ध्रुवस्वामिनी नाटक के रचनाकार

  1. ध्रुवस्वामिनी नाटक(dhruvswamini natak)
  2. ध्रुवस्वामिनी नाटक की समीक्षा
  3. नाटक और नाटककार
  4. हिंदी नाटक और एकांकी/ध्रुवस्वामिनी
  5. ध्रुवस्वामिनी नाटक ( Part 2 )
  6. जयशंकर प्रसाद
  7. हिंदी नाटक और एकांकी/ध्रुवस्वामिनी
  8. ध्रुवस्वामिनी नाटक की समीक्षा
  9. ध्रुवस्वामिनी नाटक ( Part 2 )
  10. जयशंकर प्रसाद


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ध्रुवस्वामिनी नाटक(dhruvswamini natak)

💐💐 ध्रुवस्वामिनी (नाटक)💐💐 ◆ प्रकाशन -: 1933 ई. ◆ अंक :- 3 अंक ◆ दृश्य :- 3 दृश्य( प्रत्येक अंक में एक दृश्य) ◆ नाटक में गीत :- चार ◆ नाटक की नायिका :- ध्रुवस्वामिनी ◆ जयशंकर प्रसाद का यह अंतिम नाटक हैं। ◆ ऐतिहासिक नाटक ◆ नाटक का कथानक गुप्तकाल से सम्बद्ध और शोध द्वारा इतिहाससम्मत है। ◆ प्रसाद जी के अनुसार विशाखदत्त द्वारा रचित संस्कृत नाटक देवी चंद्रगुप्त में यह घटना अंकित है जिसमें ध्रुवस्वामिनी का पुनर्विवाह चंद्रगुप्त के साथ हुआ बताया गया। ◆ ध्रुवस्वामिनी नाटक की मूल समस्या :- नारी समस्या है नारी समस्या के इर्द गिर्द में संपूर्ण नाटक रचा गया है। ◆ ध्रुवस्वामिनी नाटक में प्रसाद जी ने नारी समस्या को बड़े प्रभावोत्पादक शैली में चित्रण किया है। ◆ प्रसाद जी ने ध्रुवस्वामिनी के माध्यम से स्त्री अस्मिता की रक्षा करने के भरपूर प्रयास किया है। ◆ प्रसाद जी ने ध्रुवस्वामिनी नाटक में नारी को वीर, साहसी और गौरवान्वित रूप प्रस्तुत किया है। ◆ ध्रुवस्वामिनी नाटक में नाट्य कला के सभी तत्वों का सुन्दर संयोजन हुआ है। संकलन-त्रय और अभिनेयता की दृष्टि से भी यह एक उत्कृष्ट नाट्य-कृति सिद्ध होती है। ◆ वर्तमान युग में विभिन्न सामाजिक समस्याओं को लेकर नाटक के माध्यम से प्रस्तुत करना। ◆ ध्रुवस्वामिनी नाटक के माध्यम से प्रसाद जी ने अतीत और वर्तमान को देखकर भविष्य का निर्माण करते हैं। ◆ प्रसाद ने ऐतिहासिक यथार्थ को दृष्टि में रखकर राष्ट्र की सुप्त आत्मा को जगाने का प्रयत्न किया है। ◆ ध्रुवस्वामिनी की पहली पंक्ति ही प्रसाद के जीवन दर्शन और कृति के उद्देश्य को स्पष्ट कर देती है पुरुष की कठोरता और नारी का अबलापन पुरुष का प्रमुख और स्त्री की दासता यही असमानता नाटक का बीज है। ◆ नाटक के पात्र :- ★ प्रमु...

