उर्मिला का विरह वर्णन साकेत के किस सर्ग में है

  1. उर्मिला
  2. प्रेरणादायिनी – उर्मिला
  3. 'साकेत' के नवम सर्ग में किसका विरह वर्णन है?
  4. उर्मिला (रामायण)
  5. साकेत अष्टम सर्ग सारांश Material for 2023 Exam
  6. Maithilisharan Gupt


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उर्मिला

विंध्य-हिमाचल-भाल भला झुक आ न धीरो, चन्द्र-सूर्य कुल-कीर्ति कला रूक जाय न वीरो । ठहरो, यह मैं चलूँ कीर्ति सी आगे-आगे, भोगें अपने विषम कर्मफल अधम अभागे ॥ • उर्मिला और लक्ष्मण का पारस्परिक प्रेम एक-दूसरे को पूर्णता की ओर अग्रसर करता है। इस युगल का प्रेम शुद्ध, सात्विक और आत्मिक है। उसमें कहीं उच्छृंखलता, विलासिता और पार्थिवता की दुर्गन्ध नहीं है। तभी तो संयोग की अपूर्व वेला में उर्मिला लक्ष्मण से पूछती है कि- • भारतीय संस्कृति कोश | लेखक: लीलाधर शर्मा पर्वतीय | प्रकाशक: राजपाल एन्ड सन्स दिल्ली | पृष्ठ संख्या: 148 | • साकेत, सर्ग 9, पृ.269 • हिन्दी के आधुनिक पौराणिक महाकाव्य, डॉ. देवीप्रसाद, पृ.135 • साकेत, पृ. 474-75 • साकेत, पृ. 135 • उर्मिला, डॉ. बालकृष्ण शर्मा ‘नवीन’ पृ 135 • हिन्दी महाकाव्यों में नारी-चित्रण, पृ. 650 • ' • ' संबंधित लेख · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · · ...

प्रेरणादायिनी – उर्मिला

“मानस-मंदिर में सती, पति की प्रतिमा थाप, जलती सी उस विरह में, बनी आरती आप। आँखों में प्रिय मूर्ति थी, भूले थे सब भोग, हुआ योग से भी अधिक उसका विषम-वियोग। आठ पहर चौंसठ घड़ी स्वामी का ही ध्यान, छूट गया पीछे स्वयं उससे आत्मज्ञान।“ ये पंक्तियाँ कवि ‘श्री मैथिलीशरण गुप्त’ की रचना ‘साकेत’ के ‘नवम सर्ग’ की हैं। इन पंक्तियों में कवि ने ‘उर्मिला’ की विरह पीड़ा को व्यक्त किया है। इन पंक्तियों का सार है – मन-मंदिर में अपने पति की प्रतिमा स्थापित करके उर्मिला विरह की अग्नि में जलते हुए खुद आरती की ज्योति बन गई है। आँखों में प्रिय की मूर्ति बसाकर सभी मोह-माया को त्याग कर उनका जीवन एक योगी के जीवन से भी ज्यादा कठिन और कष्टदायक है। दिन-रात स्वामी के ध्यान में डूबने के कारण वे स्वयं को भी भूल गई हैं। कितनी कारुणिक पंक्तियाँ हैं ये ! गुप्त जी को उर्मिला के प्रति सहानुभूति है परन्तु यह सहानुभूति किसी नारीवादी आन्दोलन के कारण नहीं बल्कि एक वैष्णव कवि की सहज और स्वाभाविक अनुभूति का परिणाम है। ‘रामायण’ हिन्दुओं का पवित्र ग्रंथ है। इसमें मर्यादा पुरुषोत्तम श्री राम के जीवन की कथा है। इस ग्रन्थ का प्रत्येक चरित्र हमारा मार्गदर्शन करता है एवं प्रत्येक घटना हमें जीवन में सही मार्ग दिखाती है। महानायक के रूप में श्री राम एक पुत्र, एक भाई और एक न्यायप्रिय राजा के रूप में संपूर्ण हैं। माता सीता पतिव्रता स्त्री का उदाहरण प्रस्तुत करती हैं। लक्ष्मण भाई के रूप में एक सशक्त उदाहरण हैं । हनुमान जैसा भक्त कोई नहीं तो रावण जैसा महान ज्ञानी और क्रूर शासक जैसा भी कोई नहीं। इन सभी की महान गाथा से यह ग्रन्थ ओत-प्रोत है। उर्मिला ‘रामायण’ ग्रंथ के चरित्रों में से एक हैं। उर्मिला लक्ष्मण की धर्मपत्नी तथा माता सीता की...

