धर्म की परिभाषा pdf

  1. धर्म दर्शन की परिभाषा
  2. # धर्म की परिभाषा एवं विशेषताएं
  3. Dharm Kya Hai
  4. Dharma ki Paribhasha I धर्म की परिभाषा
  5. वट सावित्री व्रत कथा
  6. [PDF] शिव तंत्र रहस्य
  7. Dharm Kya Hai : धर्म का अर्थ एवं महत्व बताइए
  8. Dharma ki Paribhasha I धर्म की परिभाषा
  9. # धर्म की परिभाषा एवं विशेषताएं
  10. वट सावित्री व्रत कथा


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धर्म दर्शन की परिभाषा

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# धर्म की परिभाषा एवं विशेषताएं

Table of Contents • • • • • • • • धर्म की परिभाषा – धर्म मानव की एक सार्वभौमिक प्रवृत्ति है। जिस प्रकार बुद्धि के आधार पर मनुष्य अन्य प्राणियों से अलग है, उसी प्रकार धर्म के आधार पर भी मनुष्य को अन्य प्राणियों से पृथक् किया जा सकता है। साधारण रूप से धर्म का तात्पर्य मानव समाज से परे अलौकिक तथा सर्वोच्च शक्ति पर विश्वास है, जिसमें पवित्रता, भक्ति, श्रद्धा, भय आदि तत्व सम्मिलित हैं। इन्हीं तत्वों के आधार पर विभिन्न विद्वानों ने धर्म की जो परिभाषाएँ दी हैं, उनमें से निम्नलिखित प्रमुख हैं- (1) फ्रेजर (Frazer) के अनुसार, “धर्म से मेरा तात्पर्य मनुष्य से श्रेष्ठ उन शक्तियों की शक्ति अथवा आराधना करना है, जिनके बारे में व्यक्तियों का विश्वास हो कि प्रकृति और मानव-जीवन को नियन्त्रित करती है तथा उनको निर्देश देती है।” (2) टेलर (Taylor) के शब्दों में, “धर्म का अर्थ किसी आध्यात्मिक शक्ति में विश्वास करने से है।” (3) दुर्खीम (Durkheim) के कथनानुसार, “धर्म पवित्र वस्तुओं से सम्बन्धित विश्वासों और आचरणों की समग्रता है जो इन पर विश्वास करने वालों को एक नैतिक समुदायों के रूप में संयुक्त करती है।” (4) डॉ. राधाकृष्णन् (Dr. Radhakrishanan) के मतानुसार, “धर्म की अवधारणा के अन्तर्गत हिन्दू उन स्वरूपों और प्रतिक्रियाओं को लाते हैं जो मानव-जीवन का निर्माण करती है और उसको धारण करती है।” (5) पाल टिलिक (Pal Tillich) के अनुसार, “धर्म वह है जो अन्ततः हमसे सम्बन्धित है।” इस प्रकार धर्म को सामाजिक प्राणी के उन व्यवहारों तथा क्रियाओं के रूप में परिभाषित किया जा सकता है, जिनका सम्बन्ध अलौकिक शक्ति पर सत्ता से होता है। धर्म की विशेषताएँ – विभिन्न विद्वानों ने धर्म की जो परिभाषाएँ दी हैं, उपर्युक्त परिभाषाओ...