ध्रुवस्वामिनी नाटक की समीक्षा

Table of Contents • • • • • • • • • • • ध्रुवस्वामिनी नाटक तात्विक समीक्षा ‘ध्रुवस्वामिनी’ 1. कथानक ‘ध्रुवस्वामिनी’ का मूल कथानक ऐतिहासिक है, पर प्रसाद जी ने इसमें अपनी कल्पना के कई रंग भर दिए हैं। लेखक ने इसके कथानक का मुख्य आधार गुप्तवंश को बनाया है। साथ ही कल्पना द्वारा कई रोचक प्रसंगों की सृष्टि भी की है। नाटक के कथानक का आरम्भ गुप्त वधू ध्रुवस्वामिनी के युद्ध शिविर में प्रवेश से होता है। वहाँ वह अपनी दासी के समक्ष अपने पति रामगुप्त के प्रति उसकी दुष्प्रवृत्तियों के चलते उपेक्षा तथा कुमार चंद्रगुप्त के सहृदय व्यवहार के कारण उसके प्रति आकर्षण के भाव प्रकट करती है। उसी समय रामगुप्त को यह सूचना मिलती है कि शकराज ने उनको दोनों ओर से घेर लिया है तथा संधि के बदले वह ध्रुवस्वामिनी और अपने सामंतों के लिए मगध के सामन्तों की स्त्रियों को चाहता है। कायर रामगुप्त शकराज का यह पूणित प्रस्ताव इसलिए मानने को तैयार है, क्योंकि इससे वह ( अन्दर ध्रुवस्वामिनी और बाहर शकराज ) दोनों दुश्मनों से बच सकता है। परंतु चंद्रगुप्त जिसने पारिवारिक कलह के डर से अपने सभी अधिकार यहाँ तक कि अपनी वाग्दत्ता ध्रुवस्वामिनी को भी त्याग दिया था, इस अवसर पर न केवल ध्रुवस्वामिनी की मर्यादा की रक्षा करता है बल्कि शकराज को मार देता है तथा अपने अधिकारों की बात राजसभा में उठाता है। दूसरी ओर, इस घटना के पश्चात् ध्रुवस्वामिनी भी कायर रामगुप्त के साथ नहीं रहना चाहती। नाटक के अंत में धर्म-परिषद् के निर्णय के कारण दोनों का तलाक हो जाता है तथा चंद्रगुप्त व ध्रुवस्वामिनी एक हो जाते हैं। इस अवसर पर रामगुप्त एक सामन्त द्वारा मारा जाता है। इस प्रकार इस नाटक का कथानक अत्यंत संक्षिप्त, कौतूहलपूर्ण एवं नाटकीय है। घटनाओं से भरपू...

नाटक और नाटककार

हिन्दी के नाटक और नाटककार हिन्दी का पहला गोपाल चन्द्र गिरधरदास” हैं। नाटक अर्थात् रूपक को तीनों लोकों के भावों का अनुकरण मानते हुए नाराभावोपसम्पन्नं नानावस्थान्तरात्मकम्। लोकवृत्तानुकरं नाट्यमेतन्मया कृतम्।।” नाटक, काव्य का एक रूप है, अर्थात जो नाटक और नाटककार हिन्दी के नाटक और नाटककार की प्रमुख लेखकों और रचनाओं की लिस्ट उनके समयकाल के आधार पर दो भागों में बांटा गया है- • भारतेन्दु युग के नाटक और नाटककार • प्रसादोत्तर युग के नाटक और नाटककार भारतेन्दु युग के नाटक और नाटककार क्रम नाटक नाटककार 1. रामायण महानाटक प्राणचंद चौहान 2. आनंद रघुनंदन महाराज विश्वनाथ सिंह 3. नहुष गोपालचंद्र गिरिधर दास 4. विद्यासुंदर, रत्नावली, पाखण्ड विडंबन, धनंजय विजय, कर्पूर मंजरी, भारत-जननी, मुद्राराक्षस, दुर्लभ बंधु (उपर्युक्त सभी अनूदित); वैदिकी हिंसा हिंसा न भवति, सत्यहरिश्चंद्र, श्रीचंद्रावली, विषस्य विषमौषधम, भारत-दुर्दशा, नीलदेवी, अँधेर नगरी, सती प्रताप, प्रेम योगिनी (मौलिक) भारतेंदु हरिश्चंद्र 5. कृष्ण-सुदामा नाटक शिवनंदन सहाय 6. संयोगिता स्वयंवर, प्रह्लाद-चरित्र, रणधीर प्रेममोहिनी, तप्त संवरण लाला श्रीनिवासदास 7. अमरसिंह राठौर, बूढ़े मुँह मुँहासे (प्रहसन) राधाचरण गोस्वामी 8. मयंक मंजरी, प्रणयिनी-परिणय किशोरीलाल गोस्वामी 9. भारत-दुर्दशा, कलिकौतुक रुपक, संगीत शाकुंतल, हठी हम्मीर प्रताप नारायण मिश्र 10. कलिराज की सभा, रेल का विकट खेल, दमयंती स्वयंवर, जैसा काम वैसा परिणाम (प्रहसन), नई रोशनी का विष, वेणुसंहार बालकृष्ण भट्ट 11. जानकीमंगल शीतला प्रसाद त्रिपाठी 12. महाराणा प्रताप, दुःखिनी बाला, पद्यावती, धर्मालाप राधाकृष्ण दास 13. भारत-हरण देवकीनंदन त्रिपाठी 14. प्रद्युम्न विजय व्यायोग, रुक्मिणी परि...

