उसने कहा था कहानी

  1. चंद्रधर शर्मा गुलेरी :: :: :: उसने कहा था :: कहानी
  2. Bihar Board Class 12th Hindi Solution Chapter 2 उसने कहाँ था
  3. गुंडा: जयशंकर प्रसाद की कहानी
  4. चन्द्रधर शर्मा 'गुलेरी'
  5. उसने कहा था कहानी की समीक्षा कहानी के तत्वों के आधार पर कीजिए
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चंद्रधर शर्मा गुलेरी :: :: :: उसने कहा था :: कहानी

बड़े-बड़े शहरों के इक्के-गाड़ीवालों की जबान के कोड़ों से जिनकी पीठ छिल गई है, और कान पक गए हैं, उनसे हमारी प्रार्थना है कि अमृतसर के बंबूकार्टवालों की बोली का मरहम लगावें। जब बड़े-बड़े शहरों की चौड़ी सड़कों पर घोड़े की पीठ चाबुक से धुनते हुए, इक्केवाले कभी घोड़े की नानी से अपना निकट-संबंध स्थिर करते हैं, कभी राह चलते पैदलों की आँखों के न होने पर तरस खाते हैं, कभी उनके पैरों की अँगुलियों के पोरों को चींथ कर अपने-ही को सताया हुआ बताते हैं, और संसार-भर की ग्लानि, निराशा और क्षोभ के अवतार बने, नाक की सीध चले जाते हैं, तब अमृतसर में उनकी बिरादरीवाले तंग चक्करदार गलियों में, हर-एक लड्ढीवाले के लिए ठहर कर सब्र का समुद्र उमड़ा कर बचो खालसा जी। हटो भाई जी। ठहरना भाई। आने दो लाला जी। हटो बाछा, कहते हुए सफेद फेंटों, खच्चरों और बत्तकों, गन्ने और खोमचे और भारेवालों के जंगल में से राह खेते हैं। क्या मजाल है कि जी और साहब बिना सुने किसी को हटना पड़े। यह बात नहीं कि उनकी जीभ चलती नहीं; पर मीठी छुरी की तरह महीन मार करती हुई। यदि कोई बुढ़िया बार-बार चितौनी देने पर भी लीक से नहीं हटती, तो उनकी बचनावली के ये नमूने हैं - हट जा जीणे जोगिए; हट जा करमाँवालिए; हट जा पुत्तां प्यारिए; बच जा लंबी वालिए। समष्टि में इनके अर्थ हैं, कि तू जीने योग्य है, तू भाग्योंवाली है, पुत्रों को प्यारी है, लंबी उमर तेरे सामने है, तू क्यों मेरे पहिए के नीचे आना चाहती है? बच जा। ऐसे बंबूकार्टवालों के बीच में होकर एक लड़का और एक लड़की चौक की एक दुकान पर आ मिले। उसके बालों और इसके ढीले सुथने से जान पड़ता था कि दोनों सिख हैं। वह अपने मामा के केश धोने के लिए दही लेने आया था, और यह रसोई के लिए बड़ियाँ। दुकानदार एक परदेसी से...

Bihar Board Class 12th Hindi Solution Chapter 2 उसने कहाँ था

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गुंडा: जयशंकर प्रसाद की कहानी

