रुचिता का नाटक

  1. 'स्कंदगुप्त' की रंगमंचीय संभावनाएँ
  2. हिन्दी साहित्य की गद्य विधाएँ: नाटक (इकाई


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'स्कंदगुप्त' की रंगमंचीय संभावनाएँ

स्कंदगुप्त से संबंधित यह तीसरी और अंतिम इकाई है। इस इकाई में नाटक की रंगमंचीय संभावनाओं और गीतों पर विचार किया गया है। हमने पिछली में प्रसाद की नाट्य दृष्टि पर विस्तार से विचार किया था। प्रसाद के नाटकों को लेकर सबसे बड़ा विवाद यही है कि उसे मंच पर खेला जा सकता है या नहीं। आमतौर पर प्रसाद के नाटकों को रंगमंच की दृष्टि से बहुत उपयुक्त नहीं समझा जाता। स्कंदगुप्त पर विचार करने से पहले यह जानना बहुत ज़रूरी है कि प्रसाद की रंगमंच संबंधी संकल्पना क्या थी। इस इकाई में इस पक्ष पर विचार किया गया है। रंगमंच संबंधी संकल्पना को समझकर ही हम यह जान सकते हैं कि स्कंदगुप्त को रंगमंच पर किस हद तक सफलतापूर्वक प्रस्तुत किया जा सकता है। इसके लिए नाटक की दृश्य योजना, क्रिया व्यापार पात्र योजना आदि पहलुओं पर विचार करना ज़रूरी है। इकाई में इन सभी पक्षों का गहन विवेचन किया गया है। रंगमंच पर प्रस्तुति के लिए जरूरी है कि नाटक की भाषा, विशेषकर संवादों की भाषा पर विचार किया जाए। प्रसाद के संवाद क्या मंच पर प्रस्तुति के लिए उपयुक्त है? वे पात्रों, उनकी मनोदशाओं और नाटक के क्रिया व्यापार को गति देने के लिए किस सीमा तक प्रभावशाली माने जा सकते हैं? प्रसाद छायावादी कवि थे, क्या उनके संवादों पर काव्यगत विशेषताओं का प्रभाव है? क्या नाटकीयता और अभिनेयता की दृष्टि से वे सफल कहे जा सकते हैं? इन सभी पहलुओं पर इकाई में विचार किया गया है। नाटक की सबसे बड् पहचान उसकी अभिनेयता है। रंगमंच पर प्रस्तुति के लिए यह आवश्यक हो जाता है कि हम इस बात का विश्लेषण करें कि उसका अभिनय किस हद तक सफल होगा? स्कंदगुप्त नाटक के प्रत्येक अंक में गीतों को शामिल किया गया है। प्रसाद के ये गीत किस तरह के हैं? उनसे नाटक का प्रभाव विस्तारित ...

हिन्दी साहित्य की गद्य विधाएँ: नाटक (इकाई

‘नाटक’ शब्द संस्कृत की ‘नट्’ धातु से बना है, जिसका अर्थ होता है- ‘अभिनय करना’। नाटक की व्युत्पति नट + अक = नाटक ( अर्थ अभिनय करना है।) परिभाषा- “अवस्थानुकृतिनार्ट्यं रूपं दृष्यतयोच्यते।” अथार्त किसी अवस्था का अनुकृति ही नाटक है। (यह धनंजय के नाटक ‘दशरूपक’ में है।) भारतेंदु हरिश्चंद्र के शब्दों में- “नाटक का अर्थ है, नटों के द्वारा की जाने वाली क्रिया।” सेक्सपियर के शब्दों में- “नाटक दर्पण के सामान है, जिसमे प्रकृति स्वरुप बिंब, युग, आकृति तथा उसके प्रभाव बिम्बित होते है।” नाटकों की उत्पत्ति से संबंधित विविध मत: • भारतीय विद्वान नाट्यशास्त्र के प्रणेता आचार्य भरतमुनि ‘दैवीए सिद्धांत’ को मानते है। उनके अनुसार- ब्रह्मा जी के द्वारा नाटक की रचना की गई थी। ऋग्वेद से पाठ ‘कथावस्तु’ सामवेद से ‘गान’ यजुर्वेद से ‘अभिनय’ अथर्ववेद से ‘रस’ लिया गया। रंगमंच का निर्माण विश्वकर्मा के द्वारा किया गया। शिव के द्वारा ‘तांडव’ नृत्य, पार्वती के द्वारा ‘लास्य’ नृत्य। प्रथम नाटक समुंद्र मंथन देवताओं एवं राक्षस के द्वारा खेला गया था। पिशेल के शब्दों में- “कठपुतली कला से नाटकों की उत्पति हुई।” (सर्वमान्य है) डॉ० रिजवे के शब्दों में- “मृतक वीर पूजा से मानते है।” डॉ० हिलेब्रा एवं प्रो० कोने के शब्दों में- “ये दोनों स्वांगों के द्वारा मानते है।” आचार्य धंनजय के अनुसार ‘रूपक’ के दस भेद होते है: भाण- (एक अंक) भाण में केवल एक अंक एक ही पात्र होता है। प्रहसन- (एक अंक) हास्य प्रधान एकांकी होता है। इसके तीन भेद है- (i) शुद्ध (ii) शंकर (iii) संकर वीथि- (एक अंक) इस एकांकी की कथावस्तु कल्पित होता है। कोशिकी वृति प्रधान होती है। व्यायोग- (एक अंक) इसमें पुरुषपात्र अधिक और स्त्रीपात्र बहुत कम होते है। यह भी एका...