Dharm Kya Hai

धर्म का अर्थ प्राय: “धारण करने योग्य धारणा से” लगाया जाता है। तभी कहा जाता है कि धारयति इति धर्म:। धर्म ही एक साधारण व्यक्ति को इंसान बनाता है। धर्म के विषय में कहा गया है कि….. यतो Sअभ्युदयनि: श्रेयससिद्धि: स धर्म:। तात्पर्य यह है कि धर्म जीवन की वह अनुशासित प्रक्रिया है, जिसमें मनुष्य को लौकिक प्रगति और आध्यात्मिक ज्ञान दोनों की ही प्राप्ति होती है। प्राय: कहा जाता है कि समाज में मौजूद हिंदू, मुस्लिम, सिख, ईसाई और बौद्ध आदि धर्म है। जबकि वास्तव में यह धर्म ना होकर एक संप्रदाय मात्र है। धर्म की अवधारणा इससे काफी अलग होती है। जिसे हम ऐसे समझ सकते हैं कि धर्म का अर्थ किसी सम्प्रदाय विशेष के लिए युद्ध करना नही होता है, अपितु धर्म न्याय और सत्य को बचाने के लिए प्रतिबद्ध है। इस प्रकार, सम्पूर्ण संसार में जन्मे किसी भी व्यक्ति के जीवन में धर्म, अर्थ, काम, क्रोध और मोक्ष का मुख्य स्थान होता है। जिनमें से आज हम धर्म के बारे में जानेंगे। धर्म का अर्थ धर्म संस्कृत भाषा का शब्द है। जो धृ धातु से निर्मित हुआ है। जोकि इस धरती पर मौजूद समस्त प्राणियों को खुद में समेटे हुए है। यानि धर्म ही सम्पूर्ण विश्व के संतुलन को व्यवस्थित किए हुए है। मूल रूप से, अहिंसा, सदाचरण, सद्गुण, न्याय, सत्य, तप, स्वाध्याय, क्षमा, संतोष, शौच, अपरिग्रह, ब्रह्मचर्य आदि नियमों को अपने जीवन में उतारना ही धर्म को धारण करने के समान है। जिसकी परिकल्पना मनु ने भी की है- धृति: क्षमा दमोSअस्तेयं शौचमिन्द्रियनिग्रह:। धीर्विद्या सत्यमक्रोधो, दशकं धर्मलक्षणम।। तात्पर्य यह है कि धैर्य, क्षमा, दम, अस्तेय, शौच, इंद्रियां, बुद्धिमता, विद्या, सत्य, क्रोध आदि धर्म के दस लक्षण हैं। स्वयं राष्ट्रपिता महात्मा गांधी ने धर्म को उल्ल...

Dharma ki Paribhasha I धर्म की परिभाषा

धर्म की परिभाषा सामाजिक विज्ञान में धर्म वो है जिसके माध्यम से मनुष्य के विचार और उसकी संस्कृति तय होती है। धर्म एक ऐसा विषय है जिसके परिप्रेक्ष्य में ही मनुष्य सारा जीवन व्यतीत करता है। जन्म से लेकर मृत्यु तक धर्म का ही असर दिखता है। दुनिया भर में अलग-अलग संस्कृति के हिसाब से अलग अलग धर्म स्थापित हुए हैं। मोटे तौर पर धर्म का सम्बन्ध मनुष्य की आस्था से है जिसमें वो विशेष प्रकार की पूजा और संस्कार का निर्वहन करता है। प्राय: धर्म का अर्थ होता है धारण करना। हिन्दू समाज में धर्म की मान्यता इस प्रकार है “ धारणात धर्ममाहुः” अर्थात् धारण करने के कारण ही किसी वस्तु को धर्म कहा जाता है। बोसांके ने धर्म की व्याख्या करते हुए कहा है कि ” जहाँ धर्मपरायणता , अनुशक्ति, एवं भक्ति मिलती है , वही धर्म का प्राथमिक रूप प्राप्त हो जाता है।” धर्म की परिभाषा मजूमदार और मदन के मुताबिक “धर्म किसी भय की वस्तु अथवा शक्ति का मानवीय परिणाम है, जो पारलौकिक है इन्द्रियों से परे है। यह व्यवहार की अभिव्यक्ति तथा अनुकूलन का रूप है, जो लोगों को अलौकिक शक्ति की धारणा से प्रभावित करता है।” डॉ. राधाकृष्णनके मुताबिक “धर्म की अवधारणा के अंतर्गत हिन्दू उन स्वरूपों और प्रतिक्रियाओं को लाते हैं जो मानव-जीवन का निर्माण करती हैं और उसको धारण करती हैं।” गिलिन के मुताबिक ” धर्म के समाजशास्त्री क्षेत्र के अंतर्गत एक समूह में अलौकिक से संबंधित उद्देश्य पूर्ण विश्वास तथा इन विश्वासों से संबंधित बाहरी व्यवहार, भौतिक वस्तुएँ और प्रतीक आते हैं।” फ्रेजरके मुताबिक “धर्म से मेरा तात्पर्य मनुष्य से श्रेष्ठ उन शक्तियों की संतुष्टि अथवा आराधना करना है जिनके बारे में व्यक्तियों का विश्वास हो कि वे प्रकृति और मानव-जीवन को नियंत्रित ...