भारत की अग्रणी हिंदी महिला वेबसाइट Femina.in/hindi को सब्स्क्राइब करें. फ़ेमिना भारतीय महिलाओं के मन को समझने का काम कर रही है और इन्हीं महिलाओं के साथ-साथ बदलती रही है, ताकि वे पूरी दुनिया को ख़ुद जान सकें, समझ सकें. और यहां यह मौक़ा है आपके लिए कि आप सितारों से लेकर फ़ैशन तक, सौंदर्य से लेकर सेहत तक और लाइफ़स्टाइल से लेकर रिश्तों तक सभी के बारे में ताज़ातरीन जानकारियां सीधे अपने इनबॉक्स में पा सकें. इसके अलावा आप पाएंगे विशेषज्ञों की सलाह, सर्वे, प्रतियोगिताएं, इन्टरैक्टिव आर्टिकल्स और भी बहुत कुछ! लेखक: जयशंकर प्रसाद वह पचास वर्ष से ऊपर था. तब भी युवकों से अधिक बलिष्ठ और दृढ़ था. चमड़े पर झुर्रियाँ नहीं पड़ी थीं. वर्षा की झड़ी में, पूस की रातों की छाया में, कड़कती हुई जेठ की धूप में, नंगे शरीर घूमने में वह सुख मानता था. उसकी चढ़ी मूँछें बिच्छू के डंक की तरह, देखनेवालों की आँखों में चुभती थीं. उसका साँवला रंग, साँप की तरह चिकना और चमकीला था. उसकी नागपुरी धोती का लाल रेशमी किनारा दूर से ही ध्यान आकर्षित करता. कमर में बनारसी सेल्हे का फेंटा, जिसमें सीप की मूठ का बिछुआ खुँसा रहता था. उसके घुँघराले बालों पर सुनहले पल्ले के साफे का छोर उसकी चौड़ी पीठ पर फैला रहता. ऊँचे कन्धे पर टिका हुआ चौड़ी धार का गँड़ासा, यह भी उसकी धज! पंजों के बल जब वह चलता, तो उसकी नसें चटाचट बोलती थीं. वह गुंडा था. ईसा की अठारहवीं शताब्दी के अन्तिम भाग में वही काशी नहीं रह गयी थी, जिसमें उपनिषद् के अजातशत्रु की परिषद् में ब्रह्मविद्या सीखने के लिए विद्वान ब्रह्मचारी आते थे. गौतम बुद्ध और शंकराचार्य के धर्म-दर्शन के वाद-विवाद, कई शताब्दियों से लगातार मंदिरों और मठों के ध्वंस और तपस्वियों के वध के कारण, ...

चन्द्रधर शर्मा 'गुलेरी'

अनुक्रम • 1 जीवन-वृत्त • 2 व्यावसायिक जीवन • 3 शैली • 4 रचनाएं • 5 भाषा-शैली • 6 आज के युग में गुलेरी जी की प्रासंगिकता • 7 बाहरी कड़ियाँ जीवन-वृत्त [ ] चंद्रधर शर्मा गुलेरी का जन्म राजस्थान की वर्तमान राजधानी जयपुर में हुआ था। उनके पिता पंडित शिवराम शास्त्री मूलतः चंद्रधर को घर में ही आगे की पढ़ाई के लिए वे इलाहाबाद आ गए जहाँ प्रयाग विश्वविद्यालय से बी. ए. किया। उन्होंने अपने अध्ययन काल में ही उन्होंने सन् 1900 में जयपुर में नागरी मंच की स्थापना में योग दिया और सन् 1902 से मासिक पत्र ‘समालोचक’ के सम्पादन का भार भी सँभाला। प्रसंगवश कुछ वर्ष जयपुर के राजपण्डित के कुल में जन्म लेनेवाले गुलेरी जी का राजवंशों से घनिष्ठ सम्बन्ध रहा। वे पहले इस बीच परिवार में अनेक दुखद घटनाओं के आघात भी उन्हें झेलने पड़े। सन् 1922 में 12 सितम्बर को इस थोड़ी-सी आयु में ही गुलेरी जी ने अध्ययन और स्वाध्याय के द्वारा हिन्दी और अंग्रेज़ी के अतिरिक्त संस्कृत प्राकृत बांग्ला मराठी आदि का ही नहीं जर्मन तथा फ्रेंच भाषाओं का ज्ञान भी हासिल किया था। उनकी रुचि का क्षेत्र भी बहुत विस्तृत था और धर्म, ज्योतिष इतिहास, पुरातत्त्व, दर्शन भाषाविज्ञान शिक्षाशास्त्र और साहित्य से लेकर संगीत, चित्रकला, लोककला, विज्ञान और राजनीति तथा समसामयिक सामाजिक स्थिति तथा रीति-नीति तक फैला हुआ था। उनकी अभिरुचि और सोच को गढ़ने में स्पष्ट ही इस विस्तृत पटभूमि का प्रमुख हाथ था और इसका परिचय उनके लेखन की विषयवस्तु और उनके दृष्टिकोण में बराबर मिलता रहता है। व्यावसायिक जीवन [ ] 39 वर्ष की जीवन-अवधि में उन्होंने कहानियाँ, लघु-कथाएँ, आख्यान, ललित निबन्ध, गम्भीर विषयों पर विवेचनात्मक निबन्ध, शोधपत्र, समीक्षाएँ, सम्पादकीय टिप्पणियाँ, पत्र...

