निष्पत्ति

  1. Nishpatti, Niṣpatti: 16 definitions
  2. अभिनवगुप्त
  3. perfection in Sanskrit
  4. निष्पत्ति प्रत्यय प्रतिमान
  5. रस
  6. निष्पत्ति
  7. रस (काव्य शास्त्र)
  8. रस की परिभाषा, भेद, प्रकार और उदाहरण
  9. अध्ययन निष्पत्ती इयत्ता 3 री विषय मराठी , इंग्रजी, गणित Learning Outcome Std 3 rd
  10. साधारणीकरण


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Nishpatti, Niṣpatti: 16 definitions

[ Jyotisha glossary Niṣpatti (निष्पत्ति) refers to a “growth” (of crops), according to the bṛhaspati) take their names from the several Nakṣatras in which he reappears after his conjunction with the Sun; and these names are identical with the names of the lunar months. [...] In the Vaiśākha month of Jupiter, princes with their subjects will be virtuous, fearless and happy; men will engage in sacrificial rites and there will also be growth of crops [i.e., niṣpatti— niṣpattiḥ sarvasasyānām]”. context information Jyotisha (ज्योतिष, jyotiṣa or jyotish) refers to ‘astronomy’ or “Vedic astrology” and represents the fifth of the six Vedangas (additional sciences to be studied along with the Vedas). Jyotisha concerns itself with the study and prediction of the movements of celestial bodies, in order to calculate the auspicious time for rituals and ceremonies. [ Yoga glossary Brill: Śaivism and the Tantric Traditions (yoga) Niṣpatti (निष्पत्ति) or Niṣpanna refers to one of the four “states” or “stages” of yoga practice, according to the Amṛtasiddhi, a 12th-century text belonging to the Haṭhayoga textual tradition.—The four avasthās, “states” or “stages” of yoga practice ( ārambha, ghaṭa, paricaya, niṣpanna/ niṣpatti) introduced in the Amṛtasiddhi ( vivekas 19–33), are taught in many Sanskrit Haṭhayoga texts; they are also mentioned in the old Hindi Gorakhbāṇī ( śabds 136–139). ORA: Amanaska (king of all yogas): A Critical Edition and Annotated Translation by Jason Birch Niṣpatti (न...

अभिनवगुप्त

अभिनवगुप्त जन्म शंकरा c. 950 AD मृत्यु c. 1016 AD धार्मिक मान्यता अभिनवगुप्त (975-1025) दार्शनिक, रहस्यवादी एवं अभिनवगुप्त का व्यक्तित्व बड़ा ही रहस्यमय है। अभिनवगुप्त के आविर्भावकाल का पता उन्हीं के ग्रंथों के समयनिर्देश से भली भाँति लगता है। इनके आरंभिक ग्रंथों में क्रमस्तोत्र की रचना 66 लौकिक संवत् (991 ई.) में और भैरवस्तोत्र की 68 संवत (993 ई.) में हुई। इनकी ईश्वर-प्रत्यभिज्ञा-विमर्षिणी का रचनाकाल 90 लौकिक संवत् (1015 ई.) है। फलत: इनकी साहित्यिक रचनाओं का काल 990 ई. से लेकर 1020 ई. तक माना जा सकता है। इस प्रकार इनका समय दशम शती का उत्तरार्ध तथा एकादश शती का आरंभिक काल स्वीकार किया जा सकता है। अनुक्रम • 1 जीवनवृत्त • 2 ग्रंथरचना • 3 इन्हें भी देखें • 4 सन्दर्भ • 5 बाहरी कड़ियाँ जीवनवृत्त [ ] अभिनवगुप्त का जन्म भारत की ज्ञान-परंपरा में आचार्य अभिनवगुप्त एवं कश्मीर की स्थिति को एक ‘संगम-तीर्थ’ के रूपक से बताया जा सकता है। जैसे कश्मीर (शारदा देश) संपूर्ण भारत का ‘सर्वज्ञ पीठ’ है, वैसे ही आचार्य अभिनवगुप्त संपूर्ण भारतवर्ष की सभी ज्ञान-विधाओं एवं साधना की परंपराओं के सर्वोपरि समादृत आचार्य हैं। काश्मीर केवल शैवदर्शन की ही नहीं, अपितु बौद्ध, मीमांसक, नैयायिक, सिद्ध, तांत्रिक, सूफी आदि परंपराओं का भी संगम रहा है। आचार्य अभिनवगुप्त अद्वैत आगम एवं प्रत्यभिज्ञा-दर्शन के प्रतिनिधि आचार्य तो हैं ही, साथ ही उनमें एक से अधिक ज्ञान-विधाओं का भी समाहार है। भारतीय ज्ञान-दर्शन में यदि कहीं कोई ग्रंथि है, कोई पूर्व पक्ष और सिद्धांत पक्ष का निष्कर्षविहीन वाद चला आ रहा है और यदि किसी ऐसे विषय पर आचार्य अभिनवगुप्त ने अपना मत प्रस्तुत किया हो तो वह ‘वाद’ स्वीकार करने योग्य निर्णय को प्राप्त ...