वट सावित्री व्रत कथा

वट सावित्री व्रत कथा | Vat Savitri Vrat Katha PDF • Download | वट सावित्री कथा PDF हिंदू धर्म में विभिन्न प्रकार के व्रत त्योहार मनाए जाते हैं जो कि वैज्ञानिक एवं रहस्यों से भरे हुए हैं। वास्तव में हिंदू धर्म अपने आप में रहस्य पूर्ण है। प्राचीन सनातन धर्म के अनुसार कुछ ऐसे व्रत है जो इतिहास में अमरत्व को प्राप्त हुए हैं। इन्हीं व्रत में से एक व्रत है वट सावित्री व्रत । जी हां, आज के इस आर्टिकल में हम आपको वट सावित्री व्रत से जुड़ी महत्वपूर्ण जानकारी और कुछ ऐसे रहस्य बताने जा रहे हैं जो आज तक आपने नहीं सुने होंगे। इसके साथ ही Vat Savitri Vrat Katha PDF भी आपको प्रदान कर रहे हैं। यदि आप भी वट सावित्री व्रत कथा से जुड़ी महत्वपूर्ण जानकारी जानना चाहते हैं एवं वट सावित्री कथा PDF डाउनलोड करना चाहते हैं तो इस आर्टिकल को अंत तक अवश्य पढ़ते रहें। वट सावित्री एक ऐसा महान व्रत है जिसके करने मात्र से मृत्यु तक को जीत लिया जा सकता है। इस कहानी की शुरुआत होती है सावित्री और सत्यवान की उस घटना से, जब सावित्री ने अपने पातिव्रत धर्म से अपने पति के प्राणों को यमराज से भी छुड़ा लिया था। वट सावित्री व्रत इतना महान है कि इस व्रत के सामने साक्षात मृत्यु के देवता यमराज भी झुक जाते हैं। आइए जानते हैं वट सावित्री व्रत से जुड़ी कुछ महत्वपूर्ण रहस्यमई जानकारी एवं Vat Savitri Vrat Katha PDF व वट सावित्री पूजा विधि Vat Savitri Vrat Katha PDF वट सावित्री व्रत कथा PDF FIle Book/ PDF Name - वट सावित्री व्रत कथा / Vat Savitri Vrat Katha Category - धार्मिक व्रत कथा File type - PDF Format File size - 717 KB वट सावित्री व्रत क्या है महत्व / Vat Savitri Vrat हिंदू सनातन धर्म में वट सावित्री व्रत एक विशेष व्र...