हिंदी नाटक और एकांकी/ध्रुवस्वामिनी

ध्रुवस्वामिनी नाटक में स्त्री अस्मिता की प्रतिष्ठा बताओ! प्रसाद जी हिन्दी के नि:संदेह अकेले ऐसे लेखक हैं जिन्होंने भारतीय संस्कृति, समृद्धि, शक्ति और औदात्म का आस्वर चित्र प्रस्तुत किया है। कलात्मक उत्कर्ष की दृष्टि से प्रसाद जी के सर्वत्रमुख नाटक तीन हैं: स्कन्दगुप्त, चंद्रगुप्त और ध्रुवस्वामिनी। लेकिन उनकी ख्याति के शिखर पर निश्चय ही ध्रुवस्वामिनी खड़ा है। ध्रुवस्वामिनी जयशंकर प्रसाद का अंतिम नाटक है। इसमें उनके अन्य नाटकों जैसी कविता की भावुकता और संवादों में वैसी दुरूहता नहीं है। अपने जीवंत संवादों और सुगठित कथावस्तु के कारण यह नाटक अत्यंत प्रभावशाली और मनोपयोगीहो गया है। लेकिन इसकी सबसे बड़ी शक्ति प्रसाद जी के उस क्रांतिकारी दृष्टिकोण में निहित है जो इस नाटक के माध्यम से व्यक्त हुआ है और वह यह है कि नारी पुरुष की क्रीत दासी नहीं है। पुरुष यदि क्लीव (नपुंसक), कायर और व्यभिचारी है तो नारी न केवल उसके विरुद्ध विद्रोह ही कर सकती है, उसका परित्याग करके अपने प्रिय पुरुष का वरण कर उससे पुनर्विवाह भी कर सकती है। यह बात भारतीय समाज के लिए, खासतौर से उस समय जब यह नाटक लिखा गया था, कल्पना से भी परे थी। ‘ध्रुवस्वामिनी नाटक में गुप्त साम्राज्य की उस अवस्था का चित्रण हुआ है, जब शासन की बागडोर एक कायर, क्लीव और व्यभिचारी राजा रामगुप्त के हाथों में है। हालांकि, युवराज चंद्रगुप्तहै लेकिन अपने ज्येष्ठ भ्राता रामगुप्त के लिए त्याग कर उसे सिंहासनारूढ़ कर देता है। शकराज गुप्त साम्राज्य से अपने पुरखों के अपमान का प्रतिशोध होने के लिए खिगिल के माध्यम से एक प्रस्ताव रामगुप्त के पास भेजता है कि यदि वह अपने राज्य की सुरक्षा चाहता है तो उसके लिए उपहारस्वरूप अपनी महारानी ध्रुवस्वामिनी और हमारे स...