उसने कहा था कहानी की समीक्षा कहानी के तत्वों के आधार पर कीजिए

Facebook Twitter WhatsApp Email Messenger उसने कहा था कहानी की समीक्षा :–‘उसने कहा था’ कहानी गुलेरीजी ने 1915 ई. में लिखी थी। इस कहानी की पृष्ठभूमि में प्रथम विश्वयुद्ध है,जिसे शुरू हुए अभी एक साल हुआ है। कहानी का मुख्य घटनाचक्र भारत से बाहर फ्रांस में घटित होता है, लेकिन कहानी का आरंभ अमृतसर से होता है। 1890 ई. के आसपास का अमृतसर। कहानी के आरंभ में ही अमृतसर के तांगेवालों का लंबा खाका खींचा गया है। बाज़ार से गुजरते हुए तांगे वाले किस तरह की आवाजें लगाते हैं, किस तरह का व्यवहार करते हैं, इसका अत्यंत जीवंत और यथार्थपरक चित्र खींचा गया है। उसने कहा था कहानी की समीक्षा “यह बात नहीं कि उनकी जीभ चलती ही नहीं, चलती है, पर मीठी छुरी की तरह महीन मार करती है। यदि कोई बुढ़िया बार-बार चितौनी देने पर भी लीक से नहीं हटती तो उनकी वचनावली के ये नमूने हैं हट जा जीणे जोगिए, हट जा करमा वालिए, हट जा पुत्तां प्यारिए, हट जा लंबी उमर वालिए।” उपर्युक्त अंश से स्पष्ट है कि अमृतसर का पंजाबी वातावरण आरंभ से ही कहानी पर छाया हुआ है। पात्रों की वेशभूषा, उनकी ज़बान, उनके मुहावरे और उनके व्यवहार में पंजाबीपन की स्पष्ट महक महसूस की जा सकती है। इसलिए उनकी भाषा और व्यवहार में पंजाबीपन का आना स्वाभाविक है। अगर, कहानीकार पात्रों की क्षेत्रीय पृष्ठभूमि की उपेक्षा करता तो उसमें वह बात नहीं आती जो कहानी में अब नज़र आती है। यानी कि इस पंजाबीपन के कारण कहानी के पात्र अधिक जीवंत और वास्तविक लगते हैं। युद्ध के मैदान में भी उनका यह पंजाबीपन नहीं छूटता। पंजाब के लोग – विशेषतः सिख अपने साहस और चुलबुलेपन के लिए विख्यात हैं। यह विशेषताएँ हम लहनासिंह और अन्य पात्रों में भी देख सकते हैं। ‘वजीरासिंह पलटन का विदूषक था। बाल...