[PDF] शिव तंत्र रहस्य

शिव तंत्र पुस्तक दर्शन दर्शन का तात्पर्य है सत् असत् का विवेक करके परम तत्व को जानना। प्रत्येक व्यक्ति दर्शन द्वारा जीवन के परम पुरुषार्थ मोक्ष को प्राप्त कर सकता है। दर्शन को मूल तत्व को जानने का प्रयास कहा जा सकता है। विकल्प रहित ज्ञान दर्शन कहा गया है। मनुष्य के हृदय में स्वयं के विषय में तथा संसार के कर्ता के विषय में जो जिज्ञासाएँ उठी तथा मृत्यु के बाद क्या आत्मा का अस्तित्व रहेगा? इस प्रकार के प्रश्नों से ही दर्शन का द्वार खुलता है। मैं कौन हूँ? कहाँ से आया हूँ? कहाँ जाऊँगा? ये प्रश्न मनुष्य को दर्शन के गंभीर चिन्तन की और उन्मुख करते हैं। हमारे ऋषि मुनि बाह्य जगत् से उदासीन होकर जनकल्याण हेतु इन प्रश्नों का उत्तर योग एवम् चिन्तन द्वारा खोजते थे तभी वे साधना द्वारा सत्य का साक्षात्कार करने वाले मुक्त पुरुष बन सके थे। वेदों में भी इसी जिज्ञासा को इस प्रकार कहा गया है नासदासीनो सदासीत् तदानींनासीद्रजोनोव्योमा परो यत् । किमावरीव कुह कस्य शर्मन्नम्भः किमासीद् गहनं गभीरम् ।। ये जिज्ञासाएँ ही आज तक दर्शनशास्त्र की मूल समस्याएँ बनी हुई हैं। कोई दर्शन-सम्प्रदाय ऐसा नहीं है जो इन प्रश्नों का अन्तिम उत्तर देता हो। जो इस सत्य का अनुभव कर लेता है, वह संसार से विरक्त हो जाता है एवं सांसारिक मनुष्य उस परम सत्य को दूसरे साधकों से सुनकर उस सत्य का अनुमान कर सकते हैं किन्तु स्वयं अनुभव तभी कर सकते हैं, जब स्वयं उसी स्थिति को प्राप्त कर लें। परम तत्त्व अपने अनुभव से पहले ‘नेति नेति’ के रूप में ही जाना जाता है। कोई इसे ब्रह्म कहता है, कोई शिव, तो कोई शब्दब्रह्म एक ही लक्ष्य की ओर उठने वाली ये अलग-अलग मतवादों की दृष्टि है, इनका लक्ष्य एक ही है। भारतीय संस्कृति में धर्म और दर्शन अलग नहीं ...

Dharm Kya Hai : धर्म का अर्थ एवं महत्व बताइए

नमस्कार बंधुओं आज हमने इस लेख में धर्म क्या है, धर्म का उद्देश्य क्या है, और धर्म के अन्य पहलुओं पर चर्चा की है। लोगों के बीच धर्म की व्याख्या को लेकर भ्रांति है, समाज में विभिन्न प्रकार के लोग धर्म की विभिन्न परिभाषाएं देते है, लेकिन वास्तव में बहुत कम व्यक्ति ऐसे है जिन्हें धर्म का सही अर्थ पता है। सरकारी नौकरशाही हो या राजनेता हो धर्म की मूल परिभाषा एवं इसका उद्देश्य नगण्य लोगों को ही पता होता है। बिना शास्त्र अध्ययन के धर्म की व्याख्या नहीं की जा सकती है। शास्त्र कहता है जहाँ धर्म है वहीं विजय हैः धर्म की जड़ें प्राचीन भारत की देन है, भारतीय शास्त्रों का मूल सिद्धांत धर्म पर आधारित है, धार्मिक शिक्षा प्रचार व इसकी रक्षा का उत्तरदायित्व ऋषि मुनियों, साधु संतों, विद्वानों, राजाओं एवं समाज के अन्य विशिष्ट लोगों पर होता है। धर्म समाज एवं राष्ट्र को सही दिशा देने का कार्य करता है, यह लोगों को सत्य एवं असत्य के बीच भेद करना सिखाता है, ताकि बच्चे, युवा एवं बूढ़े अपने मार्ग से कभी न भटके। धर्म क्या है धर्म स्वयं सत्य का नाम है धर्म अध्यात्म विज्ञान से निकला हुआ शब्द है, जिसका अर्थ होता है कि जगत में जो कोई वस्तु, मार्ग, कर्तव्य एवं अन्य उत्तरदायित्व धारण करने के योग्य है वही धर्म है; संसार में धारण करने योग्य मात्र सत्य का मार्ग है, इसलिए स्वयं सत्य ही धर्म है। सत्य का अर्थ होता है जो सिद्धान्त शाश्वत है, सदा से है और सदैव रहेगा; जिसे मिटाया न जा सके। सत्य के विपरीत जो कुछ है वह अधर्म की श्रेणी में आ जाता है। विद्वान व्यक्ति धर्म की व्याख्या परिस्थितियों के अनुसार विभिन्न प्रकार से करते है, परंतु उनके मूल उद्देश्य में केवल सत्य मार्ग का पालन करना होता है, धर्म सही पथ पर चलते ह...

