उत्तराखंड के लोक पर्व पर निबंध

  1. Phooldei 2022 प्रकृति संरक्षण से जुड़ा है उत्तराखंड का लोकपर्व फूलदेई
  2. उत्तराखण्ड का लोक पर्व है उत्तरायणी
  3. उत्तराखण्ड की संस्कृति
  4. उत्तराखंड का लोक पर्व फूलदेई
  5. उत्तराखंड के 13 प्रमुख लोक नृत्य हैं?
  6. उत्तराखंड की सम्पूर्ण जानकारी
  7. Harela festival in uttarakhand Know harela 2021 importance story and folk song
  8. उत्तराखंड का लोक पर्व


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Phooldei 2022 प्रकृति संरक्षण से जुड़ा है उत्तराखंड का लोकपर्व फूलदेई

Phooldei 2022 : प्रकृति संरक्षण से जुड़ा है उत्तराखंड का लोकपर्व फूलदेई Phooldei 2022 प्रकृति को सहजने और मनुष्यों के उससे जुड़ाव को और गहरा बनाने का लोकपर्व फूलदेई उत्तराखंड में पूरे उल्लास से मनाया जाता है। इस दिन बच्चे टोकरी लेकर फूल चुनने जाते हैं और घर की देहरी को रंग-बिरंगे फूलों से सजाते हैं। जागरण संवाददाता, हल्द्वानी : फूलदेई छम्मा देई, दैणी द्वार भर भकार। यानी यह देहरी फूलों से सजी रहे। घर खुशियों से भरा हो। सबकी रक्षा हो। अन्न के भंडार सदैव भरे रहे। सोमवार (आज) को चैत की संक्रांति है। उत्तराखंड में इसे फूल संक्रांति के तौर पर मनाया जाता है। इस दिन घरों की देहरी को फूलों से सजाया जाता है। घर-मंदिर की चौखट का तिलक करते हुए 'फूलदेई छम्मा देई' कहकर मंगलकामना की जाती है। यह सब करते हैं घर व आस-पड़ोस के बच्चे। जिन्हें फुलारी कहा गया है। फुलारी यानी जो फूल लिए आ रहे हैं। लोक पर्व फूलदेई वसंत ऋतु के आगमन का संदेश देता है। नौकरी, पढ़ाई व दूसरे वजहों से अलग होते परिवारों में प्रकृति संरक्षक से जुड़े इस पर्व को मनाने की परंपरा पिछले कुछ वर्षों में कम हुई है। विशेषकर नगरीय क्षेत्रों में पर्व अब परंपरा निभाने तक सीमित होता जा रहा है। फूलदेई के लिए बच्चे हाथों में टोकरी, थाल लिए खेतों की ओर निकल पड़ते हैं। ताकि देहरी सजाने को वह चुन सकें, सरसों, फ्योंली व आड़ू-खुमानी के ताजा फूल। संस्कृति कर्मी डा. नवीन चंद्र जोशी कहते हैं कि यह माहौल बच्चों को प्रकृति से जुडऩे व उसमें होने वाले बदलाव को समझने का मौका देता है। डा. जोशी कहते हैं जरूरी नहीं कि पर्व गांव में ही मनाया जाए, जहां व जिस परिवेश में हैं, अपने लोकपर्व को अवश्य मनाना चाहिए। फूलदेई की झलक लोकगीतों में भी दिखती है। उत्तरा...