'साकेत' के नवम सर्ग में किसका विरह वर्णन है?

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उर्मिला (रामायण)

इस लेख में सन्दर्भ या स्रोत नहीं दिया गया है। कृपया विश्वसनीय सन्दर्भ या स्रोत जोड़कर स्रोत खोजें: · · · · उर्मिला Information जीवनसाथी पुत्र अंगद चन्द्रकेतु उर्मिला हिंदू महाकाव्य उर्मिला निद्रा [ ] बताते है वनवास की पहली रात में जब भगवान राम और देवी सीता कुटिया में विश्राम करने चले गये तो लक्ष्मण कुटिया के बाहर एक प्रहरी के रुप में पहरा दे रहे थे। तभी उनके पास निद्रा देवी प्रकट हुई थी। भगवान लक्ष्मण ने निद्रा देवी से यह वरदान मांगा था कि उन्हे 14 वर्षो तक निद्रा से मुक्त कर दें तो निद्रा देवी ने उनकी इस इच्छा को स्वीकार करते हुए यह कहा था कि उनके हिस्से कि निद्रा को किसी न किसी को लेना ही होगा। तब भगवान लक्ष्मण ने निद्रा देवी से विनती की थी की उनके हिस्से की निद्रा को उनकी पत्नी उर्मिला को दे दिया जाय। कहा जाता है कि निद्रा देवी के इस वरदान के कारण भगवान लक्ष्मण की पत्नी उर्मिला माता लगातार 14 वर्षो तक सोती रही और लक्ष्मण जी जागते रहे। सन्दर्भ [ ]

साकेत अष्टम सर्ग सारांश Material for 2023 Exam

हिन्दी साहित्य के इतिहास में वे खड़ी बोली के प्रथम महत्त्वपूर्ण कवि हैं। उन्हें साहित्य जगत में ‘दद्दा’ नाम से सम्बोधित किया जाता था। उनकी कृति भारत-भारती (1912) भारत के स्वतन्त्रता संग्राम के समय में काफी प्रभावशाली सिद्ध हुई थी और और इसी कारण महात्मा गांधी ने उन्हें ‘राष्ट्रकवि’ की पदवी भी दी थी। उनकी जयन्ती 3 अगस्त को हर वर्ष ‘कवि दिवस‘ के रूप में मनाया जाता है। भारत सरकार द्वारा पद्मभूषण सम्मान साकेत अष्टम सर्ग साकेत महाकाव्यमें कुल 12सर्ग हैं। जिनमे अष्टमएवं नवमसर्ग का विशेष महत्व है। अष्टम सर्ग में चित्रकूट में घटी घटनाओं का वर्णन किया है। अष्टम सर्ग में वर्णित घटना केवल इतिवृत्त नहीं है, अपितु घटनाओं का संयोजन युग की आकांक्षाओं की अभिव्यक्ति करने के उद्देश्य से इस प्रकार किया है कि वह अपनी आधुनिक चेतना के कारण प्रासंगिक हो उठा है। कवि अष्टम सर्ग का आरंभ बड़े ही आकर्षक ढंग से करता है। सीता जी चित्रकूट में अपनी पर्णकुटी के आसपास के पेड़ पौधों का सिंचन कर रही है साथ ही एक गीत गुनगुना रही है। पति के सानिध्य में रहकर जंगल में भी उन्हें राज भवन का सुख प्राप्त हो रहा है। श्री रामचंद्र सीता का विनोद, दांपत्य जीवन की मधुरता, स्नेह, त्याग की प्रेरणा देते हैं। कवि ने साकेत अष्टम सर्ग में श्री राम और सीता के संवाद में अपने युग चेतना को वर्णित किया है। श्री राम अपने वनागमन का उद्देश्य वन में द्वित वानर के सद्रश्य वन में रह रहे लोगों को आर्य तत्व प्रदान करना बताते हैं। धरती को स्वर्ग बनाने मानवीय मूल्यों की प्रतिष्ठा करने के लिए प्रभु श्री राम का अवतार हुआ है। इस प्रकार श्री राम सीता संवाद महत्वपूर्ण है। इसके अतिरिक्त साकेत अष्टम सर्ग में, • वन में जोर का कोलाहल सुन सीता का घबरान...