Dharma ki Paribhasha I धर्म की परिभाषा

धर्म की परिभाषा सामाजिक विज्ञान में धर्म वो है जिसके माध्यम से मनुष्य के विचार और उसकी संस्कृति तय होती है। धर्म एक ऐसा विषय है जिसके परिप्रेक्ष्य में ही मनुष्य सारा जीवन व्यतीत करता है। जन्म से लेकर मृत्यु तक धर्म का ही असर दिखता है। दुनिया भर में अलग-अलग संस्कृति के हिसाब से अलग अलग धर्म स्थापित हुए हैं। मोटे तौर पर धर्म का सम्बन्ध मनुष्य की आस्था से है जिसमें वो विशेष प्रकार की पूजा और संस्कार का निर्वहन करता है। प्राय: धर्म का अर्थ होता है धारण करना। हिन्दू समाज में धर्म की मान्यता इस प्रकार है “ धारणात धर्ममाहुः” अर्थात् धारण करने के कारण ही किसी वस्तु को धर्म कहा जाता है। बोसांके ने धर्म की व्याख्या करते हुए कहा है कि ” जहाँ धर्मपरायणता , अनुशक्ति, एवं भक्ति मिलती है , वही धर्म का प्राथमिक रूप प्राप्त हो जाता है।” धर्म की परिभाषा मजूमदार और मदन के मुताबिक “धर्म किसी भय की वस्तु अथवा शक्ति का मानवीय परिणाम है, जो पारलौकिक है इन्द्रियों से परे है। यह व्यवहार की अभिव्यक्ति तथा अनुकूलन का रूप है, जो लोगों को अलौकिक शक्ति की धारणा से प्रभावित करता है।” डॉ. राधाकृष्णनके मुताबिक “धर्म की अवधारणा के अंतर्गत हिन्दू उन स्वरूपों और प्रतिक्रियाओं को लाते हैं जो मानव-जीवन का निर्माण करती हैं और उसको धारण करती हैं।” गिलिन के मुताबिक ” धर्म के समाजशास्त्री क्षेत्र के अंतर्गत एक समूह में अलौकिक से संबंधित उद्देश्य पूर्ण विश्वास तथा इन विश्वासों से संबंधित बाहरी व्यवहार, भौतिक वस्तुएँ और प्रतीक आते हैं।” फ्रेजरके मुताबिक “धर्म से मेरा तात्पर्य मनुष्य से श्रेष्ठ उन शक्तियों की संतुष्टि अथवा आराधना करना है जिनके बारे में व्यक्तियों का विश्वास हो कि वे प्रकृति और मानव-जीवन को नियंत्रित ...