उत्तराखण्ड का लोक पर्व है उत्तरायणी

उत्तरायणी उत्तराखण्ड का प्रमुख पर्व है, इसे मकर संक्रांति का त्यौहार व उत्तरायणी , उत्तरैण, घुघति त्यार आदि नामों से भी जाना जाता है। उत्तरायणी शब्द उत्तरायण से बना है। प्राचीन समय में समय के मापने की कई इकाईयां बनायी गयी थीं। संक्रांति का यह पर्व केवल उत्तराखण्ड में ही नहीं बल्कि देश के अनेक प्रांतों व पड़ोसी देश नेपाल में भी अलग-अलग नामों व रीति-रीवाजों के साथ मनाया जाता है। हालांकि बदलते समय के साथ त्यौहारों की चमक भी फीकी पड़ी है, लेकिन घुघति पर्व को लेकर आज भी लोगों में काफी उत्साह है। याम , तिथि , पक्ष , मास , ऋतु और अयन, एक अयन में तीन ऋतुएं व छह मास होते हैं। उत्तरायण मतलब जब पौष माह में सूर्य उत्तर की ओर जाना शुरू होता है। यह उत्तर और अयन शब्दों की संधि से बना है, उत्तर+अयन अर्थात उत्तर में गमन। उत्तरायण का आरम्भ 21 या 22 दिसंबर से होता है और 22 जून तक रहता है। यह सवाल पैदा होना लाजमी है कि तब 14-15 जनवरी को उत्तरायणी के दिन से सूर्य का उत्तरायण की दिशा में जाना क्यों माना जाता है और क्यों इसी दिन उत्तरायणी या मकर संक्रान्ति का त्यौहार मनाया जाता है ? लगभग 1800 साल पहले इसी दिन सूर्य उत्तरायण में जाने की स्थिति में होता था शायद इसीलिए इस दिन से उत्तरायणी का त्यौहार मनाये जाने की परम्परा आज भी जारी है। उत्तरायण को शुभ माना जाता है, इसीलिए महाभारत में भीष्म पितामह जब अर्जुन के बाणों से घायल हुए तो दक्षिणायण की दिशा थी। भीष्म ने अपनी देह का त्याग करने के लिए उत्तरायण तक सर शैय्या पर ही विश्राम किया था। माना जाता है कि उत्तरायण में ऊपरी लोकों के द्वार पृथ्वीवासियों के लिए खुल जाते हैं। इस समय देश के सभी हिस्सों में विभिन्न त्यौहार मनाये जाते हैं। इस मौके पर ही उत्तराख...

उत्तराखण्ड की संस्कृति

अनुक्रम • 1 रहन-सहन • 2 त्यौहार • 3 खानपान • 4 वेशभूषा • 5 लोक कलाएँ • 6 लोक नृत्य • 6.1 विशेष लोक नृत्य • 7 भाषाएँ • 8 उत्तराखण्डी सिनेमा • 9 इन्हें भी देखें • 10 सन्दर्भ • 11 बाहरी कड़ियाँ रहन-सहन [ ] उत्तराखण्ड एक पहाड़ी प्रदेश है। यहाँ ठण्ड बहुत होती है इसलिए यहाँ लोगों के मकान पक्के होते हैं। दीवारें पत्थरों की होती है। पुराने घरों के ऊपर से पत्थर बिछाए जाते हैं। वर्तमान में लोग सीमेन्ट का उपयोग करने लग गए है। अधिकतर घरों में रात को रोटी तथा दिन में भात (चावल) खाने का प्रचलन है। लगभग हर महीने कोई न कोई त्योहार मनाया जाता है। त्योहार के बहाने अधिकतर घरों में समय-समय पर पकवान बनते हैं। स्थानीय स्तर पर उगाई जाने वाली गहत, रैंस, भट्ट आदि दालों का प्रयोग होता है। प्राचीन समय में मण्डुवा व झुंगोरा स्थानीय मोटा अनाज होता था। अब इनका उत्पादन बहुत कम होता है। अब लोग बाजार से गेहूं व चावल खरीदते हैं। कृषि के साथ पशुपालन लगभग सभी घरों में होता है। घर में उत्पादित अनाज कुछ ही महीनों के लिए पर्याप्त होता है। कस्बों के समीप के लोग दूध का व्यवसाय भी करते हैं। पहाड़ के लोग बहुत परिश्रमी होते है। पहाड़ों को काट-काटकर सीढ़ीदार खेत बनाने का काम इनके परिश्रम को प्रदर्शित भी करता है। पहाड़ में अधिकतर श्रमिक भी पढ़े-लिखे है, चाहे कम ही पढ़े हों। इस कारण इस राज्य की साक्षरता दर भी राष्ट्रीय औसत से कहीं अधिक है। त्यौहार [ ] शेष भारत के समान ही उत्तराखण्ड में पूरे वर्षभर उत्सव मनाए जाते हैं। भारत के प्रमुख उत्सवों जैसे दीपावली, होली, दशहरा इत्यादि के अतिरिक्त यहाँ के कुछ स्थानीय त्योहार हैं • मेले • देवीधुरा मेला (चम्पावत) • पूर्णागिरि मेला (चम्पावत) • नंदा देवी मेला (अल्मोड़ा) • उत्तरायणी मे...

