बहुत-सा धन और मान देकर समय-समय पर कृतार्थ किया था। छत्रसाल और शिवाजी के इन्हीं गुणों से प्रभावित होकर भूषण ने कहा था- शिवा को सराहीं के सराहौं छत्रसाल को। निरन्तर वीर रस पूर्ण रचनाएँ करते हुए महाकवि भूषण का देहावसान संवत् 1772 (सन् 1715 ई० ) के लगभग हुआ। रीतिकालीन युग की शृंगारिक प्रवृत्ति का तिरस्कार कर वीर रस के काव्य का सृजन करनेवाले रीतिकालीन कवि भूषण का नाम वीर रस के कवियों में सर्वप्रथम लिया जाता है। यद्यपि कविवर भूषण अपने युग (रोतिकालीन युग) की लक्षण-ग्रन्थ परम्परा एवं अन्य प्रवृत्तियों से सर्वथा मुक्त नहीं थे और इनके काव्य में भी रस, छन्द, अलंकार आदि का प्रयोग शास्त्रीय रूप में हुआ है, तथापि इन्होंन...

रीतिकाल : समय

हिंदी साहित्य के इतिहास को मुख्यतः तीन भागों में बाँटा जा सकता है : आदिकाल , मध्यकाल व आधुनिक काल । आदिकाल की समय सीमा संवत 1050 से स० 1375 तक माना जाता है । मध्यकाल को दो भागों में बाँटा गया है ; पूर्ववर्ती काल को भक्तिकाल तथा उत्तरवर्ती काल को रीतिकाल कहा जाता है । भक्तिकाल की समय सीमा स० 1375 से स० 1700 तक तथा रीतिकाल की समय सीमा स० 1700 से स०1900 तक मानी जाती है । रीतिकाल: अतः स्पष्ट है कि संवत 1700 से संवत 1900 तक के काल को हिंदी साहित्य में रीतिकाल में के नाम से अभिहित किया जाता है । रीतिकाल में तीन प्रकार के कवि हुए : रीति’ शब्द का अर्थ एवं स्वरूप ( ‘Reeti’ Shabd Ka Arth Evam Swaroop ) ‘रीति’ शब्द ‘रींङ’ धातु में ‘क्तिन’ प्रत्यय के जुड़ने से बना है | इसका अर्थ है-मार्ग | काव्यशास्त्र में इसे विधि, पद्धति आदि के अर्थ में प्रयोग किया जाता है | आज ‘रीति’ शब्द का अर्थ शैली के रूप में लिया जाता है | रीतिकाव्य के संदर्भ में ‘रीति’ का अर्थ है-विशिष्ट पद रचना | डॉक्टर बलदेव उपाध्याय के अनुसार पदों की विशिष्ट रचना का नाम की रीति है| संस्कृत काव्यशास्त्र में रीति का अर्थ काव्यांग विशेष के लिए रूढ हो गया है | हिंदी के रीतिकालीन कवियों ने रीति का अर्थ ‘काव्य-रचना पद्धति’ से लिया है | रीतिकाल की सीमा निर्धारण ( Ritikal Ki Samay Seema ) हिंदी साहित्य के इतिहास को तीन भागों में बांटा गया है-आदिकाल, मध्यकाल और आधुनिक काल | मध्य काल के दो भाग किए गए हैं – पूर्व मध्यकाल व उत्तर मध्यकाल | आज पूर्व मध्यकाल को भक्तिकाल व उत्तर मध्यकाल को रीतिकाल के नाम से जाना जाता है | रीतिकाल की समय सीमा को लेकर विद्वान एकमत नहीं हैं | इसका कारण यह है कि भक्तिकाल के अनेक ग्रंथों में भी रीतिग्रंथों के ल...

रीतिकाल की प्रमुख विशेषताएँ, रचनाएँ और प्रवृत्तियाँ: रीतिकाल क्या है?