ध्रुवस्वामिनी नाटक ( Part 2 )

(एक दुर्ग के भीतर सुनहले कामवाले खम्भों पर एक दालान, बीच में छोटी-छोटी-सी सीढ़ियाँ, उसी के सामने कश्मीरी खुदाई का सुंदर लकड़ी का सिंहासन। बीच के दो खंभे खुले हुए हैं, उनके दोनों ओर मोटे-मोटे चित्र बने हुए तिब्बती ढंग से रेशमी पर्दे पड़े हैं, सामने बीच में छोटा-सा आँगन की तरह जिसके दोनों ओर क्यारियाँ, उनमें दो-चार पौधे और लताएँ फूलों से लदी दिखलाई पड़ती हैं।) कोमा : (धीरे-धीरे पौधों को देखती हुई प्रवेश करके)इन्हें सींचना पड़ता है, नहीं तो इनकी रुखाई और मलिनता सौंदर्य पर आवरण डाल देती हैं। (देखकर)आज तो इनके पत्ते धुले हुए भी नहीं हैं। इनमें फूल जैसे मुकुलित होकर ही रह गए हैं। खिलखिलाकर हँसने का मानो इन्हें बल नहीं। (सोचकर)ठीक, इधर कई दिनों में महाराज अपने युद्ध-विग्रह में लगे हुए हैं और मैं भी यहाँ नहीं आई, तो फिर इनकी चिन्ता कौन करता? उस दिन मैंने यहाँ दो मंच और भी रख देने के लिए कह दिया था, पर सुनता कौन है? सब जैसे रक्त के प्यासे! प्राण लेने और देने में पागल! वसन्त का उदास और असल पवन आता है, चला जाता है। कोई उस स्पर्श से परिचित नहीं। ऐसा तो वास्तविक जीवन नहीं है (सीढ़ी पर बैठकर सोचने लगती है)प्रणय! प्रेम! जब सामने से आते हुए तीव्र आलोक की तरह आँखों में प्रकाशपुंज उड़ेल देता है, तब सामने की सब वस्तुएँ और भी अस्पष्ट हो जाती हैं। अपनी ओर से कोई भी प्रकाश की किरण नहीं। तब वही, केवल वही! हो पागलपन, भूल हो, दुःख मिले। प्रेम करने की एक ऋतु होती है। उसमें चूकना, उसमें सोच-समझकर चलना दोनों बराबर हैं। सुना है दोनों ही संसार के चतुरों की दृष्टि से मूर्ख बनते हैं, तब कोमा, तू किसे अच्छा समझती है? ( गाती है) शकराज :खिंगल अभी नहीं आया, क्या वह वंदी तो नहीं कर लिया गया? नहीं, यदि वे अंधे...

जयशंकर प्रसाद

ध्रुवस्वामिनी के माध्यम से जयशंकर प्रसाद ने इस तरीके संदर्भों को उठाया है। उनकी शिक्षा को उस पर हो रहे अत्याचार आदि को उजागर करते हुए उससे मुक्ति का मार्ग भी दिखाने का प्रयास किया है। तत्कालीन समाज में स्त्रियों की स्थिति कुछ ठीक नहीं थी। उन्हें भोग विलास की वस्तु समझा जाता था जिसका विरोध ध्रुवस्वामिनी ने इस नाटक में किया। इस लेख में आप ध्रुवस्वामिनी के माध्यम से तत्कालीन समाज और स्त्रियों की समस्या पर समग्र रूप से अध्ययन करेंगे तथा जयशंकर प्रसाद के दृष्टिकोण से भी परिचित होंगे। जयशंकर प्रसाद का काल 1916 से 1950 स्वीकार किया जाता है ।जयशंकर , भारतेंदु के उत्तराधिकारी के रुप में प्रस्तुत हुए क्योंकि महावीर प्रसाद द्विवेदी जी ने नाटक के क्षेत्र में विशेष योगदान नहीं दिया आता उनके काल को हिंदी नाटक में अंधकार युग कहा गया। प्रसाद जी ने नाटक की रचना में विभिन्न नए प्रयोग किए जैसे अंको के विभाजन क्षेत्र में पर्दे पर रंगमंचीयता के संदर्भ में आदि। उन्होंने अनेक प्रकार की रचनाएं कि जैसे पौराणिक ,ऐतिहासिक ,मिथक ,लोक-श्रुति के आधार पर। किंतु अनेक नाटक में ऐतिहासिक पात्रों की बहुलता रही उन्होंने अतीत के गौरव का बखान किया। भारत वासियों की पराजित मनोवृति को अतीत के गौरव से सहलाया ध्रुवस्वामिनी ,मंदाकिनी ,जैसी पात्रों ने स्त्री चेतना स्त्री आंदोलन में बढ़ चढ़कर भाग लिया। ध्रुवस्वामिनी का प्रकाशन 1933 में हुआ नाटक में नारी के अस्तित्व, अधिकार, और पुनर्लगन, की समस्या को उठाया है इस नाटक में पुरुष सत्तात्मक समाज के शोषण के प्रति नारी का विद्रोह है। ऐतिहासिक पृष्ठभूमि को आधार बनाकर रचे गए इस नाटक के माध्यम से नाटककार ने नारी जीवन की जटिल समस्याओं के संबंध में अपने दृष्टिकोण को प्रस्तुत किया ...