Bihar Board Class 12th Hindi Solution Chapter 2 उसने कहाँ था

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गुंडा: जयशंकर प्रसाद की कहानी

भारत की अग्रणी हिंदी महिला वेबसाइट Femina.in/hindi को सब्स्क्राइब करें. फ़ेमिना भारतीय महिलाओं के मन को समझने का काम कर रही है और इन्हीं महिलाओं के साथ-साथ बदलती रही है, ताकि वे पूरी दुनिया को ख़ुद जान सकें, समझ सकें. और यहां यह मौक़ा है आपके लिए कि आप सितारों से लेकर फ़ैशन तक, सौंदर्य से लेकर सेहत तक और लाइफ़स्टाइल से लेकर रिश्तों तक सभी के बारे में ताज़ातरीन जानकारियां सीधे अपने इनबॉक्स में पा सकें. इसके अलावा आप पाएंगे विशेषज्ञों की सलाह, सर्वे, प्रतियोगिताएं, इन्टरैक्टिव आर्टिकल्स और भी बहुत कुछ! लेखक: जयशंकर प्रसाद वह पचास वर्ष से ऊपर था. तब भी युवकों से अधिक बलिष्ठ और दृढ़ था. चमड़े पर झुर्रियाँ नहीं पड़ी थीं. वर्षा की झड़ी में, पूस की रातों की छाया में, कड़कती हुई जेठ की धूप में, नंगे शरीर घूमने में वह सुख मानता था. उसकी चढ़ी मूँछें बिच्छू के डंक की तरह, देखनेवालों की आँखों में चुभती थीं. उसका साँवला रंग, साँप की तरह चिकना और चमकीला था. उसकी नागपुरी धोती का लाल रेशमी किनारा दूर से ही ध्यान आकर्षित करता. कमर में बनारसी सेल्हे का फेंटा, जिसमें सीप की मूठ का बिछुआ खुँसा रहता था. उसके घुँघराले बालों पर सुनहले पल्ले के साफे का छोर उसकी चौड़ी पीठ पर फैला रहता. ऊँचे कन्धे पर टिका हुआ चौड़ी धार का गँड़ासा, यह भी उसकी धज! पंजों के बल जब वह चलता, तो उसकी नसें चटाचट बोलती थीं. वह गुंडा था. ईसा की अठारहवीं शताब्दी के अन्तिम भाग में वही काशी नहीं रह गयी थी, जिसमें उपनिषद् के अजातशत्रु की परिषद् में ब्रह्मविद्या सीखने के लिए विद्वान ब्रह्मचारी आते थे. गौतम बुद्ध और शंकराचार्य के धर्म-दर्शन के वाद-विवाद, कई शताब्दियों से लगातार मंदिरों और मठों के ध्वंस और तपस्वियों के वध के कारण, ...

चंद्रधर शर्मा गुलेरी :: :: :: उसने कहा था :: कहानी

बड़े-बड़े शहरों के इक्के-गाड़ीवालों की जबान के कोड़ों से जिनकी पीठ छिल गई है, और कान पक गए हैं, उनसे हमारी प्रार्थना है कि अमृतसर के बंबूकार्टवालों की बोली का मरहम लगावें। जब बड़े-बड़े शहरों की चौड़ी सड़कों पर घोड़े की पीठ चाबुक से धुनते हुए, इक्केवाले कभी घोड़े की नानी से अपना निकट-संबंध स्थिर करते हैं, कभी राह चलते पैदलों की आँखों के न होने पर तरस खाते हैं, कभी उनके पैरों की अँगुलियों के पोरों को चींथ कर अपने-ही को सताया हुआ बताते हैं, और संसार-भर की ग्लानि, निराशा और क्षोभ के अवतार बने, नाक की सीध चले जाते हैं, तब अमृतसर में उनकी बिरादरीवाले तंग चक्करदार गलियों में, हर-एक लड्ढीवाले के लिए ठहर कर सब्र का समुद्र उमड़ा कर बचो खालसा जी। हटो भाई जी। ठहरना भाई। आने दो लाला जी। हटो बाछा, कहते हुए सफेद फेंटों, खच्चरों और बत्तकों, गन्ने और खोमचे और भारेवालों के जंगल में से राह खेते हैं। क्या मजाल है कि जी और साहब बिना सुने किसी को हटना पड़े। यह बात नहीं कि उनकी जीभ चलती नहीं; पर मीठी छुरी की तरह महीन मार करती हुई। यदि कोई बुढ़िया बार-बार चितौनी देने पर भी लीक से नहीं हटती, तो उनकी बचनावली के ये नमूने हैं - हट जा जीणे जोगिए; हट जा करमाँवालिए; हट जा पुत्तां प्यारिए; बच जा लंबी वालिए। समष्टि में इनके अर्थ हैं, कि तू जीने योग्य है, तू भाग्योंवाली है, पुत्रों को प्यारी है, लंबी उमर तेरे सामने है, तू क्यों मेरे पहिए के नीचे आना चाहती है? बच जा। ऐसे बंबूकार्टवालों के बीच में होकर एक लड़का और एक लड़की चौक की एक दुकान पर आ मिले। उसके बालों और इसके ढीले सुथने से जान पड़ता था कि दोनों सिख हैं। वह अपने मामा के केश धोने के लिए दही लेने आया था, और यह रसोई के लिए बड़ियाँ। दुकानदार एक परदेसी से...