perfection in Sanskrit

The quality or state of being perfect or complete, so that nothing requisite is wanting; entire development; consummate culture, skill, or moral excellence; the highest attainable state or degree of excellence; maturity; as, perfection in an art, in a science, or in a system; perfection in form or degree; fruits in perfection. [..]

निष्पत्ति प्रत्यय प्रतिमान

अनुक्रम (Contents) • • • निष्पत्ति प्रत्यय प्रतिमान (Concept Attainment Model) इस प्रतिमान का विकास सन् 1956 में जे०एस० ब्रुनर (J.S. Bruner), जे० गुड्रो (J. Goodrow) तथा जॉर्ज ऑस्टिन ने किया तथा इस प्रतिमान के उद्भव एवं विकास का कारण मानव में चिन्तन प्रक्रिया पर हुई विभिन्न आसुबेलक तथा रॉबिन्सन के अनुसार- “प्रत्यय किसी विशिष्ट क्षेत्र में उन घटनाओं की ओर संकेत करता है जिन्हें विशिष्टताओं के आधार पर समूहबद्ध किया जाता है। ये विशेषतायें एक समूह के सदस्यों को दूसरे से विभेदित करती हैं।” निष्पत्ति प्रत्यय प्रतिमान की व्याख्या इसके विभिन्न तत्वों के आधार पर निम्न प्रकार से की जा सकती है. (1) उद्देश्य (Focus) – इस प्रतिमान द्वारा प्रमुख रूप से छात्रों में आगमन तर्क का विकास किया जाता है। छात्र या शिक्षार्थी वातावरण के विभिन्न वस्तुओं, व्यक्तियों या घटनाओं के मध्य परस्पर सहसम्बन्ध तथा विभिन्नता ज्ञात करने का प्रयास करते हैं जिससे उनमें आगमन तर्क का समुचित विकास होता है। (2) संरचना (Syntax)- निष्पत्ति प्रत्यय प्रतिमान की संरचना निम्नलिखित चार सोपानों पर प्रमुख रूप से आधारित है – 1. सर्वप्रथम छात्रों के सम्मुख आँकड़ों को प्रस्तुत किया जाता है। ये आँकड़े चाहे किसी घटना से सम्बन्धित हों या किसी व्यक्ति से, छात्र इन आँकड़ों की सहायता से प्राप्त ज्ञान की इकाइयों को विभिन्न प्रत्ययों में परिसीमित करता है। इसके विकास में छात्र को पूर्ण पुनर्बलन प्रदान किया जाता है। 2. इस सोपान की शुरूआत प्रत्यय निष्पादन करने के लिए उपयुक्त नीतियों के विश्लेषण से होती है। कुछ छात्र जटिल से प्रारम्भ करके सरल प्रत्यय का या सामान्य से प्रारम्भ करके विशिष्ट प्रत्यय का निर्माण करते हैं। 3. तृतीय सोपान के अन्तर...