हिंदी नाटक और एकांकी/ध्रुवस्वामिनी

ध्रुवस्वामिनी नाटक में स्त्री अस्मिता की प्रतिष्ठा बताओ! प्रसाद जी हिन्दी के नि:संदेह अकेले ऐसे लेखक हैं जिन्होंने भारतीय संस्कृति, समृद्धि, शक्ति और औदात्म का आस्वर चित्र प्रस्तुत किया है। कलात्मक उत्कर्ष की दृष्टि से प्रसाद जी के सर्वत्रमुख नाटक तीन हैं: स्कन्दगुप्त, चंद्रगुप्त और ध्रुवस्वामिनी। लेकिन उनकी ख्याति के शिखर पर निश्चय ही ध्रुवस्वामिनी खड़ा है। ध्रुवस्वामिनी जयशंकर प्रसाद का अंतिम नाटक है। इसमें उनके अन्य नाटकों जैसी कविता की भावुकता और संवादों में वैसी दुरूहता नहीं है। अपने जीवंत संवादों और सुगठित कथावस्तु के कारण यह नाटक अत्यंत प्रभावशाली और मनोपयोगीहो गया है। लेकिन इसकी सबसे बड़ी शक्ति प्रसाद जी के उस क्रांतिकारी दृष्टिकोण में निहित है जो इस नाटक के माध्यम से व्यक्त हुआ है और वह यह है कि नारी पुरुष की क्रीत दासी नहीं है। पुरुष यदि क्लीव (नपुंसक), कायर और व्यभिचारी है तो नारी न केवल उसके विरुद्ध विद्रोह ही कर सकती है, उसका परित्याग करके अपने प्रिय पुरुष का वरण कर उससे पुनर्विवाह भी कर सकती है। यह बात भारतीय समाज के लिए, खासतौर से उस समय जब यह नाटक लिखा गया था, कल्पना से भी परे थी। ‘ध्रुवस्वामिनी नाटक में गुप्त साम्राज्य की उस अवस्था का चित्रण हुआ है, जब शासन की बागडोर एक कायर, क्लीव और व्यभिचारी राजा रामगुप्त के हाथों में है। हालांकि, युवराज चंद्रगुप्तहै लेकिन अपने ज्येष्ठ भ्राता रामगुप्त के लिए त्याग कर उसे सिंहासनारूढ़ कर देता है। शकराज गुप्त साम्राज्य से अपने पुरखों के अपमान का प्रतिशोध होने के लिए खिगिल के माध्यम से एक प्रस्ताव रामगुप्त के पास भेजता है कि यदि वह अपने राज्य की सुरक्षा चाहता है तो उसके लिए उपहारस्वरूप अपनी महारानी ध्रुवस्वामिनी और हमारे स...

