Videsh niti se aap kya samajhte hain

  1. विदेश नीति का अर्थ, भारत विदेश नीति निर्धारक तत्व, सिद्धांत/आर्दश
  2. शिक्षा का अर्थ, परिभाषा, प्रकृति, स्वरूप
  3. भारतीय संविधान के अनुच्छेद, अनुसूचियां, भाग और विशेषताएं
  4. भारतीय संस्कृति की विशेषताएँ
  5. धर्म सुधार आंदोलन क्या हैं और उसके कारण
  6. उत्पादन किसे कहते है


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विदेश नीति का अर्थ, भारत विदेश नीति निर्धारक तत्व, सिद्धांत/आर्दश

bhartiya videsh niti ke nirdharak tatva siddhant;भू-भाग की दृष्टि से भारत विश्व में सात नम्बर और जनसंख्या की दृष्टि से दूसरे स्थान पर आता हैं। इसलिए भारत की विदेश नीति विश्व की राजनीति पर गहरा प्रभाव पड़ता हैं। स्वतंत्रता से पूर्व भारत की कोई विदेश नीति नही थी, क्योंकि भारत ब्रिटिश सरकार के अधीन था। भारत अब एक स्वतंत्र और प्रजातांत्रिक राष्ट्र हैं। 2 सितम्बर 1946 को पंडित जवाहरलाल नेहरू ने अपने भाषण मे भारत की विदेश नीति के लक्ष्यों को स्पष्ट करते हुए कहा कि "हम संसार के अन्य राष्टों से निकट और प्रत्यक्ष संबंध स्थापित करने तथा सहयोग और शांति कायम रखने के लिए बड़े उत्सुक हैं।" आज हम विदेश नीति क्या है, विदेश नीति का अर्थ, भारत की विदेश नीति के निर्धारक तत्व और भारतीय विदेश नीति के सिद्धांत या आर्दश जानेंगे। विदेश नीति का अर्थ (videsh niti kise kahte hai) विदेश नीति वह नीति या दृष्टिकोण है, जिसके द्वारा कोई राष्ट्र विश्व के अन्य राष्टों के साथ व्यवहार करता है जिसमें संबंधों का निर्माण या उनसे दूरी अथवा अनुकूलता या प्रतिकूलता बनायी जाती हैं। यदि देखा जाये तो विदेश नीति वह कला है जो अंतर्राष्ट्रीय राजनीति का शुद्ध आधार प्रस्तुत करती हैं। एक राष्ट्र के क्या-क्या राष्ट्रीय हित है वह किस प्रकार उन्हें सुरक्षित रखना व विकसित करना चाहता हैं। जाॅर्ज मोडलेस्की के अनुसार, "विदेश नीति एक राज्य की गतिविधियों का सुव्यवस्थित व विकासशील रूप है, जिसके द्वारा एक राज्य अन्य राज्यों के व्यवहार को अपने अनुकूल बनाने अथवा यदि ऐसा न हो पाये तो अन्तर्राष्ट्रीय वातावरण के अनुसार बदलने का प्रयास करता है।" यदि माॅडलेस्की की परिभाषा की विवेचना की जाये तो निम्नांकित तथ्य सामने आते है-- 1. अपनी इच्छानुसा...

शिक्षा का अर्थ, परिभाषा, प्रकृति, स्वरूप

शिक्षा का अर्थ (shiksha kya hai) shiksha ka arth paribhasha prakriti svarup;शिक्षा का तात्पर्य जीवन में चलने वाली ऐसी प्रक्रिया-प्रयोग से है जो मनुष्य को अनुभव द्वारा प्राप्त होते है एवं उसके पथ-प्रदर्शक बनते है। यह प्रक्रिया सीखने के रूप मे बचपन से चलती है एवं जीवनपर्यन्त चलती रहती है। जिसके कारण मनुष्य के अनुभव भण्डार में लगातार वृद्धि होती रहती है। शिक्षा शब्द संस्कृत के 'शिक्ष्' धातु से बना है, जिसका अर्थ 'सीखना' अथवा 'सिखाना' होता है। शिक्षा का अर्थ आन्तरिक शक्तियों अथवा गुणों का विकास करना है। शिक्षा का शाब्दिक अर्थ शिक्षा का अंग्रजी पर्यायवाची शब्द 'Education' है। 'Education' शब्द की उत्पत्ति लैटिन भाषा के 'Educatum' शब्द से मानी जाती है। 'Educatum' शब्द दो शब्दों-- 'e' तथा 'duco' से मिलकर बना है। 'e' का अर्थ-- 'out of' और 'duco' का अर्थ है-- 'to lead forth' or 'to extract out'। अतः इस प्रकार से Education' का शाब्दिक अर्थ है-- आन्तरिक को बाहर लाना। प्राचीन भारत में शिक्षा का अर्थ प्राचीन भारत में शिक्षा को विद्या के नाम से जाना जाता था। विद्या शब्द की व्यत्पत्ति 'विद्' धातु से हुई है, जिसका अर्थ है 'जानना'। इस तरह विद्या शब्द का अर्थ ज्ञान से है। हमारे प्राचीन ग्रंथों मे ज्ञान को मानव का तृतीय नेत्र कहा गया है जो अज्ञान दूर कर सत्य के दर्शन कराने में मददगार होता है। विद्या हमें विनम्र बनना सिखाती है 'विद्या ददाति विनयम्'। विद्या हमें जीवन से मुक्त कराती है। 'सा विद्या या विमुक्तये'। शिक्षा का संकुचित अर्थ संकुचित अर्थ में शिक्षा बालक को योजनाबद्ध कार्यक्रम के अंतर्गत प्रदान किये जाने वाली एक ऐसी योजना है जिसमें निर्धारित उद्देश्यों की प्राप्ति के प्रयत्न किये जाते ह...