रस

Ras (रस)- रस क्या होते हैं? रस की परिभाषा रस : रस का शाब्दिक अर्थ है ‘आनन्द’। काव्य को पढ़ने या सुनने से जिस आनन्द की अनुभूति होती है, उसे रस कहा जाता है। काव्य में रस का वही स्थान है, जो शरीर में आत्मा का है। जिस प्रकार आत्मा के अभाव में प्राणी का अस्तित्व सम्भव नहीं है, उसी प्रकार रसहीन कथन को काव्य नहीं कहा जा सकता। इसीलिए रस को ‘काव्य की आत्मा’ या ‘प्राण तत्व’ माना जाता है। ‘रस’ शब्द की व्युत्पत्ति : ‘रस’ शब्द की व्युत्पत्ति संस्कृत की ‘रस्’ धातु में अच्’ प्रत्यय के योग से हुई है अर्थात् ‘रस् + अच् = रस’। जिसका शाब्दिक अर्थ होता है ‘आनंद देने वाली वस्तु से प्राप्त होने वाला सुख या स्वाद।’ कहने का तात्पर्य यह है कि किसी भी काव्य रचना को पढ़ने या सुनने से जिस आनंद की प्राप्ति होती है, उसे ही रस कहते हैं। रस की व्युत्पत्ति के संबंध में निम्न दो सूत्र भी प्रचलित हैं:- • “रस्यते आस्वाद्यते इति रसः।” अर्थात् जिसका आस्वादन किया जाता है या स्वाद लिया जाता है, उसे ही ‘रस’ कहते हैं। • “सरते इति रसः।” अर्थात् जो प्रवाहित होता है उसे रस कहते हैं। यहाँ ‘प्रवाहित होना’ अर्थ को प्रकट करने के लिए ‘सर’ शब्द का वर्ण-विपर्यय करके अर्थात् परस्पर स्थान परिवर्तन करके ‘रस’ शब्द की रचना हुई मानी जाती है। श्रव्य काव्य के पठन अथवा श्रवण एवं दृश्य काव्य के दर्शन तथा श्रवण में जो अलौकिक आनन्द प्राप्त होता है, वही काव्य में रस कहलाता है। रस से जिस भाव की अनुभूति होती है वह रस का स्थायी भाव होता है। पाठक या श्रोता के हृदय में स्थित स्थायीभाव ही विभावादि से संयुक्त होकर रस के रूप में परिणत हो जाता है। भरतमुनि द्वारा रस की परिभाषा- रस उत्पत्ति को सबसे पहले परिभाषित करने का श्रेय भरत मुनि को जाता है। ...

निष्पत्ति

चर्चित शब्द (विशेषण) जो किसी वस्तु, स्थान आदि के मध्य या बीच में स्थित हो। (संज्ञा) स्त्रियों का गहने, कपड़े आदि से अपने आपको सजाने की क्रिया। (संज्ञा) राजा जनक की पुत्री तथा राम की पत्नी। (संज्ञा) शिक्षा संबंधी योग्यता। (विशेषण) अच्छे चरित्रवाली। (विशेषण) धोखा देने के लिए किसी प्रकार की झूठी कार्रवाई करने वाला। (विशेषण) कहीं-कहीं पर होने वाला। (संज्ञा) सेना का प्रधान और सबसे बड़ा अधिकारी। (संज्ञा) वह रोग जिसमें भोजन नहीं पचता। (विशेषण) जो प्रशंसा के योग्य हो।

रस (काव्य शास्त्र)