ध्रुवस्वामिनी नाटक की समीक्षा

Table of Contents • • • • • • • • • • • ध्रुवस्वामिनी नाटक तात्विक समीक्षा ‘ध्रुवस्वामिनी’ 1. कथानक ‘ध्रुवस्वामिनी’ का मूल कथानक ऐतिहासिक है, पर प्रसाद जी ने इसमें अपनी कल्पना के कई रंग भर दिए हैं। लेखक ने इसके कथानक का मुख्य आधार गुप्तवंश को बनाया है। साथ ही कल्पना द्वारा कई रोचक प्रसंगों की सृष्टि भी की है। नाटक के कथानक का आरम्भ गुप्त वधू ध्रुवस्वामिनी के युद्ध शिविर में प्रवेश से होता है। वहाँ वह अपनी दासी के समक्ष अपने पति रामगुप्त के प्रति उसकी दुष्प्रवृत्तियों के चलते उपेक्षा तथा कुमार चंद्रगुप्त के सहृदय व्यवहार के कारण उसके प्रति आकर्षण के भाव प्रकट करती है। उसी समय रामगुप्त को यह सूचना मिलती है कि शकराज ने उनको दोनों ओर से घेर लिया है तथा संधि के बदले वह ध्रुवस्वामिनी और अपने सामंतों के लिए मगध के सामन्तों की स्त्रियों को चाहता है। कायर रामगुप्त शकराज का यह पूणित प्रस्ताव इसलिए मानने को तैयार है, क्योंकि इससे वह ( अन्दर ध्रुवस्वामिनी और बाहर शकराज ) दोनों दुश्मनों से बच सकता है। परंतु चंद्रगुप्त जिसने पारिवारिक कलह के डर से अपने सभी अधिकार यहाँ तक कि अपनी वाग्दत्ता ध्रुवस्वामिनी को भी त्याग दिया था, इस अवसर पर न केवल ध्रुवस्वामिनी की मर्यादा की रक्षा करता है बल्कि शकराज को मार देता है तथा अपने अधिकारों की बात राजसभा में उठाता है। दूसरी ओर, इस घटना के पश्चात् ध्रुवस्वामिनी भी कायर रामगुप्त के साथ नहीं रहना चाहती। नाटक के अंत में धर्म-परिषद् के निर्णय के कारण दोनों का तलाक हो जाता है तथा चंद्रगुप्त व ध्रुवस्वामिनी एक हो जाते हैं। इस अवसर पर रामगुप्त एक सामन्त द्वारा मारा जाता है। इस प्रकार इस नाटक का कथानक अत्यंत संक्षिप्त, कौतूहलपूर्ण एवं नाटकीय है। घटनाओं से भरपू...

ध्रुवस्वामिनी नाटक ( Part 2 )