उत्तराखंड का लोक पर्व फूलदेई

हिमालय क्षेत्र का यह त्यौहार सुबह की हल्की ठण्डक के साथ शुरू होता है जिसमें बच्चों के झुण्ड सुबह-सुबह उठकर औंस से भरे खेतों में क्यालू व राई के फूलों को तोडते है साथ ही बिट्टों से फ्योंली के पीले-पीले फूलों के साथ बास्या (बासिंगे), आरू,मोल आदि के सभी फूलों को अपनी कण्डुल्यों (रिंगाल से बनी टोकरी), लुठ्यों (लोठा) में भरकर सूरज की पहली किरण आने से पूर्व मन्दिर, घर कुठारों की डेहली(देहलीज) में डालते है. निर्धारित दिन के बाद अन्तिम दिन सभी बच्चें घर-घर जा कर चन्दा के रूप में चावल,दाल,आलू,प्याज श्रद्धा के अनुसार जो कोई कुछ दे सके उसे लेकर फूलकल्यों (घर से दूर जंगलों गाडगदरों में पिकनिक) मनानेजाते है और घर से दूर पकवान बनाकर घोग्या देवता का आव्हान कर गडाते है फिर घोग्या देवता जिस बालक पर आता है वह एक डुबकी नदी में लगाकर गरम-गरम प्रसाद खाता है फिर वह कल्यों उन्ही घर में देकर यह फूलदेई पर्व को मनाया जाता है. अपने बेटे को समर्पित मेरी यह कविता- यह सब देख कर अपने बचपन के दिन याद आ जाते है जब हम भी सुबह-सुबह जल्दी से उठकर दोस्तों के साथ खेतों में फूल तोडने के लिए दौडते थे, जैसे-जैसे बड़े होते गये ये बाल पर्व छूटता गया और फिर फूलदेई को इंटरनेट में ही पढने को मिलता है, आज के आधुनिक समाज से यह पर्व विलुप्त होने की कगार पर है, मॉर्डन समाज के परिवारजन अपने बच्चों के सुबह फूल लेने और इस उमंग भरे त्यौहारों की परमीशन नही देते जिसके चलते यह लोक पर्व अब कम ही जगह में मनाया जा रहा है, जिसके लिए उतराखण्ड सरकार को कोई ठोस कदम उठाना चाहिए... सागर सुनार

उत्तराखंड के 13 प्रमुख लोक नृत्य हैं?