श्रव्य काव्य के पठन अथवा श्रवण एवं दृश्य काव्य के दर्शन तथा श्रवण में जो अलौकिक आनन्द प्राप्त होता है, वही काव्य में रस कहलाता है। रस के जिस भाव से यह अनुभूति होती है कि वह रस है, स्थायी भाव होता है। काव्य-शास्त्रियों के अनुसार रसों की संख्या नौ है। #आधुनिक काव्य-शास्त्रियों के अनुसार रसों की संख्या ग्यारह है। रस अन्त:करण की वह शक्ति है, जिसके कारण इन्द्रियाँ अपना कार्य करती हैं, मन कल्पना करता है, स्वप्न की स्मृति रहती है। सब कुछ नष्ट हो जाय, व्यर्थ हो जाय पर जो भाव रूप तथा वस्तु रूप में बचा रहे, वही रस है। रस के रूप में जिसकी निष्पत्ति होती है, वह भाव ही है। जब रस बन जाता है, तो भाव नहीं रहता। केवल रस रहता है। उसकी भावता अपना रूपांतर कर लेती है। रस अपूर्व की उत्पत्ति है। नाट्य की प्रस्तुति में सब कुछ पहले से दिया रहता है, ज्ञात रहता है, सुना हुआ या देखा हुआ होता है। इसके बावजूद कुछ नया अनुभव मिलता है। वह अनुभव दूसरे अनुभवों को पीछे छोड़ देता है। अकेले एक शिखर पर पहुँचा देता है। रस का यह अपूर्व रूप अप्रमेय और अनिर्वचनीय है। अनुक्रम • 1 विभिन्न सन्दर्भों में रस का अर्थ • 2 रस के प्रकार • 3 पारिभाषिक शब्दावली • 3.1 स्थायी भाव • 3.2 विभाव • 3.2.1 आलंबन विभाव • 3.2.2 उद्दीपन विभाव • 3.3 अनुभाव • 3.4 संचारी या व्यभिचारी भाव • 4 परिचय • 5 रसों का परस्पर विरोध • 6 रस की आस्वादनीयता • 7 रसों का राजा कौन है? • 8 शृंगार रस • 8.1 संयोग शृंगार • 8.2 वियोग या विप्रलंभ शृंगार • 9 हास्य रस • 10 शान्त रस • 11 करुण रस • 12 रौद्र रस • 13 वीर रस • 14 अद्भुत रस • 15 वीभत्स रस • 16 भयानक रस • 17 भक्ति रस • 18 रसों का अन्तर्भाव • 19 सन्दर्भ • 20 इन्हें भी देखें • 21 बाहरी कड़ियाँ • 22 सन्दर्भ ...

रस की परिभाषा, भेद, प्रकार और उदाहरण

Table of Contents • • • • • • • • • • • • • • • • • • • • • • • • • रस की परिभाषा इसका उत्तर रसवादी आचार्यों ने अपनी अपनी प्रतिभा के अनुरूप दिया है। रस शब्द अनेक संदर्भों में प्रयुक्त होता है तथा प्रत्येक संदर्भ में इसका अर्थ अलग-अलग होता है। उदाहरण के लिए- पदार्थ की दृष्टि से रस का प्रयोग षडरस के रूप में, भक्ति में ब्रह्मानंद के लिए तथा साहित्य के क्षेत्र में काव्य स्वाद या काव्य आनंद के लिए रस का प्रयोग होता है। रस के भेद इसके मुख्यतः ग्यारह भेद हैं :- १. रस को समझने के लिए कुछ महत्वपूर्ण बिंदु • काव्य पढ़ने-सुनने अथवा देखने से श्रोता पाठक या दर्शक एक ऐसी अनुभूति पर पहुंच जाते हैं जहां चारों तरफ केवल शुद्ध आनंदमई चेतना का ही साम्राज्य रहता है। • इस भावभूमि को प्राप्त कर लेने की अवस्था को ही रस कहा जाता है। • अतः रस मूलतः आलोकिक स्थिति है यह केवल काव्य की आत्मा ही नहीं बल्कि यह काव्य का जीवन भी है इसकी अनुभूति के कारण सहृदय पाठक का हृदय आनंद से परिपूर्ण हो जाता है। • यह भाव जागृत करने के लिए उनके अनुभव का सशक्त माध्यम माना जाता है। आचार्य भरतमुनि ने सर्वप्रथम नाट्यशास्त्र रचना के अंतर्गत रस का सैद्धांतिक विश्लेषण करते हुए रस निष्पत्ति पर अपने विचार प्रस्तुत किए उनके अनुसार- विभावानुभाव संचार संयोगाद्रस निष्पत्ति • रस निष्पत्ति अर्थात- विभाव, अनुभाव और संचारी भाव के सहयोग से ही रस की निष्पत्ति होती है, किंतु साथ ही वे स्पष्ट करते हैं कि स्थाई भाव ही विभाव, अनुभाव और संचारी भाव के सहयोग से स्वरूप को ग्रहण करते हैं। इस प्रकार रस की अवधारणा को पूर्णता प्रदान करने में उनके चार अंगों स्थाई भाव, विभाव, अनुभाव और संचारी भाव का महत्वपूर्ण योगदान होता है। १. स्थाई भाव स्थाई भाव रस ...