(एक दुर्ग के भीतर सुनहले कामवाले खम्भों पर एक दालान, बीच में छोटी-छोटी-सी सीढ़ियाँ, उसी के सामने कश्मीरी खुदाई का सुंदर लकड़ी का सिंहासन। बीच के दो खंभे खुले हुए हैं, उनके दोनों ओर मोटे-मोटे चित्र बने हुए तिब्बती ढंग से रेशमी पर्दे पड़े हैं, सामने बीच में छोटा-सा आँगन की तरह जिसके दोनों ओर क्यारियाँ, उनमें दो-चार पौधे और लताएँ फूलों से लदी दिखलाई पड़ती हैं।) कोमा : (धीरे-धीरे पौधों को देखती हुई प्रवेश करके)इन्हें सींचना पड़ता है, नहीं तो इनकी रुखाई और मलिनता सौंदर्य पर आवरण डाल देती हैं। (देखकर)आज तो इनके पत्ते धुले हुए भी नहीं हैं। इनमें फूल जैसे मुकुलित होकर ही रह गए हैं। खिलखिलाकर हँसने का मानो इन्हें बल नहीं। (सोचकर)ठीक, इधर कई दिनों में महाराज अपने युद्ध-विग्रह में लगे हुए हैं और मैं भी यहाँ नहीं आई, तो फिर इनकी चिन्ता कौन करता? उस दिन मैंने यहाँ दो मंच और भी रख देने के लिए कह दिया था, पर सुनता कौन है? सब जैसे रक्त के प्यासे! प्राण लेने और देने में पागल! वसन्त का उदास और असल पवन आता है, चला जाता है। कोई उस स्पर्श से परिचित नहीं। ऐसा तो वास्तविक जीवन नहीं है (सीढ़ी पर बैठकर सोचने लगती है)प्रणय! प्रेम! जब सामने से आते हुए तीव्र आलोक की तरह आँखों में प्रकाशपुंज उड़ेल देता है, तब सामने की सब वस्तुएँ और भी अस्पष्ट हो जाती हैं। अपनी ओर से कोई भी प्रकाश की किरण नहीं। तब वही, केवल वही! हो पागलपन, भूल हो, दुःख मिले। प्रेम करने की एक ऋतु होती है। उसमें चूकना, उसमें सोच-समझकर चलना दोनों बराबर हैं। सुना है दोनों ही संसार के चतुरों की दृष्टि से मूर्ख बनते हैं, तब कोमा, तू किसे अच्छा समझती है? ( गाती है) शकराज :खिंगल अभी नहीं आया, क्या वह वंदी तो नहीं कर लिया गया? नहीं, यदि वे अंधे...

जयशंकर प्रसाद

ध्रुवस्वामिनी के माध्यम से जयशंकर प्रसाद ने इस तरीके संदर्भों को उठाया है। उनकी शिक्षा को उस पर हो रहे अत्याचार आदि को उजागर करते हुए उससे मुक्ति का मार्ग भी दिखाने का प्रयास किया है। तत्कालीन समाज में स्त्रियों की स्थिति कुछ ठीक नहीं थी। उन्हें भोग विलास की वस्तु समझा जाता था जिसका विरोध ध्रुवस्वामिनी ने इस नाटक में किया। इस लेख में आप ध्रुवस्वामिनी के माध्यम से तत्कालीन समाज और स्त्रियों की समस्या पर समग्र रूप से अध्ययन करेंगे तथा जयशंकर प्रसाद के दृष्टिकोण से भी परिचित होंगे। जयशंकर प्रसाद का काल 1916 से 1950 स्वीकार किया जाता है ।जयशंकर , भारतेंदु के उत्तराधिकारी के रुप में प्रस्तुत हुए क्योंकि महावीर प्रसाद द्विवेदी जी ने नाटक के क्षेत्र में विशेष योगदान नहीं दिया आता उनके काल को हिंदी नाटक में अंधकार युग कहा गया। प्रसाद जी ने नाटक की रचना में विभिन्न नए प्रयोग किए जैसे अंको के विभाजन क्षेत्र में पर्दे पर रंगमंचीयता के संदर्भ में आदि। उन्होंने अनेक प्रकार की रचनाएं कि जैसे पौराणिक ,ऐतिहासिक ,मिथक ,लोक-श्रुति के आधार पर। किंतु अनेक नाटक में ऐतिहासिक पात्रों की बहुलता रही उन्होंने अतीत के गौरव का बखान किया। भारत वासियों की पराजित मनोवृति को अतीत के गौरव से सहलाया ध्रुवस्वामिनी ,मंदाकिनी ,जैसी पात्रों ने स्त्री चेतना स्त्री आंदोलन में बढ़ चढ़कर भाग लिया। ध्रुवस्वामिनी का प्रकाशन 1933 में हुआ नाटक में नारी के अस्तित्व, अधिकार, और पुनर्लगन, की समस्या को उठाया है इस नाटक में पुरुष सत्तात्मक समाज के शोषण के प्रति नारी का विद्रोह है। ऐतिहासिक पृष्ठभूमि को आधार बनाकर रचे गए इस नाटक के माध्यम से नाटककार ने नारी जीवन की जटिल समस्याओं के संबंध में अपने दृष्टिकोण को प्रस्तुत किया ...