आचार्यरामचंद्रशुक्लनेहिंदीसाहित्यकेइतिहासकोचारभागोंमेंविभाजितकियाहै- वीरगाथाकाल, हिंदीसाहित्यकेइतिहासकेविभाजनकेअनुसारसंवत् 1700 से 1900 तककासमयरीतिकालमेंआताहै। इसकेपूर्वभक्तिकाव्यलिखागयाथा, जिसमेंश्रृंगारऔरभक्तिकाऐसासम्मिश्रणहोगयाथाकिएक-दूसरेसेपृथक्नहींहोसकतेथे।भक्तिकालकेकवियोंकाश्रृंगारवर्णनउनकीप्रगाढ़भक्तिकापरिचायकथा।बहुत-सीवस्तुएँसाधनरूपमेंअच्छीहोतीहैं, परंतुजबवेहीसाध्यबनजातीहैं, तबउनमेंसारहीनताआजातीहै। Table of Contents • • • • • हिन्दीसाहित्यमेंरीतिकालकाइतिहास भक्तिकालमेंश्रृंगारकीमदिरानेरसायनकाकामकियाथा, परंतुबादकेसमयमेंवहीव्यसनबनगई।राजाऔरकृष्णविभिन्ननायकऔरनायिकाओंकेरूपमेंदिखलाएजानेलगे।भक्तिकालकीरचनाएँ“स्वांतःसुखाय”केउद्देश्यसेहोतीथीं, परंतुबादमेंकविताराजदरबारकीवस्तुबनगई। अपनीविद्वता, कलाकौशलसेअपनेआश्रयदाताकोप्रसन्नकरनाहीकवियोंकाएकमात्रउद्देश्यरहगयाथा।एकविशेषरीतिपरलोगचलरहेथे, रीतिकाअर्थ- मार्गयाशैली।कवितामेंविषयवैविध्यकमथा, कविताअर्थएकबंधीहुईलकीटपरचलनारहगयाथा।सिंहऔरसपूतकीभाँतिलोगलीकछोड़करचलनापसंदनहींकरतेथे। कवियोंकीसमस्यशक्तिअलंकार, रस, ध्वनि, नायिका, भेदआदिकेनिरूपणमेंहीकेंद्रितथींऔरइसीकोकवियोंनेकवि-कर्मपालनकाप्रमुखमार्गबनालियाथा, जिसपरचलनेकेकारणहीवहरीतिकालकहलाया। रीतिकालकीप्रमुखविशेषताएँ रीतिकालकीप्रमुखविशेषतारीतिप्रधानरचनाएँहैं।तत्कालीनकवियोंनेभामह, दण्डी, मम्मट, विश्वनाथआदिकाव्याचार्योंकेग्रंथोंकागहनअध्ययनकरकेहिंदीसाहित्यकोरीतिग्रंथप्रदानकिए। इनग्रंथोंमेंरस, अलंकरमध्वनिआदिकाविवेचन, लक्षणऔरउदाहरणशैलीमेंकियागयाहै।एकदोहेमेंरस, अलंकारआदिकालक्षणकहकर, कवित्तयासवैयेमेंउदाहरणप्रस्तुतकरदियाजाताथा। इसकालमेंश्रृंगारकीमदिरानेरसकीप्रधानताथी।श्रृंगारकेआलम्बनऔरउद्दीपनोंकेबड़ेसरस...