धार्मिक नृत्य यहां पर देवी देवताओं से लेकर अंछरियाें (अप्सराओं) और भूत पिचास तब की पूजा धार्मिक नृत्य के अभिनव द्वारा संपन्न की जाती है इन मृत्यु में गीतों एवं वाद्य यंत्रों के स्वराें द्वारा देवता विशेष पार अलाैकिक कंपन के रूप में होता है। कंपन की चरम सीमा पर वह उठकर बैठकर नृत्य करने लगता है। ऐसे देवताओं का आना कहते हैं जिस पर देवता आता है वह पस्वा कहलाता है। धार्मिक नृत्य की चार अवस्थाएं है- विशुद्ध देवी देवताओं का नृत्य ऐसे नृत्य में जाकर लगाने हैं। उसमें प्रत्येक देवता का आह्वान पूजन एवं नृत्य होता है। देवता रूप में पांडवों का पण्डाैं नृत्य पाण्डवों की संपूर्ण कथा वार्ता रूप मैं गाकर विभिन्न शैलियों में नृत्य होता है। संपूर्ण उत्तरी पर्वतीय शैलियों में पांडवों का निर्माण किया जाता है। इन्हें भी पढ़ें: – इन्हें भी पढ़ें:- मृत अशांत आत्मा नृत्य मृतक की आत्मा को शांत करने के लिए अत्यंत कारूणिका गीत रसों का गायन होता है और डमरो तथा थाली के स्वरों में नृत्य का बाजा बजाया जाता है। रणभूत देवता युद्ध में मेरे वीर योद्धा भी देव रूप में पूजे तथा नचाए जाते हैं। बहुत पहले कत्यूराें और राणा वीरू का घमासान युद्ध हुआ था आज भी उन वीरों की अशांत आत्मा उनके विश्व अंजू के सिर पर आती है भंडारी जातिक पर कत्यूरी वीर और रावत जाति पर रातारात वीर आता है। थडया नृत्य संत पंचमी से लेकर विश्वत मकर संक्रांति तंत्र अनेक सामाजिक एवं देवताओं के नृत्य गीतों के साथ खुले मैदान में गोलाकार होकर स्त्रियों द्वारा किए गए लास्य कोटी के नृत्य हैं। इन्हें भी पढ़ें:- खुदेड़ नृत्य जो आध्यात्मिक क्षुधा में विहल, मायके स्मृति मैं डूबी हुई नायिकाओं का ह्रदय विदारक गतिमय नृत्य है। चोफुला नृत्य थडया नृत्य की भांति चोफ...

उत्तराखंड की सम्पूर्ण जानकारी

उत्तराखंड की सम्पूर्ण जानकारी – Information about Uttrakhand in Hindi उत्तराखंड (Stat e of India) भारत का 27 वां राज्य है। प्राकृतिक सुषमा की दृष्टिकोण से यह प्रदेश बहुत ही अनुपम है यह प्रदेश तीर्थाटन के साथ-साथ पर्यटन की दृष्टि से भी बहुत ही महत्वपूर्ण प्रदेश है। क्षेत्रफल की दृष्टि से उत्तराखण्ड का भारत में 19वाँ स्थान है। पौराणिक कथाओं के अनुसार उत्तराखंड देवताओं की भूमि रही है। इसी कारण से उत्तराखंड को देव भूमि के नाम से जाना जाता है। हिमालय के तराई में बसा इस राज्य के गंगोत्री से हिन्दू समुदाय के आस्था का प्रतीक पवित्र गंगा नदी निकलती है। यहाँ के आध्यात्मिक स्थल हरिद्वार विश्व प्रसिद्ध कुम्भ मेला का आयोजन स्थलों में से एक है। आध्यात्मिक और सांस्कृतिक दृष्टि से यह भारत का महत्वपूर्ण राज्य है। पहले यह उत्तरप्रदेश राज्य का एक अहम हिस्सा था। लेकिन सन 2000 में इस प्रदेश के लोगों के मांग के कारण उत्तरप्रदेश से पृथक कर भारत का 27 वाँ राज्य का गठन हुआ। इस नए राज्य का नाम उत्तरांचल रखा गया। इस राज्य का 2000 से 2006 तक उत्तरांचल ही नाम था। लेकिन 2007 में लोगों के जबरदस्त मांग के कारण इस राज्य का नाम बदलकर उत्तराखंड कर दिया गया। क्योंकि प्राचीन साहित्य और हिन्दी धर्म ग्रंथों में इस क्षेत्र का उल्लेख उत्तराखंड के रूप में ही मिलता है। इस लेख में उतराखंड की संस्कृति, इतिहास, वेशभूषा, रहन सहन, राजनीतिक व्यवस्था, उतराखंड के जिले का सम्पूर्ण वर्णन दिया गया है। उत्तराखंड के बारे में जानकारी संक्षेप में राज्य का नाम उत्तराखंड ( Uttrakhand ) उत्तराखंड की राजधानी देहरादून स्थापना दिवस 9 नवंबर 2000 उत्तराखंड का क्षेत्रफल 55845 वर्ग किमी. उत्तराखंड का राजकीय पशु कस्तूरी मृग उत्तराखंड का राज...