Maithilisharan Gupt

मेरे बेटा, भैया, राजा, उठ, मेरी गोदी में आजा, भौंरा नचे, बजे हाँ, बाजा, सजे श्याम हय, या सित नाग? जाग, दु:खिनी के सुख, जाग! जाग अरे, विस्मृत भव मेरे! आ तू, क्षम्य उपद्रव मेरे! उठ, उठ, सोये शैशव मेरे! जाग स्वप्न, उठ, तन्द्रा त्याग! जाग, दु:खिनी के सुख, जाग! 2 अम्ब, स्वप्न देखा है रात, लिये मेष-शावक गोदी में खिला रहे हैं तात । उसकी प्रसू चाटती है पद कर करके प्रणिपात, घेरे है कितने पशु-पक्षी, कितना यातायात! 'ले लो मुझको भी गोदी में सुन मेरी यह बात, हंस बोले-'असमर्थ हुई क्या तेरी जननी ? जात !" आँख खुल गई सहसा मेरी, माँ, हो गया प्रभात, सारी प्रकृति सजल है तुझ-सी भरे अश्रु अवदात! 3 बस, मैं ऐसी ही निभ जाऊँ। राहुल, निज रानीपन देकर तेरी चिर परिचर्या पाऊँ। तेरी जननी कहलाऊँ तो इस परवश मन को बहलाऊँ। उबटन कर नहलाऊँ तुझको, खिला पिला कर पट पहनाऊँ। रीझ-खीझ कर, रूठ मना कर पीड़ा को क्रीड़ा कर लाऊँ। यह मुख देख देख दुख में भी सुख से दैव-दया-गुण गाऊँ। स्नेह-दीप उनकी पूजा का तुझमें यहां अखण्ड जगाऊँ। डीठ न लगे, डिठौना देकर, काजल लेकर तुझे लगाऊँ। 4 कैसी डीठ? कहाँ का टौना? मान लिया आँखों में अंजन, माँ, किस लिए डिठौना? यही डीठ लगने के लच्छिन-छूटे खाना-पीना, कभी कांपना, कभी पसीना, जैसै तैसे जीना ? डीठ लगी तब स्वयं तुझे ही, तू है सुध-बुध हीना, तू ही लगा डिठौना, जिसको कांटा बना विछौना। कैसी डीठ? कहाँ का टौना? लोहत-बिन्दु भाल पर तेरे, मैं काला क्यों दूँ माँ? लेती है जो वर्ण आप तू क्यों न वही मैं लूँ माँ? एक इसी अन्तर के मारे मैं अति अस्थिर हूँ माँ! मेरा चुम्बन तुझे मधुर क्यों ? तेरा मुझे सलोना! कैसी डीठ? कहाँ का टौना? रह जाते हैं स्वयं चकित-से मुझे देख सब कोई, लग सकती है कह, मां, मुझको डीठ कहाँ कब कोई?...