भारतीय संविधान के अनुच्छेद, अनुसूचियां, भाग और विशेषताएं

भारतीय संविधान के 22 भाग, 465 अनुच्छेद एवं 12 अनुसूचियाँ: भारत, संसदीय प्रणाली की सरकार वाला एक प्रभुसत्ता सम्पन्न, समाजवादी धर्मनिरपेक्ष, लोकतंत्रात्मक गणराज्य है। यह गणराज्य भारत के संविधान के अनुसार शासित है। संविधान बनाने वाली कमिटी के अध्यक्ष डॉ. बाबासाहेब अम्बेडकर को बनाया गया था। भारतीय संविधानका निर्माण डॉ. बाबासाहेब अम्बेडकर ने 2 वर्ष, 11 महीने और 18 दिन में किया। भारत का संविधान 26 नवम्बर 1949 को पारित हुआ तथा 26 जनवरी 1950 से प्रभावी हुआ। 26 जनवरी का दिन भारत में गणतन्त्र दिवस के रूप में मनाया जाता है। 26 जनवरी का इतिहास दिसम्बर 1929 में, भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस का वार्षिक अधिवेशन तत्कालीन पंजाब प्रांत की राजधानी लाहौर में हुआ और इसकी अध्यक्षता पंडित जवाहरलाल नेहरू ने की थी। इस अधिवेशन में पंडित जवाहरलाल नेहरू ने "पूर्ण स्वराज्य" के प्रस्ताव को पेश करके संपूर्ण भारत में क्रान्ति ला दी थी, उन्होने 26 जनवरी को स्वतंत्रता दिवस के रूप में मनाने का निश्चय किया जिसके बाद 26 जनवरी 1930 को पूरे देश में अलग-अलग जगाहों पर सभाओं का आयोजन किया गया, जिनमें सभी लोगों ने सामूहिक रूप से स्वतंत्रता प्राप्त करने की शपथ ली और झंडा फहराया गया परंतु भारत 26 जनवरी के बजाए 15 अगस्त 1947 को स्वतंत्र हुआ था जिसके बाद से इस दिन के इतिहास को जिंदा रखने के लिए भारतीय संविधान को 26 जनवरी 1950 में लागू किया गया था। भारतीय संविधान की विशेषताएं: • भारत का संविधान विश्व के किसी भी गणतांत्रिक देश का सबसे लंबा लिखित संविधान है। • भारतीय संविधान को बनने में लगभग 2 साल 11 महीने और 18 दिन का समय लगा था। • भारतीय संविधान 26 नवम्बर 1949 को बनकर तैयार हो चुका था लेकिन इसे 26 जनवरी 1950 को लागू किया ग...