रीतिकाल की सामान्य प्रवृत्तियां और विशेषतायें

रीतिकाल की सामान्य प्रवृत्तियां ritikal ki pravritiyan ritikal ki visheshtaye in hindi रीतिकाल की विशेषतायें 1700 से 1900 तक का समय रीतिकाल के अन्तर्गत आता है। रीतिकाल की प्रमुख विशेषता रीतिप्रधान रचनायें हैं। रीति का अर्थ था मार्ग या शैली। कविता में विषय वैविध्य कम था, कविता का अर्थ एक बँधी हुई लकीर पर चलना रह गया था। सिंह और सपूत की भांति लोग लीक छोड़कर चलना पसन्द नहीं करते थे। हिन्दी साहित्य के इतिहास के विभाजन के अनुसार संवत् 1700 से 1900 तक का समय रीतिकाल के अन्तर्गत आता है। इसके पूर्व भक्ति काव्य लिखा गया था, जिसमें शृंगार और भक्ति का ऐसा सम्मिश्रण हो गया था कि एक-दूसरे से पृथक नहीं हो सकते थे। • • • • • • • भक्तिकाल की रचनायें“स्वान्तः सुखाय” के उद्देश्य होती थीं, परंतु बाद में कविता राजदरबार की वस्तु बन गई। अपनी विद्वत्ता, कला-कौशल से अपने आश्रयदाता को प्रसन्न करना ही कवियों का एकमात्र उद्देश्य रह गया। एक विशेष रीति पर लोग चल रहे थे, रीति का अर्थ था मार्ग या शैली। कविता में विषय वैविध्य कम था, कविता का अर्थ एक बँधी हुई लकीर पर चलना रह गया था। सिंह और सपूत की भांति लोग लीक छोड़कर चलना पसन्द नहीं करते थे। कवियों की समस्त शक्ति अलंकार, रस, ध्वनि, नायिका भेद आदि के निरूपण में ही केन्द्रित थी और इसी को कवियों ने कवि-धर्म पालन का प्रमुख मार्ग बना लिया था, जिस पर चलने के कारण ही वह रीतिकाल कहलाया। भक्तिकाल की कविता के संग्रह में अलंकार आदि स्वयं बहे चले जाते थे। संस्कृत भाषा में अलंकारों और काव्यांगों पर पर्याप्त विवेचन हो चुका था। उसकी उत्तराधिकारिणी हिन्दी में भी उनका विवेचन आवश्यक था। लक्ष्य ग्रन्थों के बाद लक्षण ग्रन्थ लिखे जाते हैं। हिन्दी में लक्ष्य ग्रन्थ बहुत लिखे...

रीतिकालीन छंदशास्त्र संबंधी ग्रंथ की जानकारी

रीतिकालीन छंदशास्त्र संबंधी ग्रंथ विशेषांग निरूपक ग्रंथों में ध्वनि संबंधी ग्रंथ, रस संबंधी ग्रंथ, अलंकार संबंधी ग्रंथ, छंद शास्त्र संबंधी ग्रंथ, इत्यादि ग्रंथों का प्रणयन हुआ। छंद ― छंदशास्त्र की व्यवस्थित परंपरा का सूत्रपात छंदशास्त्र के प्रवर्त्तक पिगलाचार्य के छंद सूत्र’ (ई. पू. 200 के लगभग) से माना जाता है। रीतिकालीन छंदशास्त्र संबंधी ग्रंथ रीतिकालीन हिन्दी के छंदशास्त्र संबंधी ग्रंथ 1. छंदमाला – केशवदास (हिंदी में छंदशास्त्र की प्रथम रचना) 2. वृत्तकौमुदी / छंदसार (पिंगल-संग्रह) – मतिराम 3. छंदविचार (17वीं श.ई. पूर्वा.) – चिंतामणि 4. वृत्तविचार (1671 ई.)- सुखदेव 5. छंदविलास या श्रीनाग पिंगल- (1703 ई.) – माखन 6. छंदोर्णव (1742 ई.) – भिखारीदास 7. छंदसार (1772 ई.) – नारायणदास 8. वृत्तविचार (1799 ई.) दशरथ 9. वृत्ततरंगिणी (1816 ई.) रामसहाय 10. वृत्तचंद्रिका (1801 ई.) कलानिधि 11. छंदसारमंजरी (1801 ई.) पद्माकर 12 पिंगलप्रकाश (1801 ई.) नंदकिशोर 13. छंदोमंजरी (1883 ई.) गदाधर भट्ट 14. छंदप्रभाकर (1922 ई.) जगन्नाथ प्रसाद भानु 15. रसपीयूषनिधि (1737 ई.) सोमनाथ 16. शब्दरसायन – देव 17. फजल अली प्रकाश फजल आधुनिक युग के छंदशास्त्रीय ग्रंथ 18. पिंगलसार – नारायण प्रसाद 19. पद्म रचना – रामनरेश त्रिपाठी 20. नवीन पिंगल – अवध उपाध्याय 21. छंदशिक्षा – परमेश्वरानंद 22 पिंगल पीयूष – परमानंद शास्त्री 23. हिंदी छंद प्रकाश – रघुनंदन शास्त्री Categories Tags