अध्ययन निष्पत्ती इयत्ता 3 री विषय मराठी , इंग्रजी, गणित Learning Outcome Std 3 rd

अध्ययन निष्पत्ती म्हणजे काय, अध्ययन निष्पत्ती प्रश्नपत्रिका, अध्ययन निष्पत्ती वर आधारित प्रश्नपेढी, अध्ययन निष्पत्ती वर आधारित स्वाध्याय पुस्तिका learning outcomes ncert learning outcomes example, types of learning outcomes,learning outcomes pdf, what are learning outcomes in teaching, learning outcomes definition, importance of learning outcomes, learning outcomes and learning objectives. अध्ययन निष्पत्ति विषय मराठी learning outcomes इयत्ता तिसरी अध्ययनार्थी- 1) सांगितली जाणारी गोष्ट, कथा, कविता इत्यादी समजपूर्वक ऐकतात व आपली प्रतिक्रिया व्यक्त करतात. 2) गोष्टी कविता इत्यादी योग्य आरोह-अवरोहांसह , योग्य गतीने व ओघवत्या भाषेत सांगतात. 3) ऐकलेल्या गोष्टी, कविता, विषय, पाञ, शीर्षक इत्यादीबाबत चर्चा करतात, प्रश्न विचारतात, आपली प्रतिक्रिया देतात, आपले मत मांडतात, स्वतःच्या पध्दतीने (गोष्टी, कविता इ.) स्वतःच्या भाषेत व्यक्त करतात. 3) आपल्या परिसरात घडणारे प्रसंग/घटना आणि भिन्न परिस्थितींत आलेले स्वतःचे अनुभव व्यक्त करतात, त्याविषयी चर्चा करतात आणि प्रश्न करतात. 4) गोष्टी, कविता किंवा इतर साहित्यप्रकार समजून घेऊन त्यात स्वतःच्या माहितीची भर घालतात. 5) विविध साहित्यप्रकार / लेखनप्रकार (उदा वर्तमानपञ बालसाहित्य ) समजपूर्वक वाचून त्यांवर आधारित प्रश्न विचारतात, स्वतःचे मत व्यक्त करतात, शिक्षक, मिञ याच्याबरोबर चर्चा करतात, विचारलेल्या प्रश्नांची उत्तरे तोंडी व लेखी स्वरूपात देतात. 6) विविध प्रकारच्या रचना/मजकूर (उदा. वर्तमानपञ, बालसाहित्य, जाहिराती) समजपूर्वक वाचल्यानंतर त्यावर आधारित प्रश्न विचारतात, आपले मत देतात, शिक्षक , मिञ, यांच्याबरोबर चर्चा करतात व विचारलेल्या प्रश्नांची उत...

साधारणीकरण

प्राचीन भारतीय साहित्य के सन्दर्भ में, साधारणीकरण विशेष—यह वही स्थिति है जिसमें दर्शक या पाठकों के मन में ‘मैं’ और ‘पर’ का भाव दूर हो जाता है और वह अभिनय या काव्य के पात्रों या भावों में विलीन होकर उनके साथ एकात्मता स्थापित कर लेता है। पण्डितराज जगन्नाथने ‘दोष-दर्शन’ के आधार पर साधारणीकरण की प्रक्रिया का समाधान प्रस्तुत किया। आचार्यों ने साधारणीकरण को निम्न ढंग से प्रस्तुत किया है- आधुनिक काल में साधारणीकरण के संदर्भ में सर्वप्रथम चिंतन