# धर्म की परिभाषा एवं विशेषताएं

Table of Contents • • • • • • • • धर्म की परिभाषा – धर्म मानव की एक सार्वभौमिक प्रवृत्ति है। जिस प्रकार बुद्धि के आधार पर मनुष्य अन्य प्राणियों से अलग है, उसी प्रकार धर्म के आधार पर भी मनुष्य को अन्य प्राणियों से पृथक् किया जा सकता है। साधारण रूप से धर्म का तात्पर्य मानव समाज से परे अलौकिक तथा सर्वोच्च शक्ति पर विश्वास है, जिसमें पवित्रता, भक्ति, श्रद्धा, भय आदि तत्व सम्मिलित हैं। इन्हीं तत्वों के आधार पर विभिन्न विद्वानों ने धर्म की जो परिभाषाएँ दी हैं, उनमें से निम्नलिखित प्रमुख हैं- (1) फ्रेजर (Frazer) के अनुसार, “धर्म से मेरा तात्पर्य मनुष्य से श्रेष्ठ उन शक्तियों की शक्ति अथवा आराधना करना है, जिनके बारे में व्यक्तियों का विश्वास हो कि प्रकृति और मानव-जीवन को नियन्त्रित करती है तथा उनको निर्देश देती है।” (2) टेलर (Taylor) के शब्दों में, “धर्म का अर्थ किसी आध्यात्मिक शक्ति में विश्वास करने से है।” (3) दुर्खीम (Durkheim) के कथनानुसार, “धर्म पवित्र वस्तुओं से सम्बन्धित विश्वासों और आचरणों की समग्रता है जो इन पर विश्वास करने वालों को एक नैतिक समुदायों के रूप में संयुक्त करती है।” (4) डॉ. राधाकृष्णन् (Dr. Radhakrishanan) के मतानुसार, “धर्म की अवधारणा के अन्तर्गत हिन्दू उन स्वरूपों और प्रतिक्रियाओं को लाते हैं जो मानव-जीवन का निर्माण करती है और उसको धारण करती है।” (5) पाल टिलिक (Pal Tillich) के अनुसार, “धर्म वह है जो अन्ततः हमसे सम्बन्धित है।” इस प्रकार धर्म को सामाजिक प्राणी के उन व्यवहारों तथा क्रियाओं के रूप में परिभाषित किया जा सकता है, जिनका सम्बन्ध अलौकिक शक्ति पर सत्ता से होता है। धर्म की विशेषताएँ – विभिन्न विद्वानों ने धर्म की जो परिभाषाएँ दी हैं, उपर्युक्त परिभाषाओ...

वट सावित्री व्रत कथा

वट सावित्री व्रत कथा | Vat Savitri Vrat Katha PDF • Download | वट सावित्री कथा PDF हिंदू धर्म में विभिन्न प्रकार के व्रत त्योहार मनाए जाते हैं जो कि वैज्ञानिक एवं रहस्यों से भरे हुए हैं। वास्तव में हिंदू धर्म अपने आप में रहस्य पूर्ण है। प्राचीन सनातन धर्म के अनुसार कुछ ऐसे व्रत है जो इतिहास में अमरत्व को प्राप्त हुए हैं। इन्हीं व्रत में से एक व्रत है वट सावित्री व्रत । जी हां, आज के इस आर्टिकल में हम आपको वट सावित्री व्रत से जुड़ी महत्वपूर्ण जानकारी और कुछ ऐसे रहस्य बताने जा रहे हैं जो आज तक आपने नहीं सुने होंगे। इसके साथ ही Vat Savitri Vrat Katha PDF भी आपको प्रदान कर रहे हैं। यदि आप भी वट सावित्री व्रत कथा से जुड़ी महत्वपूर्ण जानकारी जानना चाहते हैं एवं वट सावित्री कथा PDF डाउनलोड करना चाहते हैं तो इस आर्टिकल को अंत तक अवश्य पढ़ते रहें। वट सावित्री एक ऐसा महान व्रत है जिसके करने मात्र से मृत्यु तक को जीत लिया जा सकता है। इस कहानी की शुरुआत होती है सावित्री और सत्यवान की उस घटना से, जब सावित्री ने अपने पातिव्रत धर्म से अपने पति के प्राणों को यमराज से भी छुड़ा लिया था। वट सावित्री व्रत इतना महान है कि इस व्रत के सामने साक्षात मृत्यु के देवता यमराज भी झुक जाते हैं। आइए जानते हैं वट सावित्री व्रत से जुड़ी कुछ महत्वपूर्ण रहस्यमई जानकारी एवं Vat Savitri Vrat Katha PDF व वट सावित्री पूजा विधि Vat Savitri Vrat Katha PDF वट सावित्री व्रत कथा PDF FIle Book/ PDF Name - वट सावित्री व्रत कथा / Vat Savitri Vrat Katha Category - धार्मिक व्रत कथा File type - PDF Format File size - 717 KB वट सावित्री व्रत क्या है महत्व / Vat Savitri Vrat हिंदू सनातन धर्म में वट सावित्री व्रत एक विशेष व्र...