रीतिकालीन काव्य एवं लक्षण ग्रंथों की परंपरा Archives

रीतिकालीन छंदशास्त्र संबंधी ग्रंथ रीतिकाल में काव्यशास्त्र से संबंधित अनेक ग्रंथों की रचना हुई। यह ग्रंथ काव्यशास्त्र के विभिन्न अंगों को लेकर लिखे गए। इनमें से कुछ ग्रंथ सर्वांग निरूपक ग्रंथ थे जबकि कुछ विशेषांग निरूपक थे। इस आलेख में रीतिकालीन छंदशास्त्र संबंधी ग्रंथ की जानकारी। विशेषांग निरूपक ग्रंथों में ध्वनि संबंधी ग्रंथ, रस संबंधी … Categories Tags अलंकार निरूपक रीतिकालीन ग्रंथ रीतिकाल में काव्यशास्त्र से संबंधित अनेक ग्रंथों की रचना हुई। यह ग्रंथ काव्यशास्त्र के विभिन्न अंगों को लेकर लिखे गए। इनमें से कुछ ग्रंथ सर्वांग निरूपक ग्रंथ थे जबकि कुछ विशेषांग निरूपक थे। इस आलेख में अलंकार निरूपक रीतिकालीन ग्रंथ की पूरी जानकारी प्राप्त करेंगे। विशेषांग निरूपक ग्रंथों में ध्वनि संबंधी … Categories Tags रीतिकाल के रस ग्रंथ रीतिकाल में काव्यशास्त्र से संबंधित अनेक ग्रंथों की रचना हुई। यह ग्रंथ काव्यशास्त्र के विभिन्न अंगों को लेकर लिखे गए। इनमें से कुछ ग्रंथ सर्वांग निरूपक ग्रंथ थे जबकि कुछ विशेषांग निरूपक थे। इस आलेख में जानेंगे रीतिकाल के रस ग्रंथ की पूरी जानकारी। विशेषांग निरूपक ग्रंथों में ध्वनि संबंधी ग्रंथ, … Categories Tags

रीतिकाल किसे कहते है? रीतिकाल विशेषताएं

राति का अर्थ है प्रणाली, पद्धति, मार्ग, पंथ, शैली, लक्षण आदि। संस्कृत साहित्य मे "रीति" का अर्थ होता है " विशिष्ट पद रचना। " सर्वप्रथम वामन ने इसे " काव्य की आत्मा " घोषित किया। यहाँ रीति को काव्य रचना की प्रणाली के रूप मे ग्रहण करने की अपेक्षा प्रणाली के अनुसार काव्य रचना करना, रीति का अर्थ मान्य हुआ। यहाँ पर रीति का तात्पर्य लक्षण देते हुए या लक्षण को ध्यान मे रखकर लिखे गए काव्य से है। इस प्रकार रीति काव्य वह काव्य है, जो लक्षण हैं के आधार पर या उसको ध्यान मे रखकर रचा जाता है। रीतिकाल से आश्य हिन्दी साहित्य के उस काल से है, जिसमे निर्दिष्ट काव्य रीति या प्रणाली के अंतर्गत रचना करना प्रधान साहित्यिक प्रवृत्ति बन गई थी। "रीति" "कवित्त रीति" एवं "सुकवि रीति" जैसे शब्दों का प्रयोग इस काल मे बहुत होने लगा था। हो सकता है आचार्य रामचन्द्र शुक्ल जी ने इसी कारण इस काल को रीतिकाल कहना उचित समझा हो। काव्य रीति के ग्रन्थों मे काव्य-विवेचन करने का प्रयास किया जाता था। हिन्दी मे जो काव्य विवेचन इस काल मे हुआ, उसमे इसके बहाने मौलिक रचना भी की गई है। यह प्रवृत्ति इस काल मे प्रधान है,लेकिन इस काल की कविता प्रधानतः श्रंगार रस की है। इसीलिए इस काल को श्रंगार काल कहने की भी बात की जाती है। "श्रंगार" और "रीति" यानी इस काल की कविता मे वस्तु और इसका रूप एक-दूसरे से अभिन्न रूप से जुड़े हुए है। रीतिकालीन कवियों के प्रमुख वर्ण्य विषय प्रायः एक से थे। जिनमें राज्य विलास, राज्य प्रशंसा, दरबारी कला विनोद, मुगलकालीन वैभव, अष्टयाम संयोग, वियोग वर्णन, ॠतु वर्णन, किसी सिद्धांत के लक्ष्य लक्षणों का वर्णन, श्रृंगार के अनेक पक्षों के स्थूल एवं मनोवैज्ञानिक चित्रों की अवतारणा आदि विषय प्रायः सभी कवियों के क...