चन्द्रधर शर्मा 'गुलेरी'

अनुक्रम • 1 जीवन-वृत्त • 2 व्यावसायिक जीवन • 3 शैली • 4 रचनाएं • 5 भाषा-शैली • 6 आज के युग में गुलेरी जी की प्रासंगिकता • 7 बाहरी कड़ियाँ जीवन-वृत्त [ ] चंद्रधर शर्मा गुलेरी का जन्म राजस्थान की वर्तमान राजधानी जयपुर में हुआ था। उनके पिता पंडित शिवराम शास्त्री मूलतः चंद्रधर को घर में ही आगे की पढ़ाई के लिए वे इलाहाबाद आ गए जहाँ प्रयाग विश्वविद्यालय से बी. ए. किया। उन्होंने अपने अध्ययन काल में ही उन्होंने सन् 1900 में जयपुर में नागरी मंच की स्थापना में योग दिया और सन् 1902 से मासिक पत्र ‘समालोचक’ के सम्पादन का भार भी सँभाला। प्रसंगवश कुछ वर्ष जयपुर के राजपण्डित के कुल में जन्म लेनेवाले गुलेरी जी का राजवंशों से घनिष्ठ सम्बन्ध रहा। वे पहले इस बीच परिवार में अनेक दुखद घटनाओं के आघात भी उन्हें झेलने पड़े। सन् 1922 में 12 सितम्बर को इस थोड़ी-सी आयु में ही गुलेरी जी ने अध्ययन और स्वाध्याय के द्वारा हिन्दी और अंग्रेज़ी के अतिरिक्त संस्कृत प्राकृत बांग्ला मराठी आदि का ही नहीं जर्मन तथा फ्रेंच भाषाओं का ज्ञान भी हासिल किया था। उनकी रुचि का क्षेत्र भी बहुत विस्तृत था और धर्म, ज्योतिष इतिहास, पुरातत्त्व, दर्शन भाषाविज्ञान शिक्षाशास्त्र और साहित्य से लेकर संगीत, चित्रकला, लोककला, विज्ञान और राजनीति तथा समसामयिक सामाजिक स्थिति तथा रीति-नीति तक फैला हुआ था। उनकी अभिरुचि और सोच को गढ़ने में स्पष्ट ही इस विस्तृत पटभूमि का प्रमुख हाथ था और इसका परिचय उनके लेखन की विषयवस्तु और उनके दृष्टिकोण में बराबर मिलता रहता है। व्यावसायिक जीवन [ ] 39 वर्ष की जीवन-अवधि में उन्होंने कहानियाँ, लघु-कथाएँ, आख्यान, ललित निबन्ध, गम्भीर विषयों पर विवेचनात्मक निबन्ध, शोधपत्र, समीक्षाएँ, सम्पादकीय टिप्पणियाँ, पत्र...

उसने कहा था कहानी की समीक्षा कहानी के तत्वों के आधार पर कीजिए

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