Harela festival in uttarakhand Know harela 2021 importance story and folk song

प्रकृति पूजा का पर्व है हरेला प्रकृति का संतुलन बनाए रखना का पर्व हरेला मानव और पर्यावरण के अंतरसंबंधों का अनूठा पर्व है। वनों से हमें अनेक प्रत्यक्ष व अप्रत्यक्ष लाभ मिलते हैं। अनेक प्रकार की जड़ी-बूटियां मिलती हैं। जिनका प्रयोग औषधियां बनाने में किया जाता है। भारत में लगभग 35 लाख लोग वनों पर आधारित उद्योगों में कार्य कर आजीविका चलाते हैं। हरेला पर्व पर फलदार व कृषि उपयोगी पौधा रोपण की परंपरा है। हरेला केवल अच्छी फसल उत्पादन ही नहीं, बल्कि ऋतुओं के प्रतीक के रूप में भी मनाया जाता है। श्रावण मास भगवान भोलेशंकर का प्रिय मास है, इसलिए हरेले के इस पर्व को कहीं-कहीं हर-काली के नाम से भी जाना जाता है क्योंकि श्रावण मास शंकर भगवान जी को विशेष प्रिय है। उत्तराखंड के पहाड़ों पर ही भगवान शंकर का वास माना जाता है। इसलिए भी उत्तराखंड में श्रावण मास में पड़ने वाले हरेला का अधिक महत्व है।

उत्तराखंड का लोक पर्व

|| उत्तराखंड का लोक पर्व || भारत कृषि प्रधान देश है। इसलिए हमारे अधिकांश त्योहार ऋतओं से किसी न किसी रूप में संबंधित त में मन नाए जाने वाला संक्राति (मकर), उगादी, पड़वा, नवरात्र (चैत्र और शारदीय) तथा छठ पर्व और सावन में मनाया जाने वाला तीज का उत्सव और ऐसे ही न जाने कितने ही असंख्य उत्सव हैं जो कि ऋतुओं से संबंधित हैं। ऐसे ही उत्तराखंड का एक लोकपर्व है हरेला हरेला अर्थात हरियाली। 'हरेला पर्व' नई ऋतु के आगमन की सूचना देता है। वैसे तो सामन्यतया चार ऋतुएं गर्मी, बरसात, शरद व वसंत ऋतु है हरेले का पर्व वैसे तो वर्ष में तीन बार मनाया जाता है। चैत्र मास में पहले दिन बोया जाता है व नवमी को काटा जाता है। श्रावण में सावन लगने से नौ दिन पहले आषाढ में बोया जाता है और दस दिन बाद श्रावण के पहले दिन काटा जाता है। इसी प्रकार अश्विन मास में नवरात्र के पहले दिन बोया जाता है और दशहरे के दिन काटा जाता है। लेकिन उत्तराखंड में हरेले का यह पर्व श्रावण माह में मनाया जाता है। श्रावण लगने से नौ दिन पहले आषाढ़ माह में ही हरेला बोने की परम्परा है। इसमें 5 या 7 प्रकार के अनाज को बोया जाता है। जिसमें गेहूं, जौ, धान, गहत (कुलथ), भट्ट (काला सोयाबीन), उड़द, सरसों आदि होते हैं। जिस पात्र में इसे बोया जाता है। उसे नौ दिन तक लगातार प्रातःकाल पानी छिड़कते हैं और इसे सूर्य से बचाकर रखा जाता है और दसवें दिन तक इनकी लम्बाई 4 से 6 इंच तक की हो जाती है। इन्हें ही हरेला कहा जाता है और दसवें दिन इसे काटा जाता हैपरिवार का मुख्यिा या कुल का पुरोहित इसे काटकर बहुत आदर से परिवार के सदस्यों के शीश (सिर) पर रखता है और परिवार में अपने से छोटों के सिर पर रखते हुए आशीर्वाद देते हुए कहते हैं। "जी रये, जागि रये, तिष्टिये, पनपिय...