भारतीय संस्कृति की विशेषताएँ

विषय सूची • 1 संस्कृति की विशेषताएँ • 2 टीका टिप्पणी और संदर्भ • 3 बाहरी कड़ियाँ • 4 संबंधित लेख भारतीय संस्कृति की प्रमुख विशेषताएँ निम्नलिखित हैं- प्राचीनता - निरन्तरता - भारतीय संस्कृति की एक महत्त्वपूर्ण विशेषता यह है कि हज़ारों वर्षों के बाद भी यह संस्कृति आज भी अपने मूल स्वरूप में जीवित है, जबकि लचीलापन एवं सहिष्णुता - भारतीय संस्कृति की सहिष्णु प्रकृति ने उसे दीर्घ आयु और स्थायित्व प्रदान किया है। संसार की किसी भी संस्कृति में शायद ही इतनी सहनशीलता हो, जितनी भारतीय संस्कृति में पाई जाती है। भारतीय ग्रहणशीलता - भारतीय संस्कृति की सहिष्णुता एवं उदारता के कारण उसमें एक ग्रहणशीलता प्रवृत्ति को विकसित होने का अवसर मिला। वस्तुत: जिस संस्कृति में लोकतन्त्र एवं स्थायित्व के आधार व्यापक हों, उस संस्कृति में ग्रहणशीलता की प्रवृत्ति स्वाभाविक रूप से ही उत्पन्न हो जाती है। हमारी संस्कृति में यहाँ के मूल निवासियों ने समन्वय की प्रक्रिया के साथ ही बाहर से आने वाले भारत में इस्लामी संस्कृति का आगमन भी अरबों, तुर्कों और आध्यात्मिकता एवं भौतिकता का समन्वय - भारतीय संस्कृति में आश्रम - व्यवस्था के साथ धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष जैसे चार पुरुषार्थों का विशिष्ट स्थान रहा है। वस्तुत: इन पुरुषार्थों ने ही भारतीय संस्कृति में आध्यात्मिकता के साथ भौतिकता का एक अदभुत समन्वय कर दिया। हमारी संस्कृति में जीवन के ऐहिक और पारलौकिक दोनों पहलुओं से धर्म को सम्बद्ध किया गया था। धर्म उन सिद्धान्तों, तत्त्वों और जीवन प्रणाली को कहते हैं, जिससे मानव जाति परमात्मा प्रदत्त शक्तियों के विकास से अपना लौकिक जीवन सुखी बना सके तथा मृत्यु के पश्चात् जीवात्मा शान्ति का अनुभव कर सके। शरीर नश्वर है, आत्मा अमर है, ...

धर्म सुधार आंदोलन क्या हैं और उसके कारण

Table of Contents • • • • • • • • • • • • • • • 16वीं सदी के प्रारम्‍भ में यूरोप में एक ऐसा आन्‍दोलन प्रारम्‍भ हुआ जिससे धार्मिक क्षेत्र में रोमन चर्च की सैकडों वर्षो से चली आ रही सार्वभौम सत्‍ता छिन्‍न-छिन्‍न हो गई। ईसाई धर्म की एकता भंग हो गई एवं वह कई सम्प्रदायों में विभाजित हो गया। इस व्‍यापक एवं प्रभावपूर्ण आन्‍दोलन को धर्म सुधार आन्‍दोलन (Dharm sudhar Andolan) कहा जाता था। इतिहासकार ‘गीजो’ ने लिखा है कि “इस आन्‍दोलन ने मानसिक एवं आध्‍यात्मिक क्षेत्रों मे प्रतिष्ठित‍ निरंकुशता का अन्‍त कर मानव मस्तिष्‍क की स्‍वतंत्रता स्‍थापित की”। एच.ए.एल.फिशर ने लिखा है- “साधारण: धर्म सुधार की संज्ञा 16वीं शताब्‍दी की धार्मिक क्रान्ति को दी जाती है, जिसने यूरोप ने अनेक राष्‍ट्रों को रोम के चर्च से अलग कर दिया”। इस प्रकार यह साधारण सुधार आन्‍दोलन होकर क्रान्ति कही जा सकती है। आधुनिक युग के प्रारम्‍भ में धर्म सुधार आन्‍दोलन एक बड़ी महत्‍वपूर्ण घटना मानी जाती है। 1517 से 1648 ई. तक का काल वस्‍तुत: धर्म सुधार का युग था। इस युग का प्राय: सभी घटनाएँ धर्म सुधार आन्‍दोलन द्वारा किसी न किसी रूप मे प्रभावित हुई। धर्म सुधार आन्‍दोलन के कारण धर्म सुधार आन्‍दोलन के कारणों का निम्‍नलिखित शीर्षकों के अन्‍तर्गत अध्‍ययन किया जा सकता है- (i) धार्मिक कारण • पोप के अधिकार- मध्‍य युग चर्च की पराकाष्‍ठा का युग कहा जाता है। पोप का अपना निजी न्‍यायालय होता था और उसके कानून भी उसी के बनायें हुए होते थे। उसकी शक्तियाँ असीम थी। अपनी इन शक्तियों के आधार पर वह प्रत्‍येक कार्य कर सकता था। दण्‍ड देने के क्ष्‍ोत्र में उसे मृत्‍यु दण्‍ड तक देने का अधिकार था। पोप ने अब अपने अधिकारों का अनुचित उपयोग प्रारम्‍भ कर दिया...

उत्पादन किसे कहते है

अर्थशास्त्र में उत्पादन औद्योगिक प्रतिष्ठानों द्वारा वस्तुओं, सामानों या सेवाओं को निर्मित करने की प्रक्रिया को कहते हैं। उत्पादन का उद्देश्य ऐसी वस्तुएँ और सेवाएँ बनाना है जिनकी मनुष्यों को बेहतर जीवन यापन के लिए आवश्यकता होती है। उत्पादन भूमि, पूँजी और श्रम को संयोजित करके किया जाता है इसलिए ये उत्पादन के कारक कहलाते हैं।

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