रीतिकाल के प्रमुख कवि और उनकी रचनाएं

वस्तुतः उत्तर मध्य काल के नामकरण को लेकर विद्वानों में मतभेद रहे हैं। मिश्रबधुओं ने इसे अलंकृत काल कहा है तो आचार्य शुक्ल ने इसे रीतिकाल नाम दिया है। पं. विश्वनाथ प्रसाद मिश्र ने इसे शृंगार काल कहा। इसी प्रकार डाॅ. रमाशंकर शुक्ल रसाल ने इसे कला कला कहा है और डाॅ. भगीरथ मिश्र ने इसे रीति शृंगारकाल कहा है। इन सभी नामों में केवल रीतिकाल नाम ही अधिक उपर्युक्त एवं न्याय संगत है, क्योंकि इस काल के अधिकांश ग्रंथ रीति सम्बन्धी ही थे और कवियों की प्रवृत्ति भी केवल रीति ग्रंथों को रचने की थी। रीतिकाल के प्रमुख कवि, रीतिकाल के प्रमुख कवि और उनकी रचनाएंइस प्रकार है - • केशवदास • बिहारीलाल • चिन्तामणि त्रिपाठी • भूषण • मतिराम • देव • भिखारीदास • पद्माकर • घनानन्द केशवदासपरिचय पीछे‘भक्तिकाल’ के अन्तर्गत दिया जा चुका है। यद्यपि ये अलंकारों को महत्व देने वाले चमत्कारवादी कवि माने जाते हैं, प्रमाणस्वरूप इनकी प्रसिद्ध उक्ति- ‘भूषण बिन न बिराजई कविता बनिता मित्त’ को उद्धृत किया जाता है। किन्तु इनके दो काव्यशास्त्रीय ग्रन्थ ‘रसिकप्रिय’ और ‘कविप्रिया’ इन्हें अलंकारवादी सिद्ध नहीं करते हैं।‘रसिकप्रिया’ कविता के श्रृंगार अलंकारों का विवेचन ग्रन्थ है। कुछ विद्वानों ने केशव को रीतिकाल का प्रवर्त्तक कवि नहीं माना है और उन्हें भक्तिकाल में रखा है, किन्तु कुछ उन्हें रीतिकाल का प्रवर्त्तक आचार्य कवि मानते हैं। बिहारीलालइनका जन्म ग्वालियर के पास बहुवा गोविन्दपुर नामक स्थान पर संवत् 1660 (सन् 1603 ई.) में हुआ था। इनका बचपन बुन्देलखण्ड में बीता और युवावस्था में अपनी ससुराल मथुरा में आ बसे थे। ये आमेर (जयपुर) के मिर्जा राजा जयसिंह के दरबार में रहा करते थे। कहा जाता है कि राजा से इन्हें प्रत्येक दोहे पर एक...

रीतिकाल के कवि और उनकी रचनाएँ

रीतिकाल की रचनाएं रीतिकाल के कवि रीतिकाल के प्रमुख कवि चिंतामणि, मतिराम, राजा जसवंत सिंह, भिखारी दास, याकूब खाँ, रसिक सुमति, दूलह, देव, कुलपति मिश्र, सुखदेव मिश्र, रसलीन, दलपति राय, माखन, बिहारी, रसनिधि, घनानन्द, आलम, ठाकुर, बोधा, द्विजदेव, लाल कवि, पद्माकर भट्ट, सूदन, खुमान, जोधराज, भूषण, वृन्द, राम सहाय दास, दीन दयाल गिरि, गिरिधर कविराय, गुरु गोविंद सिंह आदि हैं। रीतिकाल के कवि और उनकी रचनाएँ क्रम कवि (रचनाकर) रचनाएं (उत्तर-मध्यकालीन/रीतिकालीन रचना) 1. चिंतामणि कविकुल कल्पतरु, रस विलास, काव्य विवेक, शृंगार मंजरी, छंद विचार 2. मतिराम रसराज, ललित ललाम, अलंकार पंचाशिका, वृत्तकौमुदी 3. राजा जसवंत सिंह भाषा भूषण 4. भिखारी दास काव्य निर्णय, श्रृंगार निर्णय 5. याकूब खाँ रस भूषण 6. रसिक सुमति अलंकार चन्द्रोदय 7. दूलह। कवि कुल कण्ठाभरण 8. देव शब्द रसायन, काव्य रसायन, भाव विलास, भवानी विलास, सुजान विनोद, सुख सागर तरंग 9. कुलपति मिश्र रस रहस्य 10. सुखदेव मिश्र रसार्णव 11. रसलीन रस प्रबोध 12. दलपति राय अलंकार लाकर 13. माखन छंद विलास 14. बिहारी बिहारी सतसई 15. रसनिधि रतनहजारा 16. घनानन्द सुजान हित प्रबंध, वियोग बेलि, इश्कलता, प्रीति पावस, पदावली 17. आलम आलम केलि 18. ठाकुर ठाकुर ठसक 19. बोधा विरह वारीश, इश्कनामा 20. द्विजदेव श्रृंगार बत्तीसी, श्रृंगार चालीसी, श्रृंगार लतिका 21. लाल कवि छत्र प्रकाश (प्रबंध)। 22. पद्माकर भट्ट हिम्मत बहादुर विरुदावली (प्रबंध) 23. सूदन सुजान चरित (प्रबंध) 24. खुमान लक्ष्मण शतक 25. जोधराज हमीर रासो 26. भूषण शिवराज भूषण, शिवा बावनी, छत्रसाल दशक 27. वृन्द वृन्द सतसई 28. राम सहाय दास राम सतसई 29. दीन दयाल गिरि अन्योक्ति कल्पद्रुम 30. गिरिधर कविराय स्फुट छन्द ...

रीतिकालीन काव्य की प्रमुख प्रवृतियाँ

रीतिकालीन काव्य की प्रमुख प्रवृतियाँ रीतिकालीन काव्य की रचना सामंती परिवेश और छत्रछाया में हुई है इसलिए इसमें वे सारी विशेषताएँ पाई जाती हैं जो किसी भी सामंती और दरबारी साहित्य में हो सकती हैं। इस प्रकार रीतिकाल की प्रमुख प्रवृत्तियाँ (ritikal ki pramukh pravritiyan)निम्नलिखित हैं- 1.रीति निरूपण/लक्षण ग्रंथों की प्रधानता, 2.श्रृंगारिकता, 3.आलंकारिकता, 4.आश्रयदाताओं की प्रशंसा/राजप्रशस्ति, 5.चमत्कार प्रदर्शन एवं बहुज्ञता, 6.उद्दीपन रूप में प्रकृति का चित्रण, 7.ब्रज भाषा की प्रधानता, 8.भक्ति और नीति, 9.मुक्तक शैली की प्रधानता, 10.संकुचित जीवन दृष्टि, 11.नारी के प्रति कामुक दृष्टिकोण, 12.स्थूल एवं मांसल सौंदर्य का अंकन 1.लक्षण ग्रंथों की प्रधानता रीतिकाल की प्रमुख प्रवृत्ति रीति निरूपण या लक्षण-ग्रंथों का निर्माण है। इन कवियों ने संस्कृत के आचार्यों का अनुकरण पर लक्षण-ग्रंथों अथवा रीति ग्रंथों का निर्माण किया है। फिर भी इन्हें रीति निरूपण में विशेष सफलता नहीं मिली है। इनके ग्रंथ एक तरह से संस्कृत-ग्रंथों में दिए गए नियमों और तत्वों का हिंदी पद्य में अनुवाद हैं। जिसमें मौलिकता और स्पष्टता का अभाव है।इन कवियों ने कवि कर्म की अपेक्षा कवि शिक्षक की भूमिका में नजर आते है। रीति निरूपण करने वाले आचार्यों के 2 भेद हैं- सर्वांग और विशिष्टांग निरूपक।काव्यांग परिचायक कवियों का उद्देश्य काव्यांगों का परिचय देना है 2.श्रृंगारिकता रीतिकाल की दूसरी बड़ी विशेषता श्रृंगार रस की प्रधानता है। इस काल की कविता में नखशिख और राधा-कृष्ण की प्रेम लीलाओं का चित्रण व्यापक स्तर पर हुआ है।दरबारी परिवेश के फलस्वरूप नारी केवल पुरुष के रतिभाव का आलम्बन बनकर रह गई। श्रृंगार के दोनों पक्षों का वर्